गरीबी ओढ़कर जो लोक शिक्षक बने

February 1991

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“इस कारण पनपी समाज की टूटन। ऐसा बदला विशाल महल छोटे-छोटे जर्जर घरौंदों में।” सोचते हुए अन्तिम शब्द जरा जोर से निकल गया। किताब बन्द करके स्टूल पर रखी और उठ खड़े हुए। “किन घरौंदों की बात कर रहे हैं।” कोने में बैठी पत्नी बात शुरू करने की गरज से बोली। वह फटे कुर्ते को सिलने में लगी थी। बीच-बीच में किताब पढ़ रहे अपने पति के चेहरे पर उतरते चढ़ते रंगों को देख लेती। “यह अब और नहीं सिल सकता- शीर्ष होने के कारण-कपड़ा सुई डालते ही नुचने लगता। “कोशिश करो-कुर्ता भी खण्डहर हो चुका महल है” कहकर वह हंस पड़े इस विलक्षण उपमा पर वह भी मुस्करा उठी।

घड़ी की ओर देखा दस बजने में सात मिनट बाकी थे। अब तो अप्रैल का महीना चलने लगा-आज अठारह तारीख भी हो गई। इन दिनों सूर्य रश्मियों की ताका-झाँकी बड़े सबेरे से चलने लगती है। इस समय तो पूरे कमरे में उनका फैलाव है। आज कालेज जाना है रिजल्ट निकलने वाला था, शायद निकला हो। इधर कुर्ते में जोड़-गाँठ थमाते हुए वह बोली जैसा बन पड़ा कर दिया। वाह! क्या शानदार बन गया। प्रसन्न मन से उसे पहनने लगे। कुर्ता पायजामा-पहन कर चलने को हुए कि पत्नी ने टोका “अरे! आज क्या नंगे पैरों जाएँगे? “अब ध्यान पैरों की ओर गया सचमुच खाली पैरों जा रहे थे।” पर आपकी चप्पल। “समझने के लिए इशारा काफी था। चप्पलों को हाथ में लेकर उलटा-पलटा। एक को तो जैसे-तैसे पहना जा सकता है पर दूसरी की दशा तो किसी भी तरह पहनने लायक नहीं। इनमें तो कुर्ते वाली कारीगरी चलने से रही। एक क्षण को कुछ सोचते हुए बोले “तुम जरा अपनी चप्पलें देना।” मेरी चप्पल? कुछ न समझते हुए उसने चप्पलें उठाकर ला दी। उसे तो प्रायः कमरे में रहना होता इस कारण चप्पलों की दशा अपेक्षाकृत अच्छी थी। उसमें से एक पैर में डाली। कड़ी और थोड़ी छोटी होने के बावजूद पहनी जा सकती थी। एक अपनी वाली पहनी “चलो बन गया काम।” कहते हुए चैन की साँस ली। उनको चलने के लिए तैयार देख वह बोल उठी “ऐसे जाएँगे आप। एक पैर में काली चप्पल-एक में लाल, एक में मर्दानी-एक में जनानी क्या कहेंगे लोग?” क्या कहेंगे? इसी मिथ्या कुविचार ने मनुष्य जाति का सारा आत्म विश्वास चकनाचूर कर दिया। पूछो-विवेक क्या कहता है? काँच के टुकड़ों, कांटों, गन्दगी पर खाली पैर चलने से यह अच्छा है या नहीं कुछ न कहकर उनकी पत्नी एकटक उन्हें देखने लगी। अपने पति के चेहरे पर छाई, मनोबल की अजेय काँति की ओर, जो गरीबी के महासागर में पर्वत के उत्तुँग शिखर की भाँति अटल था। पूरे वेग से दौड़ती आती गरीबी की लहरों का उद्दाम वेग जिस का स्पर्श पाकर शिथिल हो जाता, नमन करते हुए उसे लौटते ही बनता।

पैर सड़क पर चल रहे थे, मन सुबह पढ़ी किताब के पन्नों में मंडरा रहा था अथवा यों कहें-किताब के पृष्ठ मन के झोंकों से फड़फड़ाने लगे थे। कौन करेगा इस कलुष समाज का शोधन। सर्वत्र धुन लगा है क्षुद्रता के अहंकार से हर मानव जर्जर है। हर सम्प्रदाय अन्तःविदीर्ण है। छोटेपन में अहंकार का दर्ष इतना प्रचण्ड होता है कि वह अपने को खण्डित करता रहता है। भारत देश की असंख्य छोटी इकाइयाँ अपने को खण्ड-विदीर्ण करती जा रही हैं। अन्तर्विदारी शक्ति की प्रबल तीव्रता कौन रोके? आज हमारी समाज व्यवस्था दुर्बल है विच्छेद परम्परा प्रबल है, क्षुद्रता का बोझ भयंकर है। सोचते-सोचते भावों का वेग प्रबल हो उठा-विचार मन्थन की गति तीव्र हो गई, ठीक ही है शिल्पकार के अभाव में यह विखण्डन समय के आघात प्रतिघातों के झटके किसे नहीं लगते। सचेत शिल्पी हर झटके के बाद अपनी कलाकृति को मजबूत बनाता है, ताकि-उसका अधुनातन रूप पहले की अपेक्षा अधिक लोहा ले सके। प्रकारान्तर से किसी भी वस्तु व्यवस्था का अस्तित्व और सौंदर्य उसका शिल्पकार है।

