अंतर्ग्रही प्रवाहों का व्यष्टि चेतना से सघन संबंध

May 1983

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“आकल्ट साइन्स इन मेडिसिन” पुस्तक के लेखक हैं- फ्रान्ज हार्टमान। चिकित्सा विज्ञान के मूर्धन्य विद्वानों में इनकी गणना होती है। लेखक ने आधुनिक चिकित्सा के जन्मदाता थियोफ्रेस्टस, पार्सेल्सस और उनकी पुस्तक ‘दि फण्डामेण्डो सेपियेण्टी’ का उल्लेख किया है। पार्सेल्सस अपने समय के प्रख्यात चिकित्सा शास्त्री थे। उनका कहना था कि प्रचलित चिकित्सा प्रणाली ने मनुष्य के स्थूल शरीर (जिसे एनीमल बॉडी का नाम दिया है), की ही जानकारी उपलब्ध की है किन्तु मनुष्य-शरीर में निवास करने वाली चेतन सत्ता की ओर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। जो व्यष्टि में होते हुए भी समष्टि के चैतन्य प्रवाहों से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ी हुई है और भले बुरे प्रवाहों से प्रभावित होती है। पार्सेल्सस का मत है कि मनुष्य की संरचना इतनी सरल नहीं है कि उसे मात्र शरीर के विश्लेषण द्वारा समझा जा सके। न ही स्वास्थ्य और रुग्णता का कारण मात्र स्थूल अवयव है। इनके कारणों में अदृश्य कारणों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उनकी उपेक्षा कर न तो सुस्वास्थ्य का लाभ प्राप्त किया जा सकना सम्भव है और न ही रोगों का वास्तविक कारण तथा निवारण का स्थाई उपचार ढूंढ़ सकना। पार्सेल्सस के अनुसार सामान्य ही नहीं असामान्य, असाध्य शारीरिक तथा अनेकों मनोरोगों को दूर करने के लिये शरीर निदान, मनोविश्लेषण के साथ-साथ अंतर्ग्रहीय प्रवाहों की जानकारी प्राप्त करना अतीव आवश्यक है। क्यों कि पृथ्वी सौरमण्डल के अन्यान्य ग्रहों से जुड़ी है और उनकी गति और और स्थिति से प्रभावित होती है। अस्तु, मानवी स्वास्थ्य मात्र पृथ्वी के वातावरण से नहीं संबंधित है बल्कि अंतर्ग्रही परिस्थितियों से भी जुड़ा हुआ है।” इस सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डालने वाली उनकी पुस्तक ‘एस्ट्रोनामिया’ कितने ही गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करती है।

पुस्तक में वर्णित तथ्यों के अनुसार शरीर के स्थूल-सूक्ष्म, जड़-चेतन आदि घटकों का सम्बन्ध विभिन्न ग्रह-नक्षत्रों से सतत् बना हुआ है। सात ग्रहों का तारतम्य इस प्रकार है। ‘शनि’- प्रकृति- पृथ्वी तत्व। इन्द्रिय-गम्य सभी पदार्थ इसके अंतर्गत आ जाते हैं। सूर्य- प्राण का अधिष्ठाता। यह हमारे जीवन में क्रियाशक्ति प्राणशक्ति के रूप में परिलक्षित होता है। चन्द्रमा मनःसंस्थान का स्वामी। यह चिन्तन को हर क्षण प्रभावित करता है। मंगल- इच्छा, वासना, काम से सम्बन्धित है। बुध- मन की विविध क्षमताओं से सूक्ष्म रूप से जुड़ा है। गुरु (बृहस्पति) आध्यात्मिक शक्ति, सम्वेदना, भावना, श्रद्धा को प्रभावित करता है। शुक्र- अंतर्मुखी प्रवृत्तियों को जन्म देता है।

