हेय और ग्राह्य ‘काम’

May 1983

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धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की चतुर्विधि आवश्यकताएँ कहा गया है और उनके लिए प्रयत्नरत रहने का आप्तजनों द्वारा परामर्श दिया गया है।

इनमें से धर्म और मोक्ष की बात आत्मिक जीवन को समुन्नत बनाने और पारलौकिक लाभ लेने के लिए आवश्यक समझा गया है। अर्थ की आवश्यकता इसीलिए है कि उसके बिना शरीर यात्रा के आवश्यक सुविधा साधन उपलब्ध नहीं होते। असमंजस ‘काम’ के सम्बन्ध है। ‘काम’ शब्द सामान्यतया हेय कृत्य के रूप में प्रयुक्त होता है। काम, क्रोध, लोभ मोह, मद, मत्सर ये रिपु कहे जाते हैं। इनमें काम प्रमुख है। यह सभी निन्दनीय और त्याज्य ठहराये गए हैं फिर ‘काम’ को चतुर्विधि पुरुषार्थ में कैसे सम्मिलित किया गया है उसके लिए प्रयत्नशील रहने का निर्देश कैसे दिया गया, यह विचारणीय है।

यहाँ ‘काम’ का अर्थ क्रीड़ा है। क्रीड़ा अर्थात् विनोद। विनोद भी मानसिक आहार है। इसलिए तैरने, खेलने, गाने जैसे कितने ही विनोद कौशलों को क्रीड़ा कहा जाता है। प्रायः समस्त कलाएँ उसी परिकर में आती हैं। भक्तजनों का गायन वादन, नृत्य कीर्तन इसी श्रेणी में आता है। प्रसन्नता की अभिव्यक्ति का नाम ‘काम’ है। इसका तात्पर्य हुआ- ऐसे प्रयत्न करना जिससे मन हलका-फुलका रहे, प्रसन्नता प्रफुल्लता का अनुभव करे, हँसती-हँसाती जिन्दगी जिये, सन्तुष्ट और उल्लसित मनोभूमि बनाये। निराशा विक्षोभ, उद्वेग, चिन्ता, भय, ईर्ष्या, द्वेष, आक्रोश, आशंका, दर्प आदि उन मनोविकारों से बचा रहे तो मन पर अनावश्यक दबाव डालते हैं और भार बनकर लदे रहते हैं।

काम का दार्शनिक अर्थ क्रीड़ा, विनोद प्रसन्नता की मनःस्थिति बनाये रहना वैसी गतिविधियों आदतों को बढ़ावा देना है। किन्तु इसका एक दूसरा शब्दार्थ भी है। जो लिपि और उच्चारण की दृष्टि से समान दीखते हुए भी तात्पर्य की दृष्टि से सर्वथा प्रतिकूल है। वह अर्थ है- कामुकता। कामुकता का अर्थ है- अश्लील चिन्तन, विषयासक्ति निन्दा इसी की गई है और इसी को शत्रु मानने, बचने का परामर्श दिया है।

कामुकता एक प्रकार का मनोविकार या मनोरोग है। इसमें अकारण अनावश्यक- अश्लील चिन्तन मस्तिष्क पर नशे की तरह छाया रहता है और उसके सन्तुलन पर बुरी तरह आघात करता है। यह प्रवृत्ति क्रोध, आवेश, उन्माद जैसी अवाँछनीय है। उसका आकर्षक प्रवाह चिन्तन तन्त्र को इस प्रकार जकड़ लेता है कि हर घड़ी वैसी ही कल्पनाएँ उठती, इच्छाएँ उभरती और योजनाएँ बनती रहती हैं। यह समूचा चिन्तन न केवल उत्तेजक वरन् निरर्थक भी होता है। कामुकता मर्यादा रहित है वह किसी के भी सम्बन्ध में काम सेवन का ताना-बाना बुन सकती है। जब कि प्रस्तुत समाज व्यवस्था के अंतर्गत वह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। अपनी ओर से जिस रूप सौंदर्य पर आसक्ति उभारी जा रही है आवश्यक नहीं कि दूसरा पक्ष भी उसके लिए सहमत हो। ऐसी दशा में निराशा के अतिरिक्त और क्या हाथ लगने वाला है। कामुक चिन्तन प्रकारान्तर से एक प्रकार का उन्माद है जिसमें व्यवहारिकता अव्यावहारिकता का कोई भान नहीं रहता। नीति-अनीति भी विस्मरण हो जाती है।

इस आधार पर उत्तेजित अस्त-व्यस्त रहने वाली मनःस्थिति में कोई गम्भीर या महत्वपूर्ण चिन्तन सम्भव नहीं। दार्शनिक, वैज्ञानिक, साहित्यकार, सृजेता स्तर के लोगों को जिस स्तर की एकाग्रता आवश्यक है। वैसी बन पड़ना कामुक उत्तेजना के रहते सम्भव नहीं। इसी प्रकार हेय उपयोग की अनियन्त्रित आकाँक्षा मनुष्य की अपराधी प्रवृत्तियां अपनाने के लिए घसीट ले चलती है। जब किसी के भी साथ काम सेवन की योजना बन सकती है तो उसका धन, अधिकार आदि के अपहरण में भी क्यों संकोच होगा? यह पाप पतन का प्रवाह है जो काल्पनिक, असम्भावित होते हुए भी मनुष्य को अनैतिक, बनाने की भूमिका बनाता रहता है। अन्ततः यह प्रवाह चारित्रिक पतन के गर्त में ही गिराकर छोड़ता है। चिन्तन ही परिपक्व होकर कर्म बनता है। कामुक कल्पनाएँ या तो व्यभिचार बलात्कार के रूप में प्रकट होती हैं या फिर अपने लिए कोई और रास्ता ढूँढ़कर मर्यादा उल्लंघन के अनाचारी कृत्य कराने लगती हैं।

