जल की बूँद सागर में घुलने लगी, तो अपने अस्तित्व के समाप्त होने का बड़ा दुख हुआ। सागर ने साँत्वना दी- “बेटी! तुम्हारी जैसी असंख्यों बूँदों का ही तो मैं सम्मिलित रूप हूँ। यहाँ आकर तुम लघु से विराट का अनुभव करोगी।” बूँद को सागर की बातें भायी नहीं। वह उड़कर बादल में चली गई। बादल बरसे। बूँद फिर जमीन पर आ गिरी। अब की बार धूल धूसरित भी हुई और नदी के प्रवाह में दुर्गति कराती हुई पुनः सागर की ओर ही वह चली। वहाँ पहुँच कर उसे बड़ा पछतावा हुआ कि उसने सागर की बात यदि पहले मान ली होती, तो इतनी उठा पटक एवं व्यर्थ के श्रम से बचती और सच्ची शान्ति का अनुभव करती।
अपने से बड़े और अनुभवी लोगों की बात मान लेने में ही औचित्य है।