ध्यानयोग की तात्विक पृष्ठभूमि

February 1991

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बच्चे दिन भर निरुद्देश्य मात्र मनोरंजन के लिए उछलते कूदते फिरते हैं। हिरन भी इस प्रकार चौकड़ी भरते रहते हैं। बन्दरों को इस डाली पर से उस डाली पर उचक मचक किये बिना चैन नहीं पड़ता। श्रम पूरा पड़ता है पर उससे प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। मन का भी ऐसा ही स्वभाव है। जाग्रत में ही नहीं स्वप्न की स्थिति में भी निरर्थक कल्पनाएँ व्यक्ति करता रहता है। इसमें श्रम तो पूर पड़ता है, शक्ति भी खर्च होती है पर लाभ कुछ नहीं होता। इसी कार्य को किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्रमबद्ध रूप से किया गया होता तो उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध होता, लाभ मिलता।

ध्यानयोग की साधना का यही उद्देश्य है कि उसको बेतुकी हरकतों-हलचलों में निरत रहने से रोका जाय और क्रमबद्ध रूप से कार्य करने के लिए अभ्यस्त किया जाय यह अध्यात्म प्रयोजनों के लिए तो अनिवार्य है ही, साँसारिक क्रियाकलापों को भी ठीक तरह से सम्पन्न करने के लिए भी आवश्यक है। अन्यथा जो भी काम हाथ में लिया जायगा वह अस्त व्यस्त बनेगा और उसकी सफलता सन्दिग्ध रहेगी। गेहूँ एक टोकरी में रखे रहें तो उनका मनचाहा उपयोग किया जा सकता है। पर यदि दानों को रेत में बिखेर दिया जाय तो समझना चाहिए कि वह बरबाद हो गया। उसका एक दाना बीनने में जितना श्रम समय लगेगा उतनी ही कीमत उस गेहूँ की बैठेगी जिसे रेत में बिखेर दिया गया था ।

मनुष्य मात्र हाथों से ही काम नहीं करता उसके पीछे मस्तिष्क का भी तारतम्य रहता है। विचार भी जुड़े रहते हैं। दोनों का संयोग होने पर छोटे बड़े काम ठीक तरह बन पड़ते हैं। काम केवल हाथ पैर करे और दिमाग का उसके साथ संयोग न हो तो समझना चाहिए कि उस कार्य में गलती ही गलती रहेगी। डाँट पड़ेगी। भर्त्सना होगी और कहा जायगा कि मन लगा कर, ध्यान देकर काम नहीं किया गया।

छूट पुट काम भी जब बिना मन लगाये नहीं हो सकते तो बड़े कामों का तो कहना ही क्या? लम्बे चौड़े बही खाते करने वाले मुनीम ध्यान एकाग्र करके अपना काम करते हैं तभी काम बन्द करते समय एक एक पैसे का हिसाब मिलता है। बेमन से करने पर तो भोजन भी ठीक नहीं लगता। बार-बार गलती होती है और भूल पकड़ने में घंटों लग जाते हैं। महत्वपूर्ण मशीनों के उपयोग में भी यही बात है। छोटा सा टाइपराइटर तक दुचित्ते आदमी के हाथ में जाकर हर लाइन में गलतियाँ छोड़ता जाता है। मूर्तिकारों, चित्रकारों के सम्बन्ध में भी यही बात है। एकाग्रता के अभाव में उनकी कृतियाँ फूहड़ ही बनी रहती हैं। मनुष्य की तीन चौथाई योग्यता उसके मस्तिष्क में रहती है और एक चौथाई समूचे शरीर में। मस्तिष्क गड़बड़ाने लगे तो शराबियों की तरह पैर लड़खड़ाने लगते हैं। मुँह से शब्द कुछ के कुछ निकलते हैं। मूर्खों की मूर्खता इस तथ्य के साथ जुड़ी रहती है कि उनने मन लगा कर काम नहीं किया।

अन्यमनस्क भाव से पढ़ने वाले विद्यार्थी अकसर फेल होते हैं। जब कि कुन्द जहन समझे जाने वाले लड़के मन लगा कर पढ़ने पर अच्छी सफलता प्राप्त करते हैं। यही बात हर कार्य के सम्बन्ध में है। दर्जी, स्वर्णकार आदि शिल्पी यदि मन की एकाग्रता के अभ्यस्त हैं तो वे बढ़िया काम के बढ़िया पैसे वसूल करेंगे। इसके विपरीत कम मन लगाने वाले, इधर उधर चित्त डुलाने वाले प्रवीणता उपलब्ध नहीं कर पाते और ग्राहकों के मन से उतरे रहते हैं ।

योजनाएँ बनाने वाले, आर्चीटेक्ट स्तर के व्यक्ति मात्र परीक्षा पास कर लेने भर से ख्याति प्राप्त नहीं होते। उन्हें हर काम में दत्तचित्त होना पड़ता है। इसी आधार पर काम अधिक सही और सुन्दर बन पड़ते हैं। यदि उपेक्षा का मन रहा होगा तो उसके काम बेतुके होंगे और दर्जा घटता, गिरता जायगा।

