जीवन साधन ही सच्ची ईश्वर-उपासना

February 1991

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उपासना का आरम्भ कहाँ से किया जाय? इसका उदाहरण किसी स्कूल में जाकर देखा जा सकता है। वहाँ नये छात्रों का वर्णमाला, गिनती, सही उच्चारण, सही लेखन आदि से शिक्षण आरम्भ किया जाता है और पीछे प्रगति के अनुसार ऊँची कक्षाओं में चढ़ाया जाता है। स्नातक बनने के उपरान्त ही अफसर बनने की प्रतियोगिता में प्रवेश मिलता है और जो उस कसौटी पर खरे उतरते हैं उन्हें प्रतिभा के अनुरूप ऊँचे दर्जे के दायित्व सौंपे जाते हैं।

किसी मन्त्र-तंत्र को अनावश्यक महत्व देकर उसका कर्मकाण्ड पूरा करने भर से किसी बड़े प्रतिफल की आशा नहीं की जा सकती। बाल्मीकि को नारद ने गुरुदीक्षा में ‘राम’ नाम दिया था पर वे उसका सही उच्चारण न कर सके। अतएव उलटा नाम जपने लगे और ‘राम’ के स्थान पर मरा जपने लगे। भगवान शब्दों को महत्व नहीं देते। किसने किस देवता का किस विधि से कर्मकाण्ड सम्पन्न किया इसकी देखभाल का भगवान के यहाँ कोई लेखा जोखा नहीं है और न इस प्रकार की कोई जाँच पड़ताल होती है।

यदि शब्दों का ही महत्व रहा होता तो संसार के अनेक भाषा भाषी क्षेत्र में भगवान को तो अनेक रूप वाला माना जाता है। उनमें से कोई एक सही और शेष सभी गलत माने जाते। यही बात मंत्रों के सम्बन्ध में हैं। अपने देश में ही अनेकों जप-मन्त्र प्रचलित हैं। फिर उन सबसे आत्मिक उद्देश्य कैसे पूरा होता? कोई एक ही इन में से ठीक माना जाता और शेष सब को रद्द कर दिया जाता। किन्तु सभी मंत्र सभी नाम-रूप साधक की श्रद्धा और व्रतशीलता के अनुरूप प्रतिफल प्रदान करते हैं।

इससे स्पष्ट है कि आत्मिक प्रयोजनों के लिए किसी शब्दावली या क्रियाकृत्य का उतना महत्व नहीं है, जितना कि समझा जाता है। उनका प्रयोजन इतना ही है कि पशु जीवन को ऊँचा उठाकर उत्कृष्टता का प्रतिनिधित्व करने वाले ईश्वर के साथ अपने को जोड़ा जाय। ऊँचे तालाब से नीचे वाले तालाब का सम्बन्ध नाली खोदकर बना दिया जाय तो ऊँचाव का पानी निचाव की ओर चलना आरम्भ कर देता है और अन्ततः दोनों की सतह समान हो जाती है। किसी ने भगवान के साथ सच्चा सम्बन्ध जोड़ा होगा तो तत्काल उसका जीवन स्तर ऊँचा उठना आरम्भ होगा। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की मात्रा अनवरत रूप से बढ़ने लगेगी। यह एक पहचान है जिसके आधार पर किसी की श्रद्धा और भावना परखी जा सकती है। यदि ऐसा न हो रहा हो तो समझना चाहिए कि उपासना का, ईश्वर के पास बैठने का परिणाम दीख न पड़ने का कारण यही हो सकता है कि कहीं गड़बड़ी का अवरोध अड़ रहा है।

यह मान्यता सही नहीं है कि कोई मंत्र जपने या अमुक कर्मकाण्ड करने भर से अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने वालों को जिन लाभों की अपेक्षा की जाती है वे हस्तगत होने लगें। हमें ईश्वर को अपने से अधिक मूर्ख नहीं मानना चाहिए वरन् अधिक बुद्धिमान समझना चाहिए। किसी बैंक मैनेजर की स्तुति करने या चन्दन अक्षत चढ़ाने पर वह मनचाही राशि नहीं दे देता वरन् यह देखता है कि उसका पैसा जमा है या नहीं। अथवा उधार लिया जा रहा है तो उसके वसूल होने की आशा है या नहीं। यदि इन दोनों बातों में से एक भी बात अनुकूल न बैठती हो तो बैंक मैनेजर उसकी अभ्यर्थना के लिए धन्यवाद देकर उसे खाली हाथ ही लौटा देगा। यदि ईश्वर की समझदारी बैंक मैनेजर जितनी भी मानी जाय तो मनुष्य का महत्व घट जाता है और इष्ट का बढ़ता है। उपासना का प्रयोजन इतना ही है कि हम जिसके पास बैठते हैं उसकी विशिष्टता का समावेश अभिवर्धन अपने में होने दें। चंदन वृक्ष के समीप उगे हुए सामान्य झाड़ झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। सीप के मुख में स्वाति बूँदों का प्रवेश होने से मोती बन जाता है। पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है। भगवान के सान्निध्य संपर्क की बात करने वाले यदि अपने भीतर निरन्तर उत्कृष्टता की वृद्धि होती अनुभव नहीं करते और जीवनचर्या में आदर्शवादी परिवर्तन नहीं होता तो समझना चाहिए कि विडंबना को ही उपासना समझने की भूल की जा रही है।

