जब पहचानी मानव जीवन की गरिमा

February 1991

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“ठहरो।” मानों किसी ने पीछे से जबरन खींच लिया हो। सचमुच दो पग पीछे हट गया अपने आप। मुख फेर कर पीछे देखना चाहा उसने इस प्रकार पुकारने वाले को, जिसकी वाणी में उस जैसे कृतनिश्चयी को पीछे घसीट लेने की ताकत थी।

थोड़ी दूर शिखर की ओर उस टेड़े-मेढ़े घुमावदार पथ से चढ़कर आते उसने एक पुरुष को देख लिया। मुण्डित मस्तक पर तनिक-तनिक उग आए पके बालों ने सफेदी पोत दी थी। यही दशा नासिका और उसके समीप के कपोल के कुछ भागों को छोड़कर शेष मुख की भी थी। कटि पर गेरुए कोपीन के अतिरिक्त शरीर पर अन्य कोई वस्त्र न था। खूब लम्बे शरीर को वृद्धावस्था न तो क्षीण कर सकी थी और न झुर्रियाँ डाल पाई थी।

नजदीक आने पर दिखा कि उनके शरीर का रंग भी कोपीन की ही भाँति रक्तिम है। उनका भव्य ललाट आत्म तेज की आभा से दीप्त है। उनके तेजपूर्ण नेत्रों से निकलने वाली ज्योति रेखाएँ किसी के अस्तित्व को भेदन में सक्षम हैं। वह अचानक खड़ा देखता रहा।

“तुम आत्म हत्या करना चाहते हो? इतने डरपोक हो तुम? छिः झिड़क दिया महापुरुष ने। नीचे अतल खड्ड था। एक उजाड़ ऊँची चोटी पर किनारे से कुल दो पद पीछे खड़ा था। वहाँ से झुक कर नीचे देखने में भी भय लगता था। नीचे गिरे तो हड्डी-पसली का पता भी नहीं चलने का। इसी चोटी से कूदकर अपनी विषय भावनाओं से मुक्ति पाने आया था वह। कोई” आकस्मिक बात न थी, कई सप्ताह मनोमन्थन के तुमुल संघर्ष के बाद यह निश्चय किया था। पर कहाँ हाय रे मानव! मरना भी तेरे हाथ नहीं। ठीक कूदने के क्षण उसे पुकार कर रोक लिया गया।

“तुम जानते हो कि मरकर परिस्थितियों को बदला नहीं जा सकता।” महापुरुष उसके कन्धे पर अपना दाहिना हाथ रखकर कह रहे थे “संकटों को मृत्यु हटा नहीं पाती और न उससे कुछ मिल पाता है। उनसे डरकर जीवन से भागना घृणास्पद भीरुता है और तुम्हें यह भी जान लेना चाहिए कि इस संसार में समस्त दण्ड विधान भीरु के लिए बनाए जाते हैं।”

“मैं ऊब गया हूँ। जलते-जलते मेरा हृदय असह्य पीड़ा से विदीर्ण हो चुका है”। उसकी सिसकियाँ फूट पड़ी। “किसी भी प्रकार मैं अब यह सब सहन नहीं कर सकता। एक बार इससे परिपात्र पाने का मैंने निश्चय कर लिया है।”

“बड़ा अच्छा निश्चय है तुम्हारा।” उनके चेहरे पर हँसी खेल गई। “भोले युवक। जब गाय क्षुधा-पिपासा हरे चारे के लोभ या बन्धन से ऊबकर रस्सी तुड़ाकर भागती है तो पुनः पकड़ कर बाँध दी जाती है। बन्धन और कठोर हो जाता है। लाठी-डण्डे ब्याज में मिलते हैं। “

यह पहेली उसकी समझ में नहीं आई। मुख उठाकर उसने उनकी ओर जिज्ञासा भरी आँखों से देखा।

“कर्मों का नाश नहीं होता। प्रारब्ध प्राप्त भोगों का परित्याग कोई अर्थ नहीं रखता। अगला जीवन वहीं से शुरू होगा, जहाँ से तुमने इसे छोड़ा था। आत्महत्या पाप है - उसका दण्ड, अपने कर्म क्षेत्र से बिना नियमित अवकाश का अवसर आए भागने का दण्ड दोनों को ही तुम्हें भोगना पड़ेगा। “

