गायत्री को आद्यशक्ति कहते हैं। उससे पहले इस संसार में और कुछ नहीं था। पुराण कथन के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में सर्वत्र जल भरा था। विष्णु की नाभि से कमल उत्पन्न हुआ, उसके पुष्प पर ब्रह्मा जी अकेले बैठे हुए थे। असमंजस में पड़े थे, अब क्या सोचूँ? और क्या करूं? इतने में आकाशवाणी से गायत्री महामंत्र का उद्घोष हुआ। कहा गया कि इस आदि शक्ति का सौ वर्ष तक तप कीजिए, उससे कर्तव्य बुद्धि की महाप्रज्ञा और साधन जुटाने की प्रचंड शक्ति उपलब्ध होगी। ब्रह्माजी ने वैसा ही किया। उन्हें कर्तव्यबोध के निमित्त गायत्री का दर्शन हुआ। सृष्टि सृजन का उद्देश्य जाना। पर इसके लिए शक्ति और साधनों की आवश्यकता थी। उसकी पूर्ति के लिए आद्यशक्ति दूसरे सावित्री के रूप में भी प्रकट हुई। पंचमुखी सावित्री एवं उससे पाँच तत्व, पाँच प्राण उत्पन्न हुए और जड़ चेतन सृष्टि बनकर खड़ी हो गई।
इसके उपरान्त ब्रह्माजी ने गायत्री के रहस्य की चार मुखों से चार वेदों के रूप में विवेचना की। उससे शास्त्र, उपनिषदों, दर्शन, पुराण आदि का तत्वज्ञान के रूप प्रकटीकरण हुआ ।
इसके उपरान्त गायत्री के एक-एक अक्षर से प्रचण्ड सत्ताओं का प्रकटीकरण हुआ। 24 अक्षरों से 24 अवतार, 24 देवता, 24 ऋषि, 24 चक्रवर्ती प्रकट हुए। उन सबने मिलकर सृष्टि की समस्त साधन सामग्री उत्पन्न की। इन सबने गायत्री महामंत्र उपासना की और उसी के कारण उपलब्ध सामर्थ्य से सृष्टि का विकास और संचालन करने लगे। वह क्रम अब तक चला आता है। जब कभी जिस किसी को कोई महत्वपूर्ण कदम उठाना पड़ता है तब तब मनीषी-मुनि, ऋषिगण आवश्यक क्षमता की उपलब्धि लेते और अपने मनोरथ पूरे करते हैं।
शास्त्रों में गायत्री को देव संस्कृति की माता और यज्ञ को तत्वज्ञान का पिता कहा गया है। दोनों का परस्पर संयोग है। आग और ईंधन के समन्वय से ज्वाला प्रकट और प्रचण्ड होती है। उसी प्रकार गायत्री साधना के साथ यज्ञ प्रक्रिया का समन्वय हो जाने से वे चमत्कार उत्पन्न होते हैं जिन्हें ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ, स्वर्ग, मुक्ति, शान्ति, समृद्धि आदि के नाम से जाना जाता है।
यज्ञ में कुछ जलाया जाता है। नष्ट किया जाता है, ऐसा नहीं सोचना चाहिए, वरन् वस्तुतः होम द्रव्य को मंत्र शक्ति और अग्नि ऊँचाई के समन्वय से उन्हें सुविस्तृत किया जाता है। इससे इन तीनों की शक्ति असंख्य गुनी हो जाती है और जो भी उसके संपर्क में आते है, असंख्य गुना लाभ उठाते हैं। इसलिए जहाँ कहीं गायत्री की आराधना होती है, वहाँ उसके साथ यज्ञ को भी जोड़ रखने की व्यवस्था की जाती है। माता और पिता दोनों का परिपूजन साथ-साथ हो जाता है।
प्राचीन इतिहास को पढ़ते हैं तो गायत्री की अपार शक्ति के अनेकानेक उल्लेख मिलते हैं। जहाँ भी यह ऊर्जा प्रकट हुई है वहीं उसका परिणाम ऐसा देखने को मिलता रहा है जिसे अनुपम अद्भुत कहा जा सके। संकटों के निवारण, अभ्युदय के संसाधन और लोक-परलोक को श्रेय उत्कर्ष से भरा पूरा इसके माध्यम से बनाया गया है।
ऋषियों ने हर देव संस्कृति के अनुयायी को इन दोनों का दैनिक जीवन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में समन्वय किये रहने का आदेश दिया है। सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री महाप्रज्ञा को सिर के किले पर ध्वजा के रूप में शिखा बनाकर स्थापित किया जाता है। यज्ञ से पवित्र किया हुआ प्रतीक सूत्र यज्ञोपवीत के रूप से कंधे पर धारण किया जाता है। गायत्री के तीन चरण और नौ शब्द ही यज्ञोपवीत में तीन लड़ी और नौ धागों के रूप में विनिर्मित किये गये हैं और