पार्सेल्सस का मत है कि ज्योतिर्विज्ञान मात्र आकाशीय पिण्डों की गति, स्थिति की जानकारी तक सीमित नहीं है वरन् उनका पृथ्वी के वातावरण एवं प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन, विश्लेषण और परस्पर आदान-प्रदान से लाभ उठाना भी उसका उद्देश्य है। इस प्रश्न के उतर में यदि अन्यान्य ग्रह पृथ्वी के जीवन को प्रभावित करते हैं तो उनका प्रभाव सर्वत्र एक जैसा क्यों नहीं दिखता है, पार्सेल्सस का कहना है कि “जिस प्रकार एक ही भूमि पर बोये गए आम, नीम, बबूल अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप गुण धर्मों का चयन कर लेते हैं। सोने की खदान की ओर सोना, चाँदी की ओर चाँदी और लोहे की खदान की ओर लौह कण आकर्षित होते हैं। आकाश में संव्याप्त ईथर तत्व में फैले विभिन्न प्रसारणों में रेडियो मात्र उस स्टेशन की आवाज ग्रहण करता है जहाँ से उसकी सुई का सम्बन्ध जुड़ा होता है। ठीक उसी प्रकार पृथ्वी के जीवधारी विश्व चेतना के अथाह महासागर में रहते हुए भी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप अंतर्ग्रही अनुदानों को ग्रहण करते हैं तथा बुरे प्रभावों से प्रभावित होते हैं। उदाहरणार्थ पूर्णिमा के दिन जब चन्द्रमा अपने पूर्ण गौवन पर होता है तो मनःस्थिति पर प्रभाव डालता है। पर यह एक समान नहीं होता है। कमजोर और असन्तुलित मनःस्थिति के व्यक्तियों में इसकी प्रतिक्रिया अधिक दिखाई पड़ती है। अपेक्षाकृत सन्तुलित दृढ़ मनःस्थिति वालों के।

भारतीय ज्योतिष विज्ञान की ही भाँति पाश्चात्य ज्योतिर्विद् तथा चिकित्सा शास्त्री डेविड कान्वे ने अपनी पुस्तक “मैजिक ऑफ हर्ब्स” में मनुष्य के शरीर और उसके विभिन्न भागों पर राशियों, ग्रहों का तारतम्य एवं प्रभाव इस प्रकार दर्शाया है।

मेष राशि के अधिपति ग्रह मंगल शरीर के मस्तिष्कीय क्रिया-कलापों से संबंधित है। वृषभ- अधिपति, ग्रह शुक्र, का सम्बन्ध शरीर के गला-कंठ, मिथुन- अधिपति ग्रह-बुध, सम्बन्ध- हाथ, पाँव, फेफड़ा, कर्क- अधिपति ग्रह- चन्द्र, सम्बन्ध- छाती, पेट, सिंह- अधिपति ग्रह सूर्य, शरीर से सम्बन्ध हृदय, मेरुदण्ड, कुहनी के नीचे, कन्या- अधिपति, ग्रह- बुध, शरीर के अवयव से सम्बन्ध- पेडू, हाथ, आँतें, विसर्जन तन्त्र, तुला- अधिपति ग्रह- शुक्र, शरीर के अवयवों से सम्बन्ध- पीठ का निचला हिस्सा, मूत्राशय तन्त्र, वृश्चिक- अधिपति ग्रह- मंगल, शरीर से सम्बन्ध- पेडू, जननाँग (तन्त्र-प्रजनन तन्त्र), धनु- अधिपति ग्रह- गुरु, शरीर से सम्बन्ध- जाँघ, नितम्ब, जिगर (तन्त्र- हिपेटिक तन्त्र) मकर- अधिपति ग्रह-शनि, सम्बन्ध- घुटने, हड्डियां, कुँभ- अधिपति ग्रह- शनि, सम्बन्ध- चमड़ी, टखना (तन्त्र- रक्ताभिसरण), मीन- अधिपति ग्रह- गुरु, सम्बन्ध- पैर (तन्त्र- नाड़ी संस्थान)।