“ओह!” सिर पर दोनों हाथ रखकर घुटनों के बल वहीं बैठ गया। दोनों घुटनों के मध्य सिर करे सम्भवतः रोने लगा था। निस्सीम थी उसकी वेदना ओर छोर नहीं था उसकी पीड़ा का।

“मेरे बच्चे” महापुरुष के अमृतस्पन्दीकरों ने उसके मस्तक का स्पर्श किया। उनकी जीवन संचारिणी वाणी ने कानों में अमृत उड़ेला “तुम व्यर्थ अधीर हो रहे हो। जीवन उसका है जो दृढ़तापूर्वक उसे अपनाता है। जो कठिनाइयों के मस्तक पर अपने मजबूत पाँव जमाकर खड़ा हो सकता है। जीवन अधीर और भीरु का नहीं है।”

संध्या हो चुकी थी। अस्ताचल से एक बार दिनपति ने जगती को देखा और विराग की छाया सम्पूर्ण धरातल पर विस्तीर्ण हो गई। सम्पूर्ण हिमाच्छादित गिरि शिखर गैरिकवर्णी वीतरागी संन्यासी के वेष में परिवर्तित हो गए। तरु-वीरुधलताओं ने भी उसी वर्ण को अपना लिया। प्रत्येक शिला रंग गई उसी रंग में। पक्षियों ने दिशाओं में मंत्रपाठ प्रारम्भ किया और इसी समय गगन से उन दोनों व्यक्तियों के मस्तक पर धुनी रुई के समान सूर्य किरणों में रंगी हिम इस प्रकार गिरने लगी, जैसे आकाश से गेरू की वर्षा हो रही हो।

“आज हिमपात का प्रथम दिन है।” उन ने नभ की ओर देखा। सम्भव है अधिक बर्फ गिरे। उन्होंने संकेत किया और वह उनके पीछे अवश हो चल पड़ा। हिम पर नये चिन्ह बनते जा रहे थे और नवीन हिम उन्हें मिटाता जा रहा था। वे चले जा रहे थे, चुपचाप शाँत पैर बढ़ाए।

इन पैरों ने उन दोनों को एक झोपड़ी तक पहुँचा दिया। जल का एक घड़ा, मिट्टी के दो-तीन सकोरे, कटु तुम्बी के कटोरे जैसे कटे दो बोल, कुछ टाट, एक चटाई। थोड़ी सी पुस्तकें और कोपीन के दो गैरिक टुकड़े-उनके पास परिग्रह के नाम पर बस यही था।

“माता-पिता दस साल की आयु में छोड़कर चले गए। जमीन हड़पने को सगे-सम्बन्धी काफी थे।” चटाई के एक छोर पर बैठा वह उनको अपनी कहानी सुना रहा था। दूसरे छोर पर कमर को कुछ झुकाकर बैठे वह ध्यानपूर्वक उसकी बातें सुन रहे थे। “जिन्होंने सब कुछ हड़प लिया, वे भी रूखी रोटी देने में शर्माते हैं। सब मुझसे इस तरह दूर-दूर रहते हैं जैसे मैं छूत का रोगी होऊँ”।

मैंने सोचा “शायद यह भी भगवान का कोई अनुग्रह है। सो भटकता हुआ यहाँ चला आया। पर मेरा अंतर्जगत बाह्य से भी अधिक कोलाहलपूर्ण है। दुर्दय मन अदम्य नीरस हृदय।” बीस वर्ष के इस तरुण के जीवन अनुभवों को वे गहरी एकाग्रता के साथ सुन रहे थे। वह कह रहा था “शरीर का कोई उपयोग नहीं। हृदय की उत्सुकता और कौतूहल मर चुके। बुद्धि केवल कल्पना जाल में अपनी शक्ति व्यय करके रह जाती है।” रुक-रुककर कह रहा था वह “तब पृथ्वी का भार क्यों बढ़ाया जाय? निर्धन को संसार में जीने का अधिकार नहीं-साधना के लायक मेरा मन नहीं। तब ऐसे में.......।”