ठग हमेशा शिकार फँसाने हेतु चापलूसी का आश्रय लेते हैं। मित्रता की दुहाई देते हैं। चापलूसी करते है और पान बीड़ी जैसे उपहार देकर अपनी सद्भावना का परिचय देते हैं। जो उनकी बात पर विश्वास कर लेता है। उसकी जेब बुरी तरह कटती है। पूजा के नाम पर अपने को हितैषी बनाकर जो ईश्वर से पक्षपात की, अनुचित लाभ उठाने की आशा करते रहे हैं, उनके बारे में समझदार मनुष्य तक चौकन्ने हो जाते हैं। फिर घट-घटवासी ईश्वर का तो कहना ही क्या? उसे किसी छद्म द्वारा अपनी मर्जी के अनुरूप नहीं चलाया जा सकता।

ईश्वर एक नियम, मर्यादा एवं व्यवस्था का नाम है। स्वयं को भी उसने अपने को इन अनुशासनों में आबद्ध कर रखा है। फिर मनुष्य के साथ व्यवहार करते समय वह अपनी सुनिश्चित रीति-नीति से पीछे कैसे हट सकता है। उसे चापलूसी के आधार पर किस तरह अपनी ओछी मनोकामनाएँ पूरी कराने के लिए सहमत किया जा सकता है। उस निष्पक्ष न्यायाधीश से कुछ अनुपयुक्त करा लेने की बात किसी को भी नहीं सोचनी चाहिए।

जिन्हें अध्यात्म तत्वज्ञान की सही जानकारी है उन्हें समझना चाहिए कि ईश्वर किसी अंधेर नगरी का बेबूझ राजा नहीं है। वरन् इतनी विशाल सृष्टि को वह किन्हीं नियम सिद्धान्तों के आधार पर ही चला रहा है। पुजारी का बाना पहनकर कोई उससे वह नहीं करा सकता जो उसकी नीति मर्यादा से भिन्न है। अवाँछनीयताओं को छाती से चिपकाये रहकर हम न तो ईश्वर के भक्त बन सकते हैं और न कृपापात्र।

अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को व्रतशीलता की दीक्षा लेनी पड़ती है। व्रत का अर्थ मात्र आहार क्रम में न्यूनता लाना नहीं है वरन् यह भी है कि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए संकल्पवान होना, औचित्य को अपनाये रहने में किसी दबाव या प्रलोभन से अपने को डगमगाने न देना। श्रेष्ठता के मार्ग से किसी भी कारण विचलित न होना। जो दृढ़तापूर्वक ऐसी व्रतशीलता का निर्वाह करते हैं उन्हें अपने चारों ओर ईश्वर की सत्ता ज्ञान चक्षुओं से विद्यमान दीख पड़ती है। उन्हें किसी शरीरधारी की छवि चर्म चक्षुओं से देखने में न वास्तविकता प्रतीत होती है न आवश्यकता।

सर्वव्यापी निराकार सत्ता से व्यक्तिगत मैत्री इस प्रकार नहीं जगायी जा सकती जैसे कि दुनियादार मतलब के लिए गधे को भी बाप बना लेते हैं और स्वार्थ सिद्ध न होने पर उसके साथ उपेक्षा या शत्रुता का व्यवहार करने लगते हैं। स्मरण रहे ईश्वर पर किसी की निन्दा प्रेरणा का प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपने सामने वालों को सदा महानता अपनाने की प्रेरणा देता है और जिसने इस अनुशासन को जितनी मात्रा में अपनाया, उसे उतनी ही मात्रा में अपने स्नेह एवं अनुग्रह प्रदान करता है।

ईश्वर के निकटवर्ती एवं विश्वासी वे हैं जो उसके इस विश्व उद्यान को अधिक सुन्दर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न करते हैं, जो अपने आप को मलीनताओं से छुड़ाकर अधिक से अधिक पवित्र और प्रखर बनाने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुतः जीवन साधना ही सच्ची ईश्वर उपासना है। पूजाकृत्य ऐसी ही मनोभावना विकसित करने के लिए अपनाये जाते हैं।


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