बोस इन्स्टीट्यूट कलकत्ता के माइक्रोबायोलॉजी के दो वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि सौर विकिरण से वायुमण्डल के जीवाणुओं का भी नियन्त्रण होता है। 16 फरवरी 80 के पूर्ण सूर्यग्रहण के अवसर पर कलकत्ता के प्रख्यात बोटे निकल गार्डन के वायुमण्डल में बैक्टीरिया, फजाई एवं घातक जीवाणु प्रचुर मात्रा में पाये गए। सूर्यग्रहण के पूर्व और उसके बाद विभिन्न जीवाणुओं का अध्ययन करने पर पाया गया कि सूर्यग्रहण के समय न केवल इनकी संख्या में वृद्धि पाई गई अपितु मारक क्षमता भी अपेक्षाकृत अधिक थी। इस तथ्य की पुष्टि रीवाँ विश्वविद्यालय के विक्रम फिजिक्स सेन्टर और इनवॉयरमेन्टल बायोलॉजी सेन्टर के वैज्ञानिकों के प्रयोगों से हुई। इन वैज्ञानिकों ने देखा कि सूर्यग्रहण के अवसर पर पानी को खुला छोड़ देने पर उसमें विभिन्न प्रकार के विषाणु और जीवाणु वायुमण्डल से आकर उसे विषाक्त कर देते हैं जबकि अन्य अवसरों पर ऐसा नहीं होता।

भारतीय ऋषियों का निर्देश है कि सूर्य और चन्द्र ग्रहण के समय किसी भी प्रकार का आहार ग्रहण ना किया जाये। पानी आदि पीना भी वर्जित है। उस दिन उपवास आदि करने की परम्परा भी सदियों से चली आ रही है। तत्वविद् ऋषि पृथ्वी पर पड़ने वाले अंतर्ग्रही दुष्प्रभावों से परिचित थे तथा यह जानते थे कि ग्रहण के समय खान-पान से शरीर पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। अंतरिक्ष से आने वाले दुष्प्रभावों से बचाव के लिये व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्तर पर उपासना-साधना के सूक्ष्म उपचार किये जाते थे जो आज भी विभिन्न स्थानों पर व्यक्तिगत स्तर पर छिटपुट रूप में प्रचलित हैं। सूर्य एवं चन्द्रग्रहण के बाद नदियों आदि में स्नान करने की परम्परा है जो पूर्णतया वैज्ञानिक है। वैज्ञानिकों का मत है कि प्रवाहित जल में प्राण ऊर्जा की प्रचुरता होती है। शरीर पर सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण से बढ़ने वाले वायुमण्डलीय विषाणुओं का आक्रमण होता है। स्नान करने से नदी के जल की प्राण ऊर्जा उन्हें मार डालती है। इस अवसर पर उपवास, स्नान, उपासना आदि कृत्यों को कभी महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता था पर नवीन वैज्ञानिक तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि सभी क्रियायें पूर्णतया वैज्ञानिक सुरक्षा और उपचार की समर्थ माध्यम हैं।

शरीर का स्थूल पक्ष पृथ्वी एवं सम्बन्धित वातावरण से, पर सूक्ष्म घटक अंतरिक्षीय सूक्ष्म चैतन्य प्रवाहों से जुड़ा हुआ है तथा भले-बुरे प्रभावों से प्रभावित होता है। अस्तु, स्थूल अध्ययन, विश्लेषण एवं उपचार के लिये किये जाने वाले प्रयत्नों के साथ-साथ अंतर्ग्रही प्रभावों की जानकारी रखना तथा उपचार के लिये उपाय ढूंढ़ना भी आवश्यक हो जाता है। कहना न होगा यह समग्र जानकारी अध्यात्म सम्मत ज्योतिर्विज्ञान द्वारा ही सम्भव है।


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