कैसा था, कभी सतयुग?

February 1991

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सतयुग विश्लेषण करने पर सिद्ध होता है कि उस समय के व्यक्तियों की शारीरिक बनावट भले ही आधुनिक मानवों जैसी रही हो पर मानसिकता में, स्वभाव प्रयास में, भारी अन्तर रहा है। उन दिनों मनुष्य अधिक परिश्रमी और साहसी होते थे। यदि ऐसा न होता तो अनगढ़ प्रकृति को सुव्यवस्थित बनाकर कैसे समतल, सुविकसित बनाया जा सका होता। खड्डों, टीलों को काटकर किस प्रकार खेत बनाए गये होते। झाड़ियों को हटाकर किस प्रकार उद्यान लगाए गए होते। वन्य पशुओं में से गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट, हाथी जैसों को पकड़कर किस प्रकार वशवर्ती किया गया होगा। भेड़, बकरी, कुत्ता-बिल्ली आदि को सहयोगी किस प्रकार बनाया होगा?

प्रतिकूल प्रकृति वाले मनुष्यों तक को जब अनुकूल नहीं बनाया जा सकता तब जिनने भूखण्डों, सघन वनों, अनगढ़ पशुओं को अपना सहयोगी बनाने में सफलता प्राप्त की, वे कितने धैर्यवान, कितने बलवान, और बुद्धिमान रहे होंगे। इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। संयम और उदार सहकारिता उनके स्वभाव बन गए होंगे। तभी तो वे परिवार बसाने और समाज का सुव्यवस्थित प्रचलन करने में समर्थ हुए होंगे। धर्म, दर्शन, तत्वज्ञान, अध्यात्म जैसे विषयों की संरचना तथा निर्धारण कितना कठिन है, इस बात का पता चलता है जब किसी को परम्परा से हटाकर नया तत्व ज्ञान नए सिरे से सृजन करने को कहा जाय।

सतयुगी महामानव वैज्ञानिक भी थे। अन्यथा अग्नि, का प्रज्वलन, कृषि वस्त्र निर्माण की कला पात्र, आयुध, भवन आदि का बना सकना उन दिनों कितना दुःसह रहा होगा जिन दिनों आदिम मनुष्य बन्दरों की तरह निर्वाह करता और गुफाओं में सिर छिपाने के लिए जगह ढूँढ़ता था। पक्षियों के घोंसलों, मक्खियों के छत्तों से प्रेरणा लेकर उसने वास्तु कला का विकास किया होगा। बोलना और लिखना सृष्टि का अन्य कोई प्राणी नहीं जानता जब कि मनुष्य चिरकाल पूर्व इन कलाओं में प्रवीण हो चुका है। सामूहिक रूप से बसने में उत्पन्न होने वाली भलाई बुराई को सम्मानित प्रताड़ित करने की जो शासन व्यवस्था बनी होगी, उस के लिए कितनी दूरदर्शिता का समावेश हुआ होगा? इसकी मात्र कल्पना की जा सकती है।

उत्पादन की तरह विनिमय भी कठिन है। इस हेतु वाणिज्य की शाखा प्रशाखाओं का विकास और यातायात के थलीय और जलीय साधन विनिर्मित करने में कितनी समझ और कितनी मेहनत करने की, साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ी होगी? उस सब में सम्पन्न होने, सफल बनाने में कितने समाधान सोचने और कितने प्रखण्ड पुरुषार्थ करने पड़े होंगे? इसकी आज तो सर्वत्र सरलता से भरे पूरे युग में कल्पना तक करना कठिन है। पर उतना तो सहज अनुमान लगता है कि अभावों और विपन्नताओं के वातावरण में जितने सुविधा साधनों का निर्माण निर्धारण किया होगा वे कितने बड़े पराक्रमी, पुरुषार्थी, तत्पर, तन्मय प्रकृति के रहे होंगे। कितना उच्चस्तरीय धैर्य और साहस उन ने दिखाया होगा। आरम्भिक कौशल प्रकट करने की कितनी बड़ी क्षमता उनमें रही होगी। अपने समय के हमारे पूर्वज निश्चय ही महामानव रहे होंगे। अन्यथा इतनी समृद्धि, सम्पदा, प्रगति और सुव्यवस्था का ढाँचा इस प्रकार खड़ा करना संभव न हुआ होता।

सतयुगी पूर्वजों की प्रयास-परायणता की सराहना ही पर्याप्त नहीं होगी वरन् उनकी संयमशीलता एवं उदारता को और भी अधिक श्रेय देना होगा। सामान्यतया स्वार्थ का तकाजा यह होता है कि जो कमाए सो खाए। जिसमें बल हो वह अधिक कमाए। वन्य जीवों में जंगल का कानून चलता है। समर्थों में “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाली कहावत चरितार्थ होती रही है। मध्यकालीन लुटेरों, आक्रमणकारियों, सामन्तों में यह प्रकृति बड़े विकृत रूप में तत्कालीन इतिहासकारों ने भी पाई है। ठग और डाकू अपनी चतुरता का ऐसा ही घिनौना उपयोग करते रहे हैं किन्तु चिरपुरातन काल के सतयुगी प्रचलन सर्वथा दूसरी तरह के रहे हैं। उस समय के महामानवों ने उत्पादन तो असाधारण किए पर उनके उपयोग में संकोच ही करते रहे। संयमी बने और अपरिग्रही रहे। कम से कम में अपना काम चलाया और बचत के संबंध में यही सोचते रहे कि इससे पिछड़ों को आगे बढ़ाने का अनगढ़ों को प्रवीण बनाने का कार्य किया जाय। ऐसा सोचा ही नहीं गया वरन् उस सोच को कार्यरूप में परिणत करके भी दिखाया गया।

