क्रिया की नहीं, भावना की महत्ता

May 1983

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“एक ही कार्य किसी के लिए बोझ किसी को योग्यता बढ़ाने का साधन तथा किसी के लिए योग कैसे बन जाता है,” एक जिज्ञासु ने स्वामी विवेकानन्द से उनके अमरीका प्रवास के दौरान पूछा। उत्तर में उन्होंने एक घटना सुनायी- “एक बार वे एक निर्माणाधीन मन्दिर से होकर गुजर रहे थे। तब वे सामान्य संन्यासी थे। प्रव्रज्या के लिए निकले थे। सबसे सीखने की अधिक, सिखाने की इच्छा कम रहती थी।

एक भव्य मन्दिर का निर्माण हो रहा था। चिन्तक मनोवृत्ति होने से वे हर कार्य के प्रत्येक घटना की समीक्षा गहराई से करते थे। जैसे ही उस मन्दिर में चल रहे निर्माण कार्य पर दृष्टि पड़ी उन्होंने उसके प्राँगण में प्रवेश किया। देखा कि सैकड़ों मजदूर, कारीगर, मिस्त्री बढ़ई, राजगीर वहाँ काम कर रहे हैं। सामान्य व्यक्ति के लिए यह घटना उतनी महत्वपूर्ण नहीं थी। प्रतिदिन संसार में ढेरों प्रासादों की नींव पड़ती, असंख्यों तैयार होते तथा हजारों लाखों का उसमें श्रम लगता रहता है। पर स्वामी विवेकानन्द को वह घटना भी विशेष जान पड़ी। कारीगरों, मजदूरों के कार्यों में उन्हें विशेष अन्तर दिखायी पड़ा। कोई बोझिल मन से बेगार भुगतने जैसे कर रहा था, तो किसी का मनोयोग देखते बनता था, किसी की भाव भंगिमा स्वयं परिचय दे रही थी जैसे सन्तोष आनन्द का कोई स्रोत फूट पड़ा हो।

चेहरे की भाव भंगिमा में इतना अन्तर क्यों? कार्य करने के ढंग में इस विभिन्नता का क्या कारण है? इन प्रश्नों से कौतूहल बढ़ा। उत्तर पाने की जिज्ञासा प्रबल हुई। किनारे बैठे काम कर रहे मजदूर के पास जाकर उन्होंने पूछा- “भाई क्या कर रहे हो?” स्वामी जी की आशा के विपरीत उसने कठोर तथा झल्लाये स्वर में उत्तर दिया- “देखते नहीं हो! पत्थर तोड़ रहा हूँ।” प्रश्न बड़ी विनम्रता से पूछा गया था पर उत्तर अत्यन्त तिक्त मिला। उन्हें समझते देर नहीं लगी काम करने वाले को अपने काम में तनिक भी रुचि नहीं है।

स्वामी जी थोड़ा और आगे बढ़े और दूसरे मजदूर के पास जाकर उसी प्रश्न को दुहराया। इस मजदूर का उत्तर पहले वाले जैसा न था। उसने कहा- “पेट भरने के लिए रोटी चाहिए तथा आगे बढ़ने के लिए योग्यता भी जरूरी है। रोटी जुटाने तथा अपने काम में कुशलता हासिल करने का प्रयास कर रहा हूँ।” उसके उत्तर में थोड़ी विवशता झाँकती दिखायी पड़ रही थी, पर उज्ज्वल भविष्य की कल्पना के कारण उसके कार्यों में उत्साह एवं मनोयोग का समावेश था। इसी कारण वह पहले से कम दुःखी, कम उद्विग्न तथा कम निराश था।

एक तीसरे कार्य कर्मी के पास वे पहुँचे और उससे भी वही प्रश्न किया। पर ऐसा लगा जैसे उसने कुछ सुना ही न हो। उसकी तत्परता एवं तन्मयता देखते बनती थी। चेहरे पर एक आनन्द की दीप्ति नाच रही थी। आँखों में आह्लाद की चमक थी। स्वामीजी ने उससे दुबारा थोड़ा तेज स्वर में पूछा- “भाई यहाँ क्या हो रहा है, तुम क्या कर रहे हो?

मजदूर ने बिना हाथ का काम रोके एक बार स्वामी जी की ओर देखा। मुस्कराते हुए धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- “यहाँ भगवान का मन्दिर बन रहा है। उसके निर्माण पुरुषार्थ में मैं भी अपनी नगण्य सेवाएँ अर्पित कर रहा हूँ।” इस अन्तर से उन्हें अपूर्व सन्तोष मिला, एक प्रेरणा मिली।

शिष्य को समझाते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा- “भावों के आरोपण से एक ही कार्य किसी के लिए बोझ किसी की दक्षता बढ़ाने का साधन तथा किसी के लिए कर्मयोग बन जाता है।” जिज्ञासु का समाधान हुआ, नयी दृष्टि मिली।


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