कमरे में लगे आदमकद शीशे के सामने बैठे उसे देर हो गई। पता नहीं दर्पण उसे क्या बता रहा है अथवा स्वयं इस काँच के टुकड़े में कुछ ढूँढ़ रही है। जरीदार लाल साड़ी, हाथों में भरी-भरी काली चूड़ियाँ, अंग-प्रत्यंगों में अपनी आभा-विकीर्णित करते स्वर्ण आभूषण, सिर में लाल रंग की रेखा बनाता सिन्दूर-उसके नववधू होने की पहचान दे रहे थे। कीमती साजो-सामान से भरापूरा कमरा ऐश्वर्यवान होने की गवाही देने के लिए काफी था। उसकी निजी थाती पुस्तकें यह बता रही हैं कि विद्या का भी वास है।
धन-ऐश्वर्य-विद्या अभिरुचि के बावजूद वह उदास थी। पलकें व्यथा के भार से बोझिल थीं। मुख पर उभरने वाली आड़ी-तिरछी रेखाओं ने उदासी का स्पष्ट रेखाँकन कर रखा था। मुख मनुष्य का भाव दर्पण है। किन्हीं गहन आयामों में होने वाली हलचलें, भावों का आलोड़न-विलोड़न इसमें उभरे बिना नहीं रहते। अनायास उसने होंठ सिकोड़े। माथे की लकीरें बिखरीं और कुछ शब्द फिसले “सौंदर्य” किसे कहते हैं सुन्दरता?” शब्द अस्फुट होने के बावजूद स्पष्ट थे। पता नहीं किससे पूछ था यह सवाल।
वैसे दिखने में यदि उसके नाक-नक्श तराशे हुए नहीं हैं-तो कुरूप भी नहीं कहा जा सकता। अंधी-कानी, लँगड़ी-लूली, बहरी तो वह है नहीं। सुन्दरता की पहचान क्या महज चमड़ी की सफेदी है? मोहक चाल, इतराती मदभरी आँखें, तराशी हुई संगमरमरी देह-यष्टि जो अपनी रूप ज्वाला में अनेकों को झुलसा दे अथवा व्यक्तित्व के गुणों का समुच्चय चरित्र उच्च मानवीय गुणों से युक्त हो और कर्तव्य सत्प्रवृत्तियों का निर्झर हो जिसकी विशालता के कारण अनेकों जिन्दगियाँ विकसित हों। उसके पूछे गए प्रश्न के यही दो उत्तर हैं-जो आदि काल से वातावरण में गूँज रहे हैं- “किसी एक को चुनना है।”
वह उठ खड़ी हुई। विषाद की लकीरें गहरी पड़ी। सोचने लगी-विवाह हुए अभी ज्यादा दिन नहीं हुए। पति का उसके प्रति यह व्यवहार-ताने, व्यंग्य कटूक्तियों की मर्म पीड़क बौछार। सुनते-सहते उसका अस्तित्व छलनी हो गया है। यदि उसके पास वासनाओं की उद्दमता भड़काने वाली रूप-राशि नहीं है, तो इसमें किसका दोष है? गुणों के अभिवर्धन में तो वह बचपन से प्रयत्नशील रही है। बेचैनी से उसके कदम कमरे की दीवारों का फासला तय करने लगे। विचारों की धारा प्रवाहमान हुई। रूपराशि भले-दो जीवनों में क्षणिक आकर्षण पैदा करे-पर सम्बन्धों की डोर मृदुल व्यवहार के बिना कहाँ जुड़ पाती है? चरित्र की उज्ज्वलता के बिना भी कभी-आपस में विश्वसनीयता पनपी है। रूपराशि क्या क्ल्योपेट्रा के पास कम थी, जिसकी रूप ज्वाला के अंगारों में मिश्र और रोम तबाह हो गया। विश्वविजयी कहलाने वाला सीजर पतंगे की तरह भुन गया।
आज निर्णय की घड़ी है। निर्णय की घड़ी क्या-निर्णय हो चुका। पति-साफ कह चुके “मैं तुमको साथ नहीं रख सकता।” उनकी दृष्टि ने शरीर के अलावा और कुछ कहाँ देखा? यदि देख पाते तो... काश...! बेचैनीपूर्वक टहलते-टहलते पलँग पर बैठ गई। अचानक उसने घड़ी की ओर देखा, शाम के 5.15 हो चुके। अब तो आने वाले होंगे। नारी रूढ़ियों से एक वस्तु रही है- पुरुष के हाथों का खिलौना। याद आने लगा इतिहास की अध्यापिका का वह कथन-यूनान के भारत प्रवेश के बाद मगध में नारियों की हाट लगने लगी थी। रूप विक्रेता लज्जा वसन तक तार-तार कर फेंक देते। खरीदार आकर उन्हें इस तरह टटोलते जैसे कोई कसाई देख रहा हो पशु में कितना माँस है। महामति चाणक्य ने इस का अन्त कराया। अब कहाँ है चाणक्य? कहाँ सुप्त है वह ब्राह्मणत्व? आज क्या नारी नहीं बिकती? सोचते सोचते उसका मन विकल हो उठा।
तभी दरवाजे पर बूटों की खड़खड़ाहट सुनाई दी। शायद....मन में कुछ कौंधा। अपने को स्वस्थ सामान्य दिखने की कोशिश करने लगी। थोड़ी देर में प्रवेश किया, जिसके मुख मण्डल पर पुरुष होने का गर्व था। एक उचटती सी नजर उसपर डालकर वह कुर्सी पर बैठा व प्रश्न दाग बैठा -”हाँ तो क्या फैसला किया तुमने?”
घुटन या संघर्ष में से वह पहले ही संघर्ष चुन चुकी थी। पति का निर्णय अटल था। अतः उसने बंधनों से मुक्ति पा ली। अधूरी पढ़ाई फिर चली, समय के सोपानों के साथ उसने कदम बढ़ाए। बढ़ते कदमों ने उसे स्वातंत्र्य यज्ञ का होता बनाया। संवेदना शक्ति बनी व गुणों के वृक्ष पर कविता के प्रसून खिले और यह कविता बन गयी। नारी की अनकही संवेदनाओं की। साहित्य के क्षितिज पर एक नीहारिका का अवतरण हुआ, जिसमें भावों के ब्रह्मांड सँजोए थे। कविता के भवन में उसका सौंदर्य दीप शिखा बन चमका। भावना के सौंदर्य से भरी इस महीमयी को भारत ने “महादेवी” के रूप में जाना।
उनकी जीवन गाथा एक सवाल दुहराती है यदि संवेदनशील, गुणवान, व्यक्तित्व, सौंदर्यशाली नहीं है तो फिर सौंदर्य की परिभाषा क्या है?