मिलन, एक मनीषी व ऋषि का

February 1991

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उल्लास और संकोच के साथ उसने अपने पैर धरती पर रखे इस सपनों के देश में आगमन सुहृद आत्मीय नितान्त अपने से मिलन का सुयोग। ऐसे अवसर पर उल्लास न हो तो कब हो? पर साथ ही संकोच की एक झीनी चादर उसे अपने में लपेटे थी। चाहकर भी इस अनचाहे आवरण से अपने को छुटा नहीं पा रहा था। रह-रहकर हवाई जहाज के भीतर का माहौल, आगे की सीट पर बैठे हुए यात्री का चेहरा, चश्मे के नीचे से झाँकती उसकी दो गोलमटोल चमकीली आँखें और शब्द .......उफ ........वह सिहर उठा।

सामान के नाम पर एक अटैची को लेकर हवाई अड्डे के बाहर आ चुका था। पता नहीं कब तक अपने में खोया रहता पर ताँगे वाले ने टूटी फूटी अँग्रेजी में पूछा कहाँ चलेंगे और उसने एक पता बताया। इस पते पर रहने वाले को कौन नहीं जानता। कलकत्ते की जगह अगर उसने यह नाम भारत के किसी कोने में भी कहा होता, तो लोग उसे उनके पास तक पहुँचा देते। मोल-भाव करने की जरूरत नहीं समझी। इस तरह का वाद-विवाद करने जैसी अभी उसकी मनःस्थिति भी नहीं थी।

ताँगा चल पड़ा। पहिए सड़क पर तेजी से ढुलकने लगे। साथ ही चल पड़ी उसकी थमी हुई विचार शृंखला। भाव, कल्पना, विचार यही तीन तो मनुष्य को उसकी मनुष्यता प्रदान करते हैं। इनमें से एक भी गायब हुआ बस इन्सान जानवर बना। भाव के बिना प्रेरणा नहीं, कल्पना के बिना दूरदर्शिता नहीं और विचारों के बिना इनकी साज सँभाल नहीं। विचारों की शृंखला में बार-बार साथ सफर करने वाला यात्री आने लगा।

वह व्यक्ति भी लगभग साथ ही चढ़ा था। प्लेन के गति पकड़ लेने पर यात्रियों में चर्चा शुरू हो गई। चर्चा और क्या होती? विश्वयुद्ध की सरगर्मियां हरेक के दिलों दिमाग पर छाई हुई थीं। यही केन्द्र बिन्दु बना यात्रियों की बात-चीत का। मनुष्य क्यों करता है ध्वंस? इस रक्त तर्पण, उज्ज्वल धरती पर खून की लाल कीच फैलाने का दोषी कौन? इन्सानी लाशों, बेसहारा महिलाओं की करुण चीत्कारों के बीच हँसी की गूँज सफलता का उन्मत्त गान। यह सब किसका कर्तृत्व है?

चर्चा कर रहे व्यक्तियों में वह प्रधान था। अपनी गोल आँखों को चमकाता हुआ वह बोला था “यह सब विज्ञान की करामात है, विज्ञान की। वैज्ञानिकों की अक्ल जो न करे सो थोड़ा।” इतना कहते-कहते वह आक्रोश में आ गया था। सारे शरीर में जैसे लाखों चींटियां एक साथ रेंग गई थीं। उसकी प्रतिक्रिया से बेखबर अन्य लोग रस ले रहे थे। “विज्ञान भला दोषी क्यों है?” एक ने पूछा। “वह नहीं तो और कौन?” दोषी ठहराने वाले व्यक्ति की एक तेज आवाज उभरी। “सैकड़ों तरह के बम, मारक प्रक्षेपास्त्र, जहरीले रसायन विनाश के रोज नए सरंजाम कौन जुटाता है? इसकी खोज में जुटे अकल के इन ठेकेदारों को क्या नहीं मालूम कि ये किस काम आएँगे। पर नहीं, पैसा सुविधा सम्मान पदक की चमक से चौंधियाई आँखों को मनुष्यता का क्षत विक्षत जिस्म कहाँ दिखता है? किसे फुरसत है जो उसकी कराहटों को सुने? “

जहाज में सन्नाटा था। सभी उसकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे। सभी के साथ वह भी। बोलने वाला तो जैसे दहकते अंगारे उछाल रहा था और सारे अंगारे उसी के जिस्म पर पड़ रहे थे। वह सोचने लगा क्या सिर्फ विज्ञान दोषी है अथवा दोषी है मानवी प्रवृत्तियोँ? जब विज्ञान नहीं था तब क्या लड़ाइयाँ नहीं होती थीं - मार-काट नहीं मचती थी। भले उस में आज की तरह अणु आयुध न इस्तेमाल किए जाते हों किन्तु विनाश की ताँडव लीला तो आज की तरह पहले भी थी। बेचारा विज्ञान तो मानवी प्रवृत्तियों के हाथ की कठपुतली भर है और अधिक कुछ सोचता कि उसके कानों में पिघलते शीशे की तरह उसके शब्द पड़े। “आप कहेंगे-विज्ञान यंत्र है। मैं कहता हूँ विज्ञान शक्ति है। आज के मानव की सर्व समर्थ शक्तियों में प्रधानता। इस शक्ति को विनाशकारी बनाकर अनगढ़ मानवों के हाथ में सौंपने वाले कौन हैं? जब मालूम है मनुष्य अनगढ़ है तब उसके हाथों में ऐसे प्रलयकारी सरंजाम क्यों सौंपे जा रहे हैं?” यह जैसे उसी के सवाल का जवाब था।

उसने एयरहोस्टेस को इशारे से बुलाकर एक पत्रिका माँगी। इस पत्रिका की आड़ में उसने परेशानी पर छलछला आयी पसीने की बूंदों को पोंछा और विज्ञान-मनुष्य-दोषी कौन? इस गणित को सुलझाने लगा। उसके उतरने के पहले वह उतरकर चला गया था। किन्तु सवाल ज्यों के त्यों थे? मानवीय अस्तित्व के शाश्वत प्रश्न इन्हें कौन सुलझाए?

“साहब! आश्रम आ गया।“ ताँगे वाले ने कहा वह चौंका -देखा -ताँगा एक विशालकाय परिसर के सामने आने वालों की अगवानी करते कतार में खड़े वृक्ष, मखमली घास-प्रकृति की सार सुरम्यता जैसे विश्व कवि का सहचरत्व पाने के लिए यहीं आकर टिक गई हो। भीड़-भाड़ से दूर यह जगह अपने नाम के अनुरूप शाँति का उपवन थी। देखने पर आंखें नहीं अघाती थीं।

धोती कुर्ता पहिने एक व्यक्ति ने सौम्यता बिखरते हुए उनका परिचय पूछा। गुरुदेव के मित्र हैं, सुनकर बड़े आदर से उनका सामान रखा, साथ लेकर उनसे मिलाने चल दिए। कुछ ही क्षणों में दोनों आमने-सामने थे। ठेठ बंगाली पहनावे में लिपटे इस ऋषि कल्प व्यक्तित्व को देखते ही आँखें जुड़ गईं। उन्हें गले लगा लिया। भोजन आवास विश्राम की समुचित व्यवस्था हुई।

शाम को आश्रमवासियों से उनका परिचय हुआ। एक लाइन में सभी कुर्सियाँ डालकर बैठ गए। इस सब के बीच वायुयान की चर्चा उसके दिमाग में ज्यों की त्यों जमी थी। दोषी कौन? समाधान क्या? ये सवाल उसके चिन्तन आकाश में पूर्ववत मंडरा रहे थे ।

चर्चा के बीच उसने पूरी घटना को यथावत सुनाया। साथ ही अपने प्रतिक्रियात्मक चिन्तन को भी। प्रत्येक की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि का शीतल अहसास उसे हो रहा था। समाधान के लिए सभी ने गुरुदेव की तरफ ताका।

दाढ़ी के भीतर से झिलमिलाती मुस्कान के साथ उन्होंने कहना शुरू किया - आप ठीक कहते हैं, दोषी मानवीय प्रवृत्तियाँ हैं पर इन मानवी प्रवृत्तियों के परिशोधन की जिम्मेदारी किसकी है?