...पर आज उसने दीर्घ निश्वास ली सामने से ताँगे वाला हटो-बचो कहता चला आ रहा था। वह किनारे हो गया। घोड़ों की टापों, पहियों की खड़खड़ाहट क्रमशः दूर होती ही गई। चिन्तन का चक्र गतिमान हो उठा कहाँ है विश्वमित्र से महाशिल्पी, चाणक्य और पातंजलि जैसे वास्तुकार जो इस छिद्र-छिद्र हो गए पात्र का जीर्णोद्धार कर सकें तब गहन तिमिर में कहीं से कोई प्रकाश रश्मि झलकी यह उसकी आत्म ज्योति थी, महासूर्य न सही उसके उगने पर एक दीपक की टिमटिमाहट तो सम्भव है। ये अस्तित्व की गहराइयों के स्वर थे।

चिन्तन के प्रवाह और पाँवों की गति अनायास उसे कालेज द्वार तक बहा लायी। गवर्नमेंट काल की विशालकाय बहुमंजिली इमारत सामने थी। इसका विस्तीर्ण प्राँगण छात्रों के प्रसन्न कण्ठ स्वरों से भर उठा था। प्रवेश द्वार से ही अभिनन्दन का ताँता लग गया। अपनी श्रम निष्ठ और व्यवहार-माधुर्य के कारण वह सहपाठियों का सम्माननीय था और अध्यापकजनों का स्नेह पात्र। हर किसी के लिए उसका अस्तित्व प्रेरणा का निर्झर था। राशि की राशि सद्गुणों से दमदमाते व्यक्तित्व के विशालकाय परिसर में बेचारी गरीबी सिमटी-सिकुड़ी सहमी पड़ी रहती। इस सर्वथा उपेक्षित की बिसात क्या?

विद्यार्थी उन्हें नया समाचार सुनने अपने घेरे में पकड़ कर ले गए। कोई उनके श्रम की तारीफ करता कोई व्यक्तित्व की। लाहौर विश्वविद्यालय की एम.ए. की परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करना, वह भी गणित जैसे जटिल विषय में कम बड़ी बात नहीं थी और फिर इस साल जैसे कूट प्रश्न शायद पहले कभी नहीं पूछे गए। ये लोग अभी प्रांगण में थे, तभी एक चपरासी तेज कदमों से उनके पास आया “प्रिंसिपल साहब ने कहला भेजा है, आप जैसे ही आएँ, उनके पास ले जाया जाय।”

“चलो” कहने के साथ चल पड़े। प्रिंसिपल मि. वेल्स महान प्राचार्य होने के कारण आदरणीय थे, ऐसी बात नहीं, सहृदय पिता जैसे उनके व्यवहार ने हर विद्यार्थी को अपना अनुगामी बना रखा था। उनके लिए तो वह अभिभावक ही थे बल्कि उससे भी सर्वोपरि। साथियों का झुण्ड-कमरे के बाहर से वापस हो गया। जाते-जाते चेतावनी देते गए “निकल कर भाग मत जाना चुपके से हम लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं।”

चिकडडडडड उठाकर कमरे में प्रवेश करते ही प्रिंसिपल साहब का सुपरिचित कण्ठ स्वर कानों में पड़ा “बधाई मि. तीर्थराम। तुम्हारी श्रमशीलता ने कालेज के गौरव को नया आयाम दिया।” प्राचार्य के इस कथन के साथ पास बैठे प्रोफेसरों के चेहरे खिल उठे। वह सभी के आत्मीय जो थे।

कुशल वार्तालाप के बाद, प्राचार्य महोदय ने एक योजना उन्हें समझानी शुरू की। साथी प्राध्यापक सहमति में सिर हिला रहे थे। जबकि उनको कहा जा रहा हर शब्द विद्युत झटके सी पीड़ा दे रहा था। कुर्सी में पहलू बदलते हुए जैसे-तैसे कानों में पड़ते इस विष घोल को सहन कर रहे थे। मैंने असिस्टेंट कमिश्नर से बात कर ली है। अन्तिम वाक्य पूरा करते हुए उनने सवाल किया तुम्हारी क्या राय है?” “मेरी योग्यता की पूँजी सुखोपभोग के लिए नहीं जन-जन में वितरण हेतु है।” सिर नीचा किये उनने उत्तर दिया।