उपार्जन की सफलता अनुग्रह, अनुदानों पर न्यौछावर की जाती रही। जहाँ रहे, मिल बाँट कर खाया। पिछड़ों को उठाने के विशेष प्रयास किए और असमर्थों की सहायता करने के लिए प्राणों की बाजी लगाते हुए तनकर खड़े रहे, तभी मानवी गरिमा, सभ्यता और संस्कृति का वह विकास बन पड़ा जिसके कारण उस काल के प्रतिभावानों को देव मानव कहलाने का भरपूर श्रेय-सम्मान उपलब्ध हो सका।

मनुष्य एक जगह बसता है। तो उसके सहयोगी संबंधी भी बन जाते हैं। उत्पादन का जो सिलसिला कठिनतापूर्वक चलाया जाता है उसका सुविधाजनक प्रतिफल कालान्तर से ही मिलता है। इन सब बातों को जानते हुए भी जिनका मन यह करे कि सुविधाओं से लाभान्वित दूसरों को होने दिया जाय और स्वयं नई जगह जाकर नया घोंसला बनाया जाय, नयों को इकट्ठा किया जाय और नए सिरे से प्रगति का, संस्कृति का शुभारंभ किया जाय उनकी उच्च मानसिकता की भूरि भूरि प्रशंसा ही करनी पड़ती है। सिंह अपने बच्चों के बड़े हो जाने पर, उस क्षेत्र को उनके लिए छोड़ देता है और स्वयं अपने लिए किसी अन्य मन चाहे प्रदेश को अधिकार क्षेत्र बनाता है। इसी परम्परा को अपनाकर सतयुग की अवधि में महापुरुष भी अपनी रीति नीति का निर्धारण करते रहे। उन्हें सर्वश्रेष्ठ मनोरंजन भरा पुरुषार्थ इस उद्देश्यपूर्ण प्रव्रज्या में ही दिखा। इस लिए उन्होंने उस प्रक्रिया को तीर्थ यात्रा का नाम देकर बड़े उत्साह एवं संवेदनापूर्वक अपना भी लिया। रामायण काल में सुमित्रा माता और उर्मिला पत्नी ने अपने लक्ष्मण को वनवास के लिए खतरों से भरे क्षेत्र में भेज दिया था। उन दिनों प्रत्येक परिवार में से न्यूनतम एक सदस्य समाज सेवा के लिए समर्पित किया जाता था। मध्यकाल में यही परम्परा शासन के आह्वान पर घर घर से एक सैनिक भरती करने के रूप में रही है। अपने क्षेत्र को सँभालने के उपरान्त अन्यान्य पिछड़े क्षेत्रों को खोजना और वहाँ जाकर तब तक लिए बस जाना जब तक कि वहाँ प्रगति और समृद्धि के लक्षण प्रत्यक्ष न दीख पड़े, यही वह पद्धति थी जिसके चरितार्थ होते रहने के कारण आर्यावर्त में उगे छोटे उद्यानों के बीज संसार भर में फैले और वहाँ उगकर विशाल वृक्ष के रूप में फूले- फले।

चिरपुरातन काल की परिस्थितियों का परिचय यदाकदा जहाँ तहाँ पाये गए ऐसे ध्वंसावशेषों से प्राप्त होता है जो अच्छी स्थिति में तो नहीं मिलते पर जो कुछ सामग्री खोजी जा सकी वह यही सिद्ध करती है कि सतयुग में मनुष्य का पराक्रम और बुद्धि कौशल चरम सीमा तक पहुँचा था। इतना ही नहीं उसकी उदारता और सहकारिता भी बढ़ी-चढ़ी रही। प्रतिभावानों की महत्वाकाँक्षा एक ही केन्द्र पर केन्द्रित रही कि वे वीरान क्षेत्रों को किस प्रकार आबाद कर दिखाएँ और अपनी समूची प्रतिभा को इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किस प्रकार गलाएँ। उनकी तीर्थ यात्रा इसी उद्देश्य के लिए गतिशील रहती थी। उनकी सम्पदा प्रतिभा इसी निमित्त उत्सर्जित होती थी। इसी आधार पर संसार भर में विभिन्न क्षेत्र विकसित देशों के रूप में समुन्नत हुए।

यही प्रचलन सतयुग की वापसी का निमित्त बन सकता है। जब ऐसे महान उद्देश्यों के लिए जीने वाले ब्रह्मनिष्ठ बनने बढ़ने लगे तो समझना चाहिए कि सतयुग आ गया।


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