तर्क से परे है, ईश्वर का अस्तित्व

February 1991

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अनीश्वर-वादियों का कथन है कि विज्ञान द्वारा ईश्वर सिद्ध नहीं होता तो हम उसे क्यों माने? विचारणीय बात यह है कि क्या हम केवल उन्हीं बातों को मानते हैं जो प्रत्यक्ष या विज्ञान सम्मत है? जीवन के कितने ही आदर्श और तथ्य ऐसे हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध अंतरात्मा से है। नीति-शास्त्र का आधार यही है। धर्म, सदाचार, नीति, कर्तव्य परमार्थ आदि को विज्ञान की कसौटी पर यदि कसा जाय, तो यह सभी कुछ व्यर्थ प्रतीत होगा और मनुष्य को पशु की तरह आचरण करना ठीक प्रतीत होगा ।

विज्ञान के द्वारा ईश्वर को सिद्ध या असिद्ध करने का प्रत्यक्षवाद हास्यास्पद है। जिसे विज्ञान कहा जाता है वह वस्तुतः पदार्थ विज्ञान है। जीवनोपयोगी प्रयोजन सिद्ध करना इस भौतिक विज्ञान की मर्यादा है। इसके अतिरिक्त सूक्ष्म तत्वों तक पहुँच सकने में असमर्थ है।

नीति-शास्त्र, सदाचार, त्याग, अतिदान, परोपकार, संयम जैसे आवश्यक विषयों में विज्ञान की कोई पहुँच नहीं। यदि इन विषयों को विज्ञान के आधार पर हल किया जाय, तो उन उपयोगी मान्यताओं को त्यागना पड़ेगा, जो मानवीय सामाजिक जीवन के लिये मेरुदण्ड के समान आवश्यक है।

विज्ञान के दृष्टि में नर और मादा का यौन संबंध स्वाभाविक है। उसमें बहिन, पुत्री या माता के साथ यौन-संबंध करने में कोई संकोच नहीं करते, तो मनुष्य ही क्यों करे? इस प्रतिबंध का इन मर्यादाओं का विज्ञान समर्थन नहीं करता, वरन् उन्हें व्यर्थ बताता है। यदि विज्ञान की कसौटी पर यौन-सदाचार व्यर्थ सिद्ध होता है, तो क्या हम उसकी व्यर्थता स्वीकार कर लेंगे और पशुओं की तरह बहिन, पुत्री एवं माता की मर्यादा को छोड़ देने के लिये उद्धत होंगे?

विज्ञान के अनुसार जीव, जीव का भोजन है। प्रत्येक प्रश्नों के लिये अपना स्वार्थ ही प्रधान है। फिर त्याग, बलिदान, उदारता, दान सेवा और परोपकार का अस्तित्व कहाँ रहेगा? जीवधारियों के गुण-धर्म के बारे में विज्ञान की कसौटी प्राणी की स्वभाविक प्रवृत्ति ही है। सभी जीवों को अपनी क्षुधाओं और वासनाओं की पूर्ति के लिये जो भी अवसर मिलता है उससे बिना उचित अनुचित का विचार किए लाभ उठाते हैं, फिर मनुष्य भी यदि वैसा ही करता है, तो भोगवाद का विरोध विज्ञान के द्वारा नहीं हो सकता, वरन् उसके आधार पर तो समर्थन ही करना पड़ेगा। ऐसी दशा में क्या हम विज्ञान को ही सब कुछ मानकर-परमार्थ की प्रवृत्ति को मानव जीवन से बहिष्कृत करने को तत्पर होंगे? और यदि होंगे तो क्या उसके फलस्वरूप किसी सत्परिणाम की आशा करेंगे?

विज्ञान बताता कि मौत से हर प्राणी डरता है, बचता है, लड़ता है और भागता है। यह इसका स्वाभाविक धर्म है। यदि मनुष्य को भी इस स्वाभाविक धर्म से बँधा हुआ मान लिया जाय, तो फिर मृत्यु के लिये हँसते हुये तैयार रहने वाले सैनिकों एवं देश, धर्म पर बलिदान होने वाले महा-मानवों को प्रकृति विरोधी एवं मूर्ख ही मानना पड़ेगा। फाँसी का हुक्म सुनने के बाद जिनके वजन जेल की कोठरियों में आठ-आठ पौण्ड बढ़ गए, उन क्राँतिकारियों को मौत से डर न लगने का विज्ञान के पास क्या उत्तर है?

इस प्रकार ईश्वर का आँखों से न दिखाई देना या वैज्ञानिक यंत्रों से उसका प्रमाणित न होना इतना बड़ा कारण नहीं कि जिसके आधार पर उस महान सत्ता के अस्तित्व से इनकार किया जा सके। इस संसार में सभी कुछ तो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता।

ईश्वर दिखाई नहीं देता, इसलिये उसे न माना जाय, यह कोई युक्तिसंगत बात नहीं है। अनेकों वस्तुयें ऐसी हैं, जो आँख से नहीं दीखती फिर भी उन्हें अन्य आधारों से अनुभव करते हैं और मानते हैं। कोई वस्तु बहुत दूर होने से दिखाई नहीं पड़ती। पक्षी तब आकाश में बहुत ऊँचा उड़ जाता है तो दीखता नहीं। कोई वस्तु नेत्रों के बहुत समीप हो तो भी वह नहीं दीखती। अपनी पलक या आँखों में लगा हुआ काजल अपने को कहाँ दीखता है? यदि नेत्र न हो, कोई व्यक्ति अन्धा हो तो भी उसे वस्तुएँ नहीं दिखाई देती। चित्त उद्विग्न हो, मन कहीं दूसरी जगह पड़ा हो, किसी समस्या के चिन्तन में लगा हो, तो आँख के आगे से कोई चीज गुजर जाने पर भी वह दिखाई नहीं देती। बहुत सूक्ष्म वस्तुएँ भी कहाँ दिखाई देती हैं? परमाणु या रोग कीटाणु बिना सूक्ष्मदर्शी यंत्र के दीखते नहीं। किसी पर्दे की आड़ में रखी हुई, संदूक आदि में बंद की हुई, जमीन में गड़ी हुई वस्तुओं को भी आँखें कहाँ देख पाती हैं? सूर्य के प्रकाश के कारण दिन में तारे नहीं दिखते। पानी में नमक घुल जाता है फिर नमक दीखता नहीं, फिर भी पानी में उसका अस्तित्व तो रहता ही है।

जो वस्तु दिखाई न दे, वह है ही नहीं, यह मान्यता किसी प्रकार भी उचित नहीं ठहराई जा सकती। केवल आँखें ही किसी के अस्तित्व को प्रमाणित करने का एकमात्र साधन नहीं है।

ईश्वर के अस्तित्व से केवल इस कारण इन्कार करना है कि वह आज के अर्थ विकसित विज्ञान या बुद्धिवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, कोई ठोस कारण नहीं है। प्रत्यक्ष के आधार पर तो यह भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि हमारा पिता वस्तुतः कौन है? माता की साक्षी को ही उसके लिये पर्याप्त प्रमाण मान लिया जाता है। मानव-जीवन की अनेकों महत्वपूर्ण अवस्थायें उस विज्ञान पर निर्भर हैं, जिसे अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। पदार्थ विज्ञान से नहीं, अध्यात्म-विज्ञान से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि यही प्रतिपादन जीवन में उतारा जा सके तो दैनन्दिन जीवन की अनेक कष्ट कठिनाइयों से उबरा जा सकता है।


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