लुहार दिन भर हथौड़ा चलाता है और पहलवान थोड़ी देर दण्ड पेलता है पर दोनों की उपलब्धियों में भारी अन्तर रहता है। व्यायाम की दृष्टि रखते हुए प्रातःकाल टहलने वाले जितना लाभ उठा लेते है, उतना दिन भर चिट्ठी बाँटने वाले पोस्टमैन नहीं ले पाते। इसका कारण काम के साथ तन्मयता का समावेश होना भर है।

किसी का भविष्य कैसा है? किसे किसी काम में सफलता मिलेगी या नहीं? इसका उत्तर पाने के लिए यह देखना होगा कि उसका मन अपने काम में कितना रस लेता है और कितनी तत्परता का सम्मिश्रण कर पाता है।

थामस डेवी जब छोटे थे तभी से उनकी इच्छा वैज्ञानिक बनने की थी। उन की माँ की आर्थिक स्थिति ऐसी न थी कि बच्चे को साइंस पढ़ा सके। बच्चे ने माँ से कहा मुझे किसी वैज्ञानिक के यहाँ नौकर रख दो। मैं रोटी भर वहाँ से पा लिया करूं तो फिर वहाँ की गतिविधियों को देखकर ही वैज्ञानिक बन जाऊँगा। माँ ने बहुत तलाश करने पर एक वैज्ञानिक से इसके लिए सहमति प्राप्त कर ली। उसने कहा बच्चे को कल लाना। उसमें ऐसी प्रतिभा होगी तो उसका खर्च भी उठा लेंगे और वैज्ञानिक भी बना देंगे। दूसरे दिन माँ उसे लेकर पहुँची तो वैज्ञानिक ने कमरे में झाडू लगाने के लिए उससे कहा। लड़के ने ऐसी दिलचस्पी से बुहारी लगाई कि चप्पा-चप्पा उस सफाई से चमक उठा। वैज्ञानिक ने उसे रख लिया। डेवी असाधारण वैज्ञानिक बना। यह शिक्षण उसने किसी कालेज में नहीं वरन् उस वैज्ञानिक के कामों में हाथ बँटाते हुए पूछताछ करते रह कर ही प्राप्त कर लिया? एकाग्रता के साथ ही मनुष्य का भाग्य और भविष्य जुड़ा हुआ है। संसार भर के प्रगतिशील मनुष्यों की यहीं विशेषता रही है कि उनने अपना मनोयोग अभीष्ट दिशा में लगाया और उसका समुचित प्रतिफल पाया।

टार्च में नन्हा सा बल्ब होता है। उसे यदि खुला जलने दिया जाय तो सिर्फ अपना मुँह चमकता रहेगा। थोड़े क्षेत्र में ही प्रकाश फैल सकेगा। किन्तु जब उसका प्रकाश छोटे घेरे में समेटा जाता है तो जो भी देखना हो अच्छी तरह देखा जा सकता है। विचारों को समेटने, एक-एक छोटे बिन्दु पर केन्द्रीभूत करने की कला को ही ध्यान कहते हैं। जीवन कला में इस विशेषता का महत्वपूर्ण स्थान है। कलाकारों और कारीगरों को भी इसका अभ्यास करना पड़ता है फिर जिन्हें आत्मिक प्रगति की उत्सुकता है उन्हें इसके लिए विशेष रूप से प्रयत्न करना पड़ता है। भूलों को सुधारने और प्रगति का अभीष्ट मार्ग प्राप्त करने में इसी प्रक्रिया का अनिवार्य रूप से अवलम्बन लेना पड़ता है।

ध्यान को योग का प्रथम चरण कहा गया है। पातंजलि ने योग की व्याख्या परिभाषा करते हुए एक संक्षिप्त सूत्र में गागर में सागर भरने की उक्ति चरितार्थ की है। उनने योग दर्शन में कहा है “योगश्चित्त वृत्ति निरोधः” अर्थात् चित्त की वृत्तियों को रोकना योग है। चित्त छोटे बालक के समान है। उसे विविधता और अनेकता प्रिय लगती है। हाट बाजार में उसे गोदी में लेकर जाया जाय तो जो कुछ भी चमकीला भड़कीला दीखता है उसी को पाने के लिए हठ करता है। उसे इस बात का ज्ञान नहीं होता कि वह उसके काम की भी है या नहीं। ललचाना मचलना यही बिखराव है। यही चित्त वृत्ति है। इसे रोकने पर ही सुई की नोक में से धागा निकालने जैसे काम पूरे होते हैं। इसी के आधार पर बन्दूक का निशाना सही बैठता है। यही वह अभ्यास है कि जो आत्मिक प्रगति के लक्ष्य को पूरा करा सकता है। उसमें अपने को एक केन्द्र पर केन्द्रित होने की कला सीखनी पड़ती है।


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