चन्द्रमा हल्का हल्का प्रकाश दे रहा था। वृक्षों की शाखाएँ धूमिल रजनों में हिम का उज्ज्वल भार उठाए चमक रही थी। क्षण-क्षण पर उनसे धप शब्द के साथ हिम का ढेर गिर पड़ता। पशु-पक्षियों की चीखें यदा-कदा सन्नाटे को कँपा देतीं। उटज के आले में मन्द-मन्द दीपक टिमटिमा रहा था। गहराती रात्रि उसकी पलकों को बोझिल करने लगी। बातों का अधूरापन उसमें खोने लगी।

दूसरे दिन रात्रि की बर्फ तो गल गई। पर कीचड़ हो गया था पथ पर। वृक्षों के पत्ते काले पड़ गए थे। लताओं की हरीतिमा लुप्त हो जाने से उनका कण्टकमय कंकाल साफ नजर आने लगा था। उनने स्नान क्या किया, मानों महासमर जीत लिया हो। सूर्य किरणें प्राणों का वितरण करने में तन्मय थीं।

“तुम मानव हो, वह मानव, जिसकी मानवता पर देव और दानव दोनों ईर्ष्या करते हैं। “ महात्मा बाहर एक स्थान पर बैठ गए थे, वह भी उसके सम्मुख बैठा था। “तुम्हें ठीक-ठाक मनुष्य बनना है, उससे कम नहीं। “

“किसे कहते हैं मानव?” प्रभावपूर्ण ढंग से वह रुक-रुककर बोल रहे थे “सबलता और दुर्बलता के मिश्रित पुतले को, जिसमें दूसरों के प्रति भी वही अनुभूति हो, जो उसे अपने सम्बन्ध में होती है। यही अनुभूति जीवन का सार है। जैसे-जैसे यह गहरी होती है दुर्बलताएँ पलायन कर जाती हैं और वह अपने ठीक स्वरूप में खड़ा हो जाता है। उसके इस भावमय स्वरूप को देख नारायण भी ललचा उठता है। वह भी नर रूप धरकर भाग चला आता है और मनुहार करता है भैया! तुम मुझे अपना मित्र बना लो। उसकी अनुनय तुमने सुनी है, सुहृद सर्वभूतानाँ के बहाने।”

शब्द उसके अंतर्मन में उतरते चले जा रहे थे। दूसरों की पीड़ा की भावानुभूति। उसने दूसरों के बारे में सोचा ही कब? वह तो सदा अपने बारे में सोचता चला आया है। औरों को ऊँचा उठाने में लगी दुर्बल भुजाएँ भी थोड़े समय में लौह दण्ड बन जाएँगी। पर उसकी नियति...... सोच की सुई यहीं अटक गई। यह नियति ही तो उसे पटकने आई है। “नियति...... नियति” मुँह से निकल ही गया आखिर यह शब्द।

शब्द के पीछे झाँकता मन का उद्वेलन उनसे छिप न सका। वे कहने लगे “नियति की यही इच्छा है कि मनुष्य ऊँचा उठे। उसे आगे बढ़ाने के लिए प्रकृति की शक्तियाँ निरन्तर सक्रिय रहती हैं। ईश्वर के राजपुत्र को सुखमय बनाना ही प्रकृति का क्रम है। सृष्टा ने इसीलिए उसे रचा और खड़ा किया है। “

“फिर भी स्वयं दुख में डूबा है वह।” चाहते हुए भी अपने आश्चर्य को व्यक्त करने से रोक न सका।

“अन्तःकरण की आकाँक्षा का सही निर्धारण नहीं कर पाया वह। यदि यह प्रथम पुरुषार्थ उससे हो सके तो आत्मसत्ता उसकी पूर्ति में जुट जाती है। मनः तंत्र अपनी विचारशक्ति और शरीर तंत्र अपनी क्रियाशक्ति को उसी आदेश के पालन में जुटा देता है। मनुष्य आगे बढ़ता है। उसके निर्धारण और पुरुषार्थ को इस विश्व में चुनौती देने वाला कोई है भी तो नहीं?”