हर शरीर को देवालय बनाकर इन दोनों को प्रतीक रूप में धारण किये रहने, इनका पूजन-अभिनन्दन करने का निर्देश दिया है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त सोलह संस्कार होते हैं। सभी में यज्ञ कर्म प्रधान होते हैं। जब शरीर का अन्त होता है तो भी उसे यज्ञ पिता की गोदी चिता में सुला दिया जाता है। नई फसल पकती है तो उसे खाने से पूर्व कच्चे अन्न का ही होली के रूप में नवान्न.... यज्ञ किया जाता है। विवाह को वेदी पर भी यज्ञ की साक्षी में दो आत्माएँ जन्म भर के लिए एक साथ जुड़ती हैं। दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि देव संस्कृति के इन रहस्यों और क्रियाकलापों को हम भूलते जा रहे हैं और उनकी चिन्ह पूजा मात्र शेष रह गई है। होली के अवसर पर कूड़ा कचरा एकत्रित करके जला दिया जाता है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को तो फिर भी अधिक स्मरण है। पुरुष चोटी नहीं रखते तो बहुत सी महिलाएँ दोनों के बदले की दो चोटी बना लेती हैं। पर्व त्यौहारों के अवसर पर चूल्हे से अग्नि निकालकर उस पर लोग बताशा आदि जलाकर अग्निहोत्र की ही चिन्हपूजा कर देती हैं। पुत्रों की अपेक्षा पुत्रियाँ अपने माता-पिता के प्रति अधिक स्नेहसिक्त और भावपूर्ण रहती हैं। इसका प्रमाण गायत्री और यज्ञ के प्रति महिलाओं में अधिक श्रद्धा अभी भी पाई जाती है जबकि कई निष्ठुर यह भी कहते सुने जाते हैं कि माता पिता की गोद में खेलने का पुत्रों को ही अधिकार है बेटियों को नहीं। वे महिलाओं के साथ-साथ यज्ञ और गायत्री की उपेक्षा अवज्ञा करने तक की धृष्टता करते हैं।
जब गायत्री यज्ञ और भारतीय धर्मतत्व ज्ञान परस्पर इस प्रकार अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं और उनकी आराधना को नित्य कर्म बताया गया है। प्राचीनकाल के सभी महामानव उसी उपासना को अपनाते रहे हैं तो आश्चर्य लगता है कि आज क्यों इनकी इतनी अवज्ञा हो रही है? सद्बुद्धि और सत्कर्म की अवहेलना सर्वत्र क्यों होती दिखाई देती है? लोग अपने आध्यात्मिक माता-पिता तक को क्यों भूलते जा रहे हैं? जो माता-पिता का स्वरूप, व्यवहार और नमन तक भुला दे, उसे अपने समाज में बुरा कहा जाता है। सद्ज्ञान रूपी गायत्री और सत्कर्म रूपी यज्ञ की अवहेलना करने का ही परिणाम है कि सर्वत्र ‘आस्था संकट’ जैसा दुर्भिक्ष फैल रहा है। इसी अभाव के कारण लोग अपना शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक संतुलन गँवा बैठे हैं। बुद्धि, विज्ञान और व्यवसाय कौशल में पूर्वजों की तुलना में कहीं आगे बढ़ जाने पर भी दुख-दरिद्रता के, शोक-संताप के संकट सह रहे हैं।
कितनों को ही इन पारस, अमृत और कल्पवृक्ष जैसे चमत्कारी रहस्यों पर विश्वास नहीं होता। भूतकाल के इतिहास पर विश्वास नहीं करते। शास्त्र के उल्लेख और आप्त वचनों पर विश्वास नहीं करते और गायत्री उपासना का, यज्ञों के आयोजन का जब प्रसंग आता है तक नाक-भौं सिकोड़ते उसकी उपेक्षा, अवज्ञा करते देखे जाते हैं। बहु प्रचलन आज ऐसा ही दृष्टिगोचर होता है। विचारणीय है कि हीरों को टूटे काँच में फेंक देने जैसी दुर्गति आज किस कारण हुई।
गंभीरतापूर्वक विचार करने पर एक ही कारण प्रतीत होता है कि महिमा और माहात्म्य बताया गया है कि वह प्रत्यक्ष होता दृष्टिगोचर नहीं होता। कई पूजा पाठ के प्रेमी गायत्री उपासना करते हैं, उनकी भौतिक और आत्मिक स्थिति में कोई उत्साहवर्धक परिवर्तन होता दिखाई नहीं पड़ता। उलटे भाग्यवादी, परावलम्बी, आलसी, प्रमादी जैसे बन जाते हैं। इस प्रत्यक्ष को देखना ही संशय उपजाता है कि जब इतने लोगों को कोई कहने लायक लाभ नहीं मिले तो हमें ही क्या हाथ लगने वाला है। यह असमंजस और अविश्वास ही बड़ा कारण है जिससे उस पुरातन परम्परा का लोप जैसा होता चला जाता है।
