आत्मिकी को उसका गौरव लौटाया जाय।

February 1991

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भौतिकी के चमत्कार सभी ने देखे हैं। उस क्षेत्र के वैज्ञानिकों, आविष्कारकों, शिल्पियों एवं व्यवसायियों ने बढ़ चढ़ कर पुरुषार्थ किये हैं और उस आधार पर अपनी सम्पन्नता एवं वरिष्ठता को बढ़ाया है। जन-साधारण के मन में यह विश्वास जगाया है कि वैज्ञानिक प्रयोग किसी पूर्वाग्रह पर आधारित नहीं, वरन् यथार्थता को खोज निकालने के क्षेत्र में तत्परता और तन्मयता के साथ संलग्न रह कर अपनी उपलब्धियों का प्रमाण परिचय दे सके हैं।

यह बात आत्मिकी के संबंध में नहीं है क्योंकि उनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान जैसा अन्तर है। जिन प्रयोगों का माहात्म्य वे जितना बताते हैं, उसके उपलब्ध होने की कोई झलक झाँकी तक नहीं मिलती। कथा पुराण सुनाने में, - कर्मकाण्डों का आयोजन करने में, ढेरों समय और श्रम चला जाता है पर उसका प्रमाण न धर्मोपदेशकों के व्यक्तित्व की वरिष्ठता बढ़ाने के रूप में मिलता है और न भविष्य के संबंध में कोई आशा बँधती दीखती है। अधिकाँश लोग साँसारिक लाभों के लिए देवी-देवताओं की पूजा पत्री करते हैं, पर देखा गया है कि किसी-किसी अंधे के हाथ ही संयोगवश बटेर लगती है। अधिकाँश को निराशा रहना पड़ता है। इस निराशा से या तो मनुष्य नास्तिक बन जाता है, या फिर जिस प्रकार स्वयं ठगा गया, उसी प्रकार दूसरों को ठग कर अपनी क्षति पूर्ति करना चाहता है। कुछ भोले भावुकों को छोड़ कर अध्यात्म प्रतिपादनों पर विश्वास करने वाले घाटे में ही रहते हैं और उपहासास्पद भी बनते हैं। ऐसी दशा में उस क्षेत्र को भौतिकी के समतुल्य व प्रमाणिक कैसे माना जाय यह प्रश्न सहज ही मन में उठता है। वह दिन दूर नहीं, जब बढ़ते हुए बुद्धिवाद की कसौटी पर धार्मिक प्रचलनों और प्रतिपादनों की ओर लोगों की श्रद्धा अब की अपेक्षा भविष्य में और तेजी से बढ़ेगी, ऐसा लगने लगता है।

वस्तुतः जब तक आत्मिकी की लकीर पीटी जाती रहेगी, तब तक ऐसा ही होता रहेगा। जबकि होना यह चाहिए कि उसे अध्यात्म की प्रयोगशाला में खरा और प्रामाणिक साबित करने के लिए प्रयोग-परीक्षण इन दिनों भी चलना चाहिए। प्रयोगशाला में किसी सिद्धान्त को सत्य सिद्ध करने के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता है, तरह-तरह के उपकरण जुटाने पड़ते हैं, अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, तब कहीं जाकर वर्षों की मेहनत से उसकी सत्यता प्रमाणित होती है, किन्तु आत्मिकी के क्षेत्र में इनकी हम सर्वथा उपेक्षा कर देते हैं। न तो हम अपने अनगढ़ व्यक्तित्व को सुगढ़ बनाना चाहते हैं, न चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को संशोधित परिष्कृत करने के लिए लम्बी अभ्यास प्रक्रिया से गुजरना चाहते हैं, जबकि सत्य तो यह है कि इससे कम में आत्मिकी के प्रारंभिक चरण की प्रक्रिया पूरी होती ही नहीं। दूसरी ओर अध्यात्म की धुरी समझी जाने वाली नैतिकता, आस्था, श्रद्धा, विश्वास जैसे आत्मिकी के उपादान कारणों को हम गौण मान बैठे हैं, जबकि यथार्थता यह है कि इसके बिना आत्मिकी का वह पक्ष अधूरा ही रह जाता है, जिसमें पत्थर में भी भगवान प्रकट करने की सामर्थ्य बतायी और वह सब कुछ हस्तगत होने की बात कही गई है, जिससे हमारे आर्षग्रन्थ भरे पड़े हैं। पर विडम्बना यह है कि आज जब श्रद्धा और विश्वास ही नहीं रहा, तो इस विश्व को हम किसी परमसत्ता की कृति क्यों मानने लगे? उसकी बनायी रचना है यह, इसे क्यों स्वीकारने लगे? तब तो हम निहिलिस्ट (शून्यवादी ) ही बन जायेंगे, जिसमें विश्व की उत्पत्ति और लय शून्य से मानी गयी है और यदि ऐसा हुआ तो व्यक्तित्व परिष्कार की भी कोई आवश्यकता नहीं समझी जायेगी तथा चार्वाक एवं चरनिस्मेस्की जैसे सुखवादियों के भोगवादी सिद्धान्त को ही लोग सर्वोपरि समझने लगेंगे कि जिसमें सबसे अधिक सुख मिले, वही कार्य करो। स्पष्ट है, इस में न तो आत्मिकी का महत्व रह जाता है, न माहात्म्य और जब इसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है तो हम आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की त्रिवेणी के सुखद सत परिणाम की आशा ही कैसे कर सकते हैं? इनकी अनुपस्थिति में तो आत्मिकी का ढाँचा ही चरमरा जाता है।