शारीरिक बलिष्ठता की दृष्टि से ब्रह्मचर्य की महिमा सर्वविदित है। ब्रह्मचारी सदाचारी सदा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बलिष्ठ रहे हैं। हनुमान, भीष्म, शंकराचार्य आदि के उदाहरण इसकी पुष्टि में दिये जाते रहते हैं और कामुक लोगों को क्षय जैसे रोगों से ग्रसित होकर बेमौत मरने वालों के उदाहरण भी कम नहीं है। शारीरिक काम सेवन से धातु क्षय की हानि होती है, जिसे किसी प्रकार सहन भी किया जा सकता है किन्तु मानसिक व्यभिचार से तो और भी बड़ी हानि होती है। उसमें ओजस् ही नहीं मनस् भी क्षीण होता है और मनुष्य संकल्प, सहारा एवं मनोबल ही गँवा बैठता है। ऐसे व्यक्ति हर दृष्टि से खोखले सिद्ध होते हैं।

अश्लील काम क्रीड़ा का तो दाम्पत्ति जीवन तक में निषेध है। भावना विज्ञान के मूर्धन्यों ने अपनी स्त्री तक की सहधर्मिणी, सहचरी, धर्मपत्नी आदि के रूप में मान्यता दी है। रमणी और कामिनी रूप में उस तक की भर्त्सना है। प्रजनन कृत्य को भी भारतीय धर्म में गर्भाधान संस्कार का रूप दिया है और उस मात्र समाज सेवा का एक रूप मानते हुए ही अपनाने की छूट दी है। विनोद के लिए कामुकता का उपयोग बुरे किस्म का फूहड़पन है। इसके स्थान पर सात्विक हास परिहास किसी से भी किया जा सकता है। इसके लिए पत्नी, बच्चे, मित्र, साथी छोटे बड़े सभी को माध्यम बनाया जा सकता है। पर वह सब होना चाहिए सात्विक, सौम्य शालीन। इसी में काम शब्द की सार्थकता है।

आज कामुकता की बाढ़ जैसी आई हुई है। पाश्चात्य देशों में उसका खुला प्रचलन बढ़ता जाता है और उसे सामान्य जीवन व्यवहार के रूप में मान्यता मिलती जा रही है। अन्य सभ्यताभिमानी देशों में वह सब पर्दे के पीछे होता है। विकृतियाँ वहां भी कम मात्रा में नहीं पनप रही हैं। यही है वह हेय प्रचलन जिसकी ‘काम’ विकार के रूप में निन्दा की गई है। उसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि सौम्य काम विनोद के स्थान पर अश्लील काम विकार जन समाज पर नशीले उन्माद की तरह सवार होता चला जाता है। सामने प्रस्तुत प्रमाण इस विभीषिका को उजागर करते हैं और कहते हैं कि समय रहते इसकी रोकथाम होनी चाहिए।

खिलवाड़ के लिए बहुमूल्य वस्तुओं को भी हेय उपहासास्पद एवं हानिकारक प्रयोजनों के लिए खर्च किया जा सकता है। गन्ने की उपयोगिता आहार में है। पर उन्हें शराब बनाकर भी पिया जाता है। इसमें हर दृष्टि से हानि ही हानि है। बारूद की खिलवाड़ में ढेरों समय, श्रम और साधन खराब होते हैं। बदले में दुर्घटना होने और वायु में विषाक्तता बढ़ने जैसी हानियाँ प्रत्यक्ष सामने आती हैं। इसी प्रकार शरीर को जिस बहुमूल्य शक्ति ‘ओजस्’ के रूप में प्रयत्न करके मनुष्य हर दृष्टि से समर्थ बन सकता है उसे गन्दी नाली में बहा देने में ने जाने क्यों बुद्धिमत्ता समझी और आतुरता बरती जाती है। मस्तिष्क तक पहुँचकर जो शुक्र मनुष्य को अधिकाधिक मेधावी, प्रज्ञावान बना सकता है उस तुच्छ से मनोरंजन के लिए बर्बाद करते रहने में समझदारी कहाँ है?

दाद खुजाते समय चमड़ी छील लेने और घाव होने से कष्ट बढ़ने का ध्यान नहीं रहता। सूखी हड्डी चबाकर कुत्ता अपने ही जबड़े में घाव कर लेता है और उसमें बहने वाले रक्त को चाटकर हड्डी से स्वाद मिलने की बात सोचता है। कामुकता में जो क्षणिक उत्तेजना मिलती है उसे इसी स्तर का समझा जा सकता है। उसमें विनोद कम और विनाश अधिक है।

‘काम’ का उपयोगी स्वरूप विनोद है। विनोदों में कामुकता ओछे दर्जे की है। दाम्पत्ति जीवन में भी उसका न्यूनतम एवं सौम्य उपयोग होना चाहिए। इससे बाहर के क्षेत्र में उसका चिन्तन और प्रयोग अहितकर ही समझा जा सकता है। शास्त्रकारों ने मात्र सात्विक ‘काम’ का ही समर्थन किया है।


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