अधिक चिन्ता की बात इसलिए है कि वर्तमान की विनाशकारी विभीषिकाओं का अदृश्य दर्शियों ने एक ही समाधान सुझाया है कि अगले दिनों वर्तमान संकटों का समाधान महाप्रज्ञा का आश्रय लेने से ही निकलेगा। दुर्बुद्धि के कारण विकृत हुई मनःस्थिति ने ही परिस्थितियों को विनाशकारी बनाया है और आतंक का वातावरण उत्पन्न हुआ है। उसका निराकरण निदान के अनुरूप उपचार से ही संभव होगा। यदि प्रस्तुत संकटों से उबरना है तो दूरदर्शी विवेकशीलता का महाप्रज्ञा का ही आश्रय लेना होगा। उलटी परिस्थितियों को उलटकर ही सीधा किया जायेगा। प्रज्ञा युग का उज्ज्वल भविष्य ही आज की विपन्नताओं से त्राण दिला सकेगा।
इसके लिए किन्हीं विशिष्ट आत्माओं को तो अपनी अस्थियों से वज्र बनाने वाला दधीचि स्तर का, स्वर्गवासिनी गंगा को धरती पर उतारने जैसा भगीरथ स्तर का, तप भी करना पड़ेगा, सूक्ष्म जगत में करना भी पड़ रहा है। पर काम इतने से भी नहीं चलेगा। असंख्य प्राणों की ऊर्जा के समन्वय से उत्पन्न होने वाली महाशक्ति के उत्पादन का विशिष्ट प्रयत्न भी करना होगा। देवताओं की थोड़ी-थोड़ी शक्ति एकत्रित करके प्रजापति ने महिषमर्दिनी दुर्गा को अवतरित किया था। त्रेता में ऋषियों ने थोड़ा-थोड़ा रक्त संचय करके रक्त घट भरा था और उससे उस सीता का जन्म हुआ जिसके कारण त्रैलोक्य को कँपा देने वाली लंकेश की असुरता का उन्मूलन संभव हुआ था। ऐसे ही प्रसंग और भी इतिहास में अनेकों हैं। बुद्ध के परिव्राजक, ईसा के पुरोहित, चाणक्य के धर्माचार्य, गाँधी के सत्याग्रही आदि की सामुदायिक शक्ति कलेक्टिव कान्शसनेस से ही वे कार्य संभव हुए जो आरंभ में असंभव दीखते थे। महाप्रयोजनों के लिए जनशक्ति को साथ लेकर चलना पड़ा है। इन दिनों युग परिवर्तन की बेला में एक दो तपस्वी ही सब कुछ प्रयोजन पूरा न कर सकेंगे। उनके पीछे विशाल जनशक्ति का समर्थन और सहयोग भी चाहिए।
युग अवतरण के लिए जो प्रज्ञा तप विश्वव्यापी बनने जा रहा है उसमें अग्रगमन मार्गदर्शन कुछ का हो तो हर्ज नहीं पर इसके अतिरिक्त इस अध्यात्म ऊर्जा उत्पादन में अनेकों का असाधारण सहयोग चाहिए। कुछ तो हो भी रहा है, 240 करोड़ गायत्री मंत्रों का जप एवं युग सन्धि महापुरश्चरण लाखों व्यक्तियों के सहयोग से ही चल रहा है। इतने से आरंभिक संतोष तो किया जा सकता है, पर यह पर्याप्त नहीं है। इसके लिए लाखों से काम नहीं चलेगा करोड़ों सहकर्मी चाहिए। पर यह सब हो कैसे? अधिकाँश लोग तो ऐसे हैं जो इस महाशक्ति के तत्व ज्ञान तक पर विश्वास नहीं करते, उसके रहस्य तो दूर अर्थ तक को नहीं समझते। ऐसी दशा में यह कैसे आशा की जाय कि प्रज्ञा प्रवाह को प्रचण्ड तूफान उत्पन्न करने में अपना सहयोग देने वाले करोड़ों लोग उत्पन्न हो जायेंगे, वह भी इतने कम समय में जिसे भविष्य के लिए नहीं टाला जा सकता।
चूकने पर तो सर्वनाश के अतिरिक्त और कुछ बनेगा ही नहीं। इसके लिए जो करना होगा उसे युद्ध स्तर पर तूफानी गति से ही करना पड़ेगा। इसके लिए असंख्य लोगों की श्रद्धा जगानी पड़ेगी। यह कार्य मात्र लेखनी और वाणी द्वारा प्रचार कार्य करते रहने की मंथर गति से भी नहीं हो सकता। इसके लिए ऐसा प्रत्यक्ष उदाहरण सामने रखना होगा जिसे अविश्वासी से अविश्वासी तक अपनी कसौटियों पर कसने के उपरान्त खरा पा सकें। ऐसा ही तप पुरुषार्थ मिशन के सूत्र संचालक पूज्य गुरुदेव द्वारा अपनी पैंसठ वर्ष की तप साधना में किया गया। वह क्रम अभी भी दूसरे रूप में चल रहा है।