क्यों? प्राचार्य महोदय तो कुर्सी से आधे उठ गये। सर्वथा अप्रत्याशित इस एक वाक्य ने अन्य प्राध्यापकों को चौंका दिया। तब क्या तुमने-भविष्य के बारे में विचार नहीं किया? किया है “मैं शिक्षक बनूँगा।”“शिक्षक “इस शब्द के साथ उनके अन्तः सागर में न जाने कितनी भाव तरंगें गतिशील हो उठीं। समाजशिल्पी, मानवीय व्यक्तित्व का वास्तुकार क्रान्तिदर्शी मार्गदर्शक यही तो उसका अभिप्राय था, जिसके बारे में इधर कई दिनों से मानस मन्थन होता रहा है।

“शिक्षक” सभी के होठों ने मन्द स्वर में यह शब्द दुहराया। प्रिंसीपल फिर बोल उठे “गम्भीरतापूर्वक विचार करो तीर्थराम! शिक्षक की आजकल क्या हैसियत है? सिविल सर्विस में जाने के बाद तुम शासन के जिम्मेदार अधिकारी होगे। तुम्हारा एक इशारा महत्वपूर्ण हो जाएगा। शिक्षक और शासक का अन्तर पहचानो” “सर! परीक्षा दे चुकने से आज तक यही सोच विचार करता रहा हूँ।” बोलने का लहजा धीमा था। उन्हें सूझ नहीं रहा था इस सम्मानित बुजुर्ग को कैसे अपनी बात समझाएँ। अपने को सम्भालते हुए बोले “शिक्षक और शासक, एक निर्माता है, दूसरा निर्माण। एक के हाथ में जीवन संरचना का भार है दूसरा सिर्फ कर्मी है। एक व्यक्तित्व की दशा को आकार और दशा को ज्ञान देता है, दूसरा सिर्फ दिए हुए का उपयोग करता है। एक के प्रभाव को दिक्काल भी नहीं बाँध पाते दूसरा छोटे से दायरे में सिमटा रहता है।”

विद्यार्थी की वाणी प्राध्यापकों को भेद गई। अब तक शायद मूल्याँकन की यह पद्धति नहीं जान सके थे। फिर भी उनमें से एक समझाने के भाव में बोले “शब्दों के जाल में मत बाँधो, यथार्थ जगत में उतरो। कमिश्नर का सम्मान-प्रिंसिपल के सम्मान से कितना बड़ा है।” समझाने के ख्याल से कह तो दिया पर उनकी वाणी ने सभी को स्तब्ध कर दिया था। मन ही मन वे सोच रहे थे, जिसे आये दिन भूखे सोना पड़ता है, जिसके पास पहनने को कपड़े नहीं है, उसका यह अपरिमेय साहस। सबके सब उनका मुख ताक रहे थे। उनके शब्द थे “क्षमा याचना के साथ स्पष्ट बोलूँ तो सर, कुछ आप जैसे बिरलों को छोड़ आज समाज में शिक्षक नहीं हैं, हाँ उदर पूर्ति करने वाले नौकर अवश्य हैं। शिक्षक थे कन्फ्यूशियस, सुकरात, लाओत्से, समय की दीवारें, क्षेत्र के प्रतिरोध जिनके सम्मान को रोक नहीं सके थे। इस देश में महा कुमार सिद्धार्थ और महावीर ने सम्राट के पद को ठुकरा कर शिक्षक का पथ सँभाला था।”कुछ रुकते हुए बोले- “शिक्षक समाज की संजीवनी है, प्राण सुधा है यह समाज में रहे और वह मृत हो जाय यह कदापि सम्भव नहीं। समाज मरणासन्न है मतलब शिक्षक मर चुका। जिसने संस्कृतियां रचीं, सभ्यताओं का निर्माण किया, महामानवों में उसी शीर्ष स्थानीय व्यक्तित्वों को, समय समाज पुकार रहा है।”

इस परिपक्व विचारशीलता तथा स्पष्टवादिता के समक्ष प्राध्यापकगण मौन हो गए। उनके आदर्श की ओर बढ़ते कदमों ने ब्रिटिश प्राचार्य को अभाव विह्वल कर दिया। चश्मा उतार कर आँखें पोंछते हुए बोले “तीर्थ राम! पहले तुम प्रिय थे, अब सम्माननीय हो गए। भारत की समाज शिल्पी विश्व मनीषा तुममें अपना आदर्श खोजेगी। “इस आशीर्वाद को धारण कर वे चल पड़े उस ओर जहाँ मित्र समुदाय उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।


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