सूरज अस्ताचल के पीछे छिपने जा रहा था। राह चलते ब्राह्मण समाज का मूर्धन्य वर्ग अपने परिजनों की लम्बी होती जा रही छाया को देखकर अनुभव कर रहा था कि उनकी चिन्ता भी इसी प्रकार बढ़ती जा रही है। कहीं दुष्ट और आसुरी प्रकृति के लोग उनका संहार करने के लिए पीछे न आ रहे हों। वे रह-रह कर पीछे मुड़कर देख लेते- दूर तक कहीं किसी के आने का संकेत नहीं मिल रहा था। फिर भी चिन्ता तो थी ही। जिस प्रान्त से वे लोग भाग कर आ रहे थे, वहाँ दुष्ट प्रकृति के अवाँछनीय व्यक्तियों ने ऐसा उत्पात मचा रखा था कि उनका वहाँ रहना भी दूभर हो गया और उन्हें अपनी प्राण रक्षा भी कठिन लगने लगी थी।
प्राण रक्षा के लिए यह दल अपने परिवारों सहित महर्षि गौतम के आश्रम में आश्रय पाने के लिए निकल पड़ा था। स्त्रियाँ व्याकुल होकर पूछ उठतीं “कितनी दूर है गौतम का आश्रम ।” तो उनके साथ वाले पुरुषों के साँत्वना भरे स्वर सुनाई देते “कल मध्याह्न तक पहुँच जाएँगे ।”
बढ़ी हुई सामाजिक अवाँछनीयताएँ- कुशंकाओं, अविश्वसनीयता के बीज हैं। इनके रहते चल रहे यात्री दल को रात्रि विश्राम की भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। पता नहीं कल कौन पीछे से घात कर दे। सो वे रात को भी चलते रहे और अगले दिन मध्याह्न के समय इन सबने महर्षि के आश्रम में प्रवेश किया। विदित था महर्षि का आश्रम सद्भावना और सामंजस्य का आगार है। वहाँ दुष्ट प्रवृत्तियाँ जाने से कतराती है। फलतः ये भी निर्भय हो गए।
आश्रमवासी मध्यानि कालीन विश्राम कर रहे थे। किन्तु अतिथियों का आगमन सुनकर सभी तत्पर हो गए तथा अभ्यागतों के आवास, भोजन और विश्राम की व्यवस्था में जुट गए। आतंकित ब्राह्मणों का भय तिरोहित हो गया। वे सभी अपनी गृहस्पत्याग्नियों के साथ आश्रम में निवास करने लगे। नित्य प्रति के अग्निहोत्र के धुएँ से आकाश में धूप छाँही चादर तन जाती। सामगान से आकाश गूँज उठता। पक्षियों का कलरव मानो उनको समवेत देता।
समय बीतने लगा। आगत जनों के अपने प्रदेश से समाचार आते रहते थे। वहाँ दुष्ट और अवाँछनीय तत्वों के उत्पात शाँत किए जाने के कारण उनकी कीर्ति भी बढ़ रही थी। एक बार भ्रमण करते हुए देवर्षि नारद महर्षि के आश्रम आए। उन्होंने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा ऋषिवर आपकी यह कीर्ति तो दिग्दिगंत में गाई जा रही है। धन्य हैं आप जैसे परोपकारी और ब्रह्मनिष्ठ सन्त जिनके दर्शन कर मैं कृतार्थ हो गया।
देवर्षि नारद तो चले गए किन्तु ब्राह्मणों के मन में ईर्ष्या भड़क उठी। गौतम का यश चारों ओर फैल रहा है और उपजा एक षड़यंत्र अपने आश्रय दाता के विरुद्ध। ऋषि अग्निहोत्र से जैसे ही उठे और अपनी पर्णकुटी की ओर जाने लगे तो देखा आश्रम के आँगन में एक दुबली पतली गाय पड़ी है। निकट आने पर गाय जीवित है या मृत इसकी परीक्षा के लिए उसकी पीठ पर अपने हाथ के दण्ड से हलका प्रहार किया, चारों ओर से ब्राह्मण निकल पड़े और उन्होंने शोर मचाया “हाय! हाय!! इस पुनीत ब्रह्म बेला में गौ हत्या। छोड़ो-छोड़ो इस ढोंगी का आश्रम प्रकट हो जाने दो संसार के सामने इसके पालक को। “
ऋषि ने ध्यानस्थ होकर देखा तो पाया कि यह ब्राह्मणों द्वारा बनाया गया गाय का पुतला है जो उन्हें कलंकित करने के लिए रचा गया व्यूह था। ऋषि गुरु गम्भीर वाणी में उन सबको सम्बोधित करते हुए बोले “हे ब्राह्मणों! मैं समझ गया कि आपके क्षेत्र में उत्पात क्यों बढ़े और फैले? जिस समाज में मूर्धन्य लोगों के हृदय इस प्रकार ईर्ष्या और कलुष के तुषानल में सुलगते रहेंगे, वहाँ अशान्ति अव्यवस्था और विग्रह क्यों नहीं आएँगे?” ग्लानि से भरे मनों वाली भीड़ में से एक युवक भीड़ चीर कर निकला और महर्षि को प्रणिपात करते हुए बोला “मैं इन सबकी ओर से प्रायश्चित करना चाहता हूँ। कारण का निवारण भी सुझाएँ। “
‘निवारण’ महर्षि एक क्षण को चौंके मुस्कराते हुए बोले- तुम्हारा साहस स्तुत्य है। पुरानी पीढ़ी की भूल को नई पीढ़ी नहीं सुधारेगी तो और कौन सुधारेगा, भूल को सुधारने का एक ही उपाय है, “सहकार भरे जीवन की शुरुआत। एक ऐसा जीवन जिसमें दूसरों को ऊँचा उठाने के लिए जीवन जिया जाय?”निर्देश का पालन हुआ, नई प्रेरणा का संचार और ऋषि प्रेरणा से सभी बदली मनोभूमि के साथ अवाँछनीयता से, अनीति से मिलकर मोर्चा लेने व सृजन प्रयोजन में जुट पड़ने वापस लौट पड़े।
आज समय बदल चुका है किन्तु चिंतन चेतना वही, शाश्वत है। सामूहिकता-संघशक्ति का जागरण ही वैयक्तिक व समष्टिगत दुष्प्रवृत्तियों का समाधान है।