वार्तालाप के इस अनवरत प्रवाह में उठ रही अनेकानेक विचार भँवरों में उसके मन की टूटी नाव चक्कर खाने लगी। गहरी मीमाँसाओं को सुनने जैसी मनःस्थिति उसकी अभी हो नहीं सकी थी। वह तो सीधे-सादे स्वरों में समाधान जानने का इच्छुक है। रात्रि-दिवस पर्यन्त उनके सान्निध्य से उसे यह तो अनुमान हो गया था जिसे वह खिलौने की तरह तोड़-पटककर फेंकना चाहता था, वह जीवन कोई बहुमूल्य सम्पदा है। पर उसका उपयोग किस तरह हो।

अवचेतन की गहराइयों से उमड़ रही उसके मन की हलचलें उनसे छिपी नहीं। संकोच ने वाणी पर भले बाँध बना रखा हो, पर विचारों की अविराम धारा को कौन रोके?

“मृणमय शरीर मन्दिर में शाश्वत चेतन आत्म देवता का निवास! यही है जीवन! इन आत्म देव की उपस्थिति मिट्टी के शरीर को भी चिन्मय बना डालती है। उनकी गंभीर वाणी जीवन का रहस्य उघाड़ने लगी। जीवन स्वयं में देवता है, अपरिमित शक्ति का स्त्रोत। भावमय प्रेम इसकी उपासना है, साहस भरा पुरुषार्थ इस परम देव की साधना और मौत की मनहूसियत से मरते जा रहे विश्व वसुधा में जीवन चेतना का प्रसार विस्तार इसकी आराधना है।”

शब्दों की प्राण ऊर्जा से उसकी सम्मोहन बेड़ी एकाएक तड़तड़ा कर टूट गई। इस नए तत्वदर्शन ने उसे चौंका दिया। अभी तक तो उसने जीवन को नोंचने-खसोटने-चबाने, दौड़ते-चीखते चिल्लाते पिशाच-प्रेतों से भरा महाश्मशान समझा था। विलासिता के क्रूर अट्टहास अथवा दारिद्रय का दैन्य क्रन्दन। उन्माद के चक्रवात और घुटन की मेघ मालाएँ अब तक इन्हें ही जीवन का नाम देता आया था। कितने भ्रम में पड़ा था, स्वयं की बौनी सोच पर उसे शर्म आने लगी।

“हुई पहचान मानव जीवन की गरिमा की? “ उस मौन देख उनका सवाल उभरा।

“हाँ “ इस एक शब्द के साथ एक क्षण के लिए दोनोँ की आंखें मिली। यही दीक्षा थी जीवन के महामंत्र की। स्वयं के जीवन को नष्ट करने के लिए उतारू युवक विष्णुपंत ब्रह्मन्द्र स्वामी में बदल गया। परम योगी ज्ञानेन्द्र सरस्वती की जीवन विद्या का प्रभाव था यह। जीवन के इस आराधक ने 17वीं सदी में महाराष्ट्र के इतिहास को नया मोड़ दिया। साधारण से क्लर्क बालाजी विश्वनाथ को गढ़कर पेशवा बनाया। अपने कर्तव्य से समर्थ रामदास की रिक्तता की पूर्ति की। यह महापरिवर्तन-जीवन देवता की आराधना का सुफल था। हमारे अपने शरीर मन्दिर में बैठा यह परम देवता अपने सवालों की झड़ी लगाए है, पतन अभीष्ट है या उत्कर्ष? असुरता प्रिय है या देवत्व? क्षुद्रता चाहिये या महानता? इसके निर्माता तुम स्वयं हो। पतन के पथ पर नारकीय मार सहनी पड़ेगी, उत्कर्ष के पथ पर स्वर्गोपम शाँति की प्राप्ति होगी।

निर्णय मनुष्य के हाथ में है। चयन की स्वतन्त्रता तो विधाता ने मनुष्य को दी है, किन्तु स्वच्छन्दता बरतने की नहीं।

यही अंतर्मंथन व्यक्ति को नर से देव मानव, महामानव व ऋषि, देवदूत बना देता है। समय-समय पर महाकाल की सत्ता विभिन्न रूपों में मानवी चेतना को झकझोरने आती रही है। उसे पहचानकर अवसर का लाभ जिसने उठा लिया, वह निहाल हो गया। मानव जीवन दुबारा नहीं मिलता। यह क्षय हेतु नहीं, गरिमा के अनुरूप शानदार जीवन जीने को मिला है, इस तथ्य को बार बार मनोपटल पर लाया व जीवन व्यवहार में उतारा जाना चाहिए।


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