नर और नारी की अविच्छिन्न एकता

May 1983

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नर और नारी के दो भागों में विभक्त मनुष्य जाति वस्तुतः एक ही वृक्ष की दो शाखाएँ हैं। एक ही शरीर में दो हाथ, दो पैर, दो कान, दो नेत्र, दो फेफड़े, दो गुर्दे होते हैं। उसके स्तर में कोई अन्तर नहीं होता। दोनों परस्पर मिल-जुलकर काम करते हैं। परस्पर पूरक बनकर एक दूसरे की सहायता करते हैं। वजन उठाने और हलका करने में पृथकता के बीच एकात्मकता का परिचय देते हैं। दोनों के मध्य अविच्छिन्न सहयोग पाया जाता है। यही बात नर और नारी के सम्बन्ध में भी है। दोनों के मध्य जब, जहाँ जितना सहकार रहा है वहाँ उतनी ही सफलता, सुविधा और प्रगति का वातावरण बना है। विभिन्नता उत्पन्न होने पर तो दोनों ही पक्ष घाटे में रहते हैं।

एकता- एकात्मकता के लिए उस मनःस्थिति की आवश्यकता है जिसमें सहयोग पनपता है। इसमें निमित्त कारण है सद्भाव सम्पन्न सहकारिता का। उसके लिए सर्वाधिक आवश्यकता है- एक दूसरे द्वारा समान रूप से सहयोग और सम्मान प्रदर्शित किया जाना। इस दृष्टि से दोनों एक दूसरे से आगे रहने की सहज प्रतिद्वन्द्विता करें कि किसने अपने साथी के प्रति कितना अधिक सम्मान प्रदान किया है। इसके लिए आवश्यक है कि दोनों पक्ष अपने को छोटा और दूसरे को बड़ा समझें। अपने लिए कम रखने और दूसरे के लिए अधिक देने की बात सोचें। जहाँ इस निर्वाह में कटौती होती है, व्यतिरेक या व्यवधान पड़ता है, वहाँ वह स्नेह सौजन्य निभ नहीं पाता, जिसके आधार पर घनिष्ठता निभती और भावभरी आत्मीयता उमंगती है।

गड़बड़ी वहाँ पड़ती है जहाँ अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा समझने की अहमन्यता पनपती और उस आधार पर दूसरे का तिरस्कार करती है। यह भूल प्रायः पुरुष वर्ग की ओर से होती रही है। वह अपने को वरिष्ठ और नारी को कनिष्ठ समझता रहा है। कई बार तो उसे पालतू पशुओं अथवा सम्पत्ति की तरह उपयोग किया जाता है और उचित या अनुचित मर्जी पर चलाने के लिए बाधित, प्रताड़ित तक किया जाता है। इस अहमन्यता के पीछे एक कारण यह हो सकता है कि पुरुष कमाऊ होता है और नारी की शरीर संरचना उसे बच्चों की जिम्मेदारी सँभालने के लिए घर रहने को बाधित करती है। कमाऊ सो श्रेष्ठ, जो व्यवस्थारत सो निकृष्ट। जो शरीर से पुष्ट सो श्रेष्ठ, जो तनिक सा दुर्बल सो निकृष्ट। यह मान्यता न तो तथ्यपूर्ण है न नैतिक। स्त्री पतिव्रता रहे और पुरुष स्वेच्छाचार बरते। इसका कोई औचित्य नहीं। इसके पीछे प्रकृति-संरचना या समाज व्यवस्था की दुहाई देना व्यर्थ है।

सतयुगी समाज में नर-नारी को समान ही नहीं वरन् नारी को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानित किया और वरिष्ठता का स्तर प्रदान किया है। संसार में ऐसे अनेकों क्षेत्र अभी भी हैं जहाँ मातृकुल की प्रधानता है और नारी को परिवार तथा अर्थ व्यवस्था सँभालने की वरीयता है। पुरुषों को उनका सहयोगी बनकर रहना और अनुशासन में चलना पड़ता है। ऐसी दशा में इसे प्रचलन ही कहना चाहिए जिसमें कहीं नर की कहीं नारी की प्रमुखता है। वस्तुतः दोनों के मध्य ऐसी कोई विभाजन रेखा नहीं है। जिसमें किसी को वरिष्ठ और किसी को कनिष्ठ ठहराया जा सके।

प्रकृति संरचना की दृष्टि से भी ऐसी कोई बात नहीं। नर में एक विशेषता अधिक है तो नारी में दूसरी। यह उनकी कार्य पद्धति के अनुरूप अनुदान मिलने की निर्यात व्यवस्था है। इसके पीछे छोटे या बड़े का, हलके या भारी होने जैसा कोई अन्तर नहीं है।

साहस, बल, दृढ़ता, पराक्रम में यो पुरुषों को चिरकाल से आगे रहना पड़ा है इसलिए वे विशेषताएँ उनके स्वभाव का अंग बन गई हैं। पर यह अकाट्य विभाजन नहीं है। अनेक बार नारियों में नर जैसा ही नहीं वरन् उससे भी अधिक साहस-पराक्रम पाया गया है। झाँसी वाली रानी, दुर्गावती, चाँद बीबी, जोनआर्क आदि अनेकों महिलाओं के ऐसे इतिहास हैं जिन्हें देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि नारी की संरचना में पुरुष की तुलना में दुर्बलता के अधिक अंश पाए जाते हैं। इन दिनों भी अगणित उदाहरण अपने इर्द-गिर्द ही ढूंढ़े जा सकते हैं जिनमें नारी का पौरुष अपनी प्रौढ़ता का परिचय दे रहा है।

शरीर संरचना की दृष्टि से नारी और नर मूलतः एक जैसी विशेषताओं से युक्त हैं। आगे बढ़ने पर ही विभाजन की दिशा धाराएँ कटती हैं। इसमें हेर-फेर भी होता रहता है और हो सकता है। लिंग-परिवर्तन की ऐसी घटनाएँ अब अस्पतालों द्वारा अधिक संख्या में सामने आती रहती हैं जिनमें एक ही शरीर में दोनों प्रकार की विशेषता पाई गईं। फलतः एक को समाप्त करके दूसरे को उभारा गया। जब इस प्रकार के ऑपरेशनों की सुविधा नहीं थी तब कितने ही व्यक्ति उभयलिंगी शरीर रचना के बीच रहकर भी अपना काम चलाते थे। अभी भी ऐसे प्रमाण जहाँ-तहाँ मिलते रहते हैं कि लिंग एक प्रकार का और स्वभाव दूसरी प्रकार का। कई बार तो ऐसी संरचना पाई जाती है जिसे अविच्छिन्न ही समझा जा सकता है और जिसे शल्य क्रिया द्वारा भी बदल सकना सम्भव नहीं है।

मूल रूप से हर मनुष्य के भीतर नर और नारी की दोनों ही विशेषताएँ पाई जाती हैं। इनