उड़िया आश्रम वृन्दावन के सामने सड़क पर एक साधु नित्य गिट्टी तोड़ता। जब साधु-मण्डली उधर से भिक्षा के लिए निकलती तो टोकती-अरे ! इतने समय में भजन करते, तो मोक्ष प्राप्त हो जाता। जब काम ही करना था तो घर काहे को छोड़ा! यहाँ आकर भी कमाने की ललक छूटी नहीं किन्तु साधु उस ओर बिना ध्यान दिये नियम से रोज चार घण्टे गिट्टी तोड़ता फिर आश्रम से पेट भरने लायक भोजन ग्रहण करता।
जब मृत्यु निकट आयी तो एक दिन व्यवस्थापक को एक थैली थमाते हुए उसने कहा- “यह मेरी जीवन भर की कमाई है, जिसे मैंने भजन करते हुए इकट्ठी की है। इसे किसी लोकोपयोगी काम में लगा दें, तो मेरा साधु-जीवन सार्थक हो जाय।” इतना कह कर उसने अन्तिम साँस ली और शरीर एक ओर लुढ़क गया।
सच्चे साधु श्रम से जी नहीं चुराते।