हम अपनी ही प्रतिध्वनि सुनते और प्रतिक्षाया देखते हैं।

May 1983

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प्रसन्नता की तलाश आमतौर से वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और परिस्थितियों में की जाती है। पर वस्तुतः यह चिन्तन अवास्तविक है। यदि लोक मान्यता यही रही होती तो जिनके पास प्रचुर साधन हैं और जिन्हें प्रतिकूलताओं का भी सामना नहीं करना पड़ता, वे सदा प्रमुदित और सन्तुष्ट पाए जाते। इसके विपरीत जिनके पास स्वल्प सम्पदा है, जो अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहते और प्रतिकूलताओं के मध्य जीवनयापन करते हैं, वे सभी दुःखी देखे जाते।

प्रसन्नता सोचने की एक पद्धति है। उसके साथ व्यक्ति का दृष्टिकोण स्वभाव और व्यवहार जुड़ा हुआ है। व्यक्तित्व में घुली हुई शालीनता को सुसंस्कारिता कहा जाता है और जिसके पास वह जितनी मात्रा में होती है, उसी अनुपात से उसे प्रसन्न रहते एवं रखते हुए देखा जाता है।

जिसे दोष-दर्शन, अभाव चिन्तन और हेय आरोपण की आदत है, वह हर स्तर की अनुकूलता में रहते हुए भी अपनी दुर्गति का जिस-तिस पर प्रयोग करेगा। फलस्वरूप कीचड़ फेंक कर साफ कपड़े को भी कुरूप बना देने की तरह सर्वत्र विपन्नता का दर्शन करेगा। हो यह भी सकता है कि यदि चिन्तन को उत्कृष्टता के पर्यवेक्षण और आरोपण के लिए प्रशिक्षित कर लिया जाय तो दृश्य कुछ दूसरी तरह के ही सामने आएँ।

गुम्बज की आवाज लौटकर वापस आती है। गेंद जहाँ से फेंकी गयी थी, वहीं वापस लौटकर आती है। हमारा अपना व्यक्तित्व ही जिस तिस के साथ टकराकर भली और बुरी अनुभूतियाँ कराता है। इसी से संसार को दर्पण की उपमा दी जाती है। अपना स्वरूप जैसा है, वैसा ही प्रतिबिंब उसमें दीखता है।


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