आस्तिकता के आधार पर मनुष्य सर्वव्यापी न्यायकारी ईश्वर पर विश्वास करता है और तत्काल कर्मफल न मिलने पर भी यह भरोसा रखता है कि न्यायकारी परमात्मा के शासन में देर तो है पर अन्धेरा नहीं। आज नहीं कल कुकर्मों का दंड और सत्कर्मों का सत्परिणाम उपलब्ध होगा। स्वर्ग नरक का तत्वज्ञान भी इसी की पुष्टि करता है।

आध्यात्मिकता मनःस्थिति को परिस्थितियों की जन्मदात्री कहते हैं। मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता बताती है। व्यक्तित्व निर्माण को उच्चस्तरीय सफलताओं की जननी मानती है और इसी पृष्ठ भूमि पर अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकसित होना, ऋद्धि-सिद्धियों का हस्तगत होना और व्यावहारिक जीवन में स्नेह और सहयोग के साथ देवी अनुग्रह की वर्षा होने की बात कहती है ।

तीसरी धार्मिकता मनुष्य को कर्तव्य परायणता और मर्यादा पालन की धुरी से बाँधती है। व्यक्ति को प्रमाणिक परिष्कृत, सज्जन और विश्वस्त ठहराकर वे अवसर प्रदान करती है जो समुन्नत व्यक्तित्व के लोगों को गई-गुजरी परिस्थितियों में मिले हैं वे सामान्य से असामान्य बने हैं। माना कि संसार में बेकारी और अपेक्षा ही सर्वत्र छाई दीखती है पर इसमें भी संदेह नहीं कि प्रमाणिक और कर्तव्य परायण लोगों की तलाश संसार के कोने-कोने में है। जो उस कसौटी पर खरे उतरते हैं वे सम्मान भी पाते हैं और समुन्नत भी बनते हैं।

आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता के समन्वय का नाम ही आत्मिकी है। वह जहाँ जितने अंशों में जीवन्त है, वहाँ उतना ही सुख, शान्ति, प्रगति और समृद्धि की उपलब्धि है। इन्हीं विभूतियों को तत्वज्ञान की भाषा में स्वर्ग मुक्ति या सिद्धि कहा गया है।

आत्मिकी की इस आस्था के जीवन्त रहने पर ही वैयक्तिक सुख शाँति और सामूहिक प्रगति, समृद्धि निर्भर है। यदि इस महत्वपूर्ण तत्वज्ञान के प्रति अनास्था उत्पन्न हो गई ओर लोगों ने उस पर से विश्वास खोना आरंभ कर दिया तो यह मानवी गरिमा को धूलि में मिला देने वाली और अनाचार को प्रोत्साहन देने वाली भयावह दुर्घटना होगी और बाहरी बिजली न गिरे तो इस भीतरी घुनों के लग जाने पर ही शहतीर के धराशायी होने की तरह बिस्मार हो जायेगी। विश्व व्यवस्था को, मानवी भविष्य को भयंकर आघात लगेगा। हर हालत में आध्यात्मिक तत्वज्ञान और दिशा निर्धारण को जीवन्त ही रहना चाहिए।

आज स्थिति कितनी विषम है, इसका अनुमान सर्व साधारण की गतिविधियों को देख कर ही नहीं, प्रयोक्ताओं और शिक्षकों की कथनी और करनी में जमीन आसमान जैसा अन्तर देखकर यह समझा जा सकता है कि धर्मध्वजी बनने वाले भी केवल धार्मिकता का वेष-विन्यास बनाते हैं, प्रवचन भाषण करते हैं। उनका निजी जीवन यदि साथ रहकर परखा जाय तो प्रतीत होगा कि मात्र दूसरों का मन बहलाने के लिए सिद्धान्तवाद और आदर्शवाद की बातें कही जाती हैं। उस क्षेत्र पर अधिकार जमा रखने वालों पर क्या और क्यों, ऐसा प्रभाव पड़ सकता है जिसके कारण वे आत्मिकी की आत्मा उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अपनाने के लिए तत्पर हो सकें। वहाँ गुरुओं से भी अधिक गई गुजरी स्थिति है। पूजापाठ करने वाले लोगों की मनःस्थिति को परखा जाय तो प्रतीत होगा कि वे किसी मनोकामना की पूर्ति अथवा आशंकित संकट से जान बचाने के लिए देवता का स्तवन तथा पूजा उपचार की लकीर पीटते हैं ।

अध्यात्म की पुस्तकों और उसके शिक्षकों द्वारा यह तो बताया जाता है कि इस पेड़ पर लगने वाले फूलों का स्वरूप कितना सुन्दर और स्वाद कितना मधुर होता है पर यह नहीं बताया जाता है कि उस पेड़ के आरोपण और अभिवर्धन के लिए जिन क्रिया प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है। उसके लिए उपयुक्त भूमि बनाने, खाद पानी का प्रबंध करने और रखवाली की चौकसी करने के लिए कितने धैर्य, कितने संकल्प एवं कितनी तत्परता का प्रयोग करना पड़ता है।

आज जो कदम उठे हैं, सुखद संयोग है कि अध्यात्म क्षेत्र की ओर से बढ़े हैं। अब हर अनुशासन को तर्क, तथ्य, प्रमाणों की कसौटी पर कस कर देखा जा रहा है। जब वे अग्निपरीक्षा से गुजर चुके होंगे तो निश्चित ही ग्राहय होंगे। हर समझदार व्यक्ति जब अध्यात्म और विज्ञान के समन्वित स्वरूप को जीवन में उतारते हुए उसके सत्परिणामों को देखेगा तो निश्चित ही आत्मिकी की प्रतिष्ठ वैसी ही होने लगेगी जिसकी कि वह पात्र है।


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