एक ऐसा सवाल-जिसके जवाब के बारे में पश्चिमी मन ने अभी तक सोचा ही नहीं। आगन्तुक वैज्ञानिक मौन थे। उन ने स्वयं जवाब दिया “अध्यात्म।” “मानवीय चेतना के विविध स्तरों की संरचना प्रक्रिया की जानकारी करने, इसमें आवश्यक फेर बदल करने में समर्थ विधा“।

“तब यह अपनी जिम्मेदारी से इतना विमुख क्यों?” हवा के तेज झोंके के साथ उभरा वैज्ञानिक महोदय का सवाल वाजिब था ।

“स्थूल के मोह से बँधे मनुष्य ने अध्यात्म के तत्व को भुलाकर उसके कलेवर रूप कर्मकाण्ड को पकड़ना चाहा। पर यह भी कहाँ पकड़ा जा सका? अस्तित्व की गहराइयों से निकल रही उनकी वीणा उपस्थित लोगों को एक पीड़ा का अहसास करा रही थी। देशकाल की अनेकों प्रथाएँ, परम्पराएँ, रीत-रिवाज, मान्यताएँ इससे आकर चिपट गए। अनेक मूढ़ताओं के अनुरूप अनेक धर्म। अध्यात्म का तत्व तो इन मूढ़ताओं के पहाड़ के नीचे दबा सिसक रहा है। कैथोलिक प्रोटेस्टेण्ट, हिन्दू मुस्लिम, सिख का जामा पहनकर दूषित मानवीय प्रवृत्तियाँ धर्मतन्त्र के शुभ्र नीर समुद्र में रक्त की कीच घोलती हैं। “

“ओह!” अनेकों के मुख से एक साथ निकला। कइयों की लंबी साँस एक साथ वातावरण में सरसरा उठीं।

“ऐसी दशा में विकृत मानवी प्रवृत्तियाँ विज्ञान द्वारा जुटाए जा रहे साधन-सरंजाम का उपयोग कैसा करेगी, यह भी कोई बताने की बात है। मानवीय बुद्धि की कुटिलता की परिणति....” आशंका के भयावह सागर में अनेकों मन डूबने लगे। “तब फिर क्या?” निराश वैज्ञानिक ने उनकी ओर देखा।

“समाधान है।” विश्व कवि की उर्वर कल्पना मुखर हो उठी। सुनने के लिए अनेकों मन अकुला उठे। वह कह रहे थे “विज्ञान और अध्यात्म एक साथ मिलें, एकाकार हों। इनमें विरोध की जगह सौहार्द पनपे।”

“पर..... पर..... विज्ञान की प्रवणता और प्रयोगों की कसौटी पर क्या अध्यात्म टिक सकेगा?”

“सुनकर कवि गुरु खिलखिलाकर हँस पड़े। भ्रमों से दूर रहने वाले विज्ञान को यही भ्रम है बारबार। विज्ञान के ये गुण तो अध्यात्म के सहयोगी बनेंगे। तर्क प्रवणता और प्रयोगों की छैनी-हथौड़ी ही तो इसे मूढ़ताओं के भार से मुक्त करेगी। जब सामान्य समझ सकेगा, अध्यात्म जमीन इमारतें नहीं, वेशभूषा माया नहीं, अलगाव आतंक नहीं, प्रेम हैं। इन्सान को इन्सानियत सिखाने की कला है।”

वैज्ञानिक हाइज़ेनबर्ग कह उठे तब तो वैज्ञानिक अध्यात्म या आध्यात्मिक विज्ञान सुखी मानवता के चिन्तन और जीवन की राह बनेगा। भावी मानवता का आधार भूत जीवन दर्शन बनेगा कवीन्द्र रवीन्द्र ने प्रसन्नता व्यक्त कर अपनी सहमति की मोहर लगा दी।

विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर से भौतिक विज्ञानी हाइज़ेनबर्ग का यह मिलन उनके जीवन की अमूल्य निधि बन गया। “द होलो ग्राफिक पेरीडाइम” के उल्लेख के अनुसार इस मुलाकात के बाद उन्होंने न केवल भौतिकी की शोध में बल्कि अपनी जीवन पद्धति में भारी फेर बदल की। हमारा अपना जीवन भी भवितव्यता के अनुरूप कुछ ऐसा ही बदलेगा- नियन्ता यही आशा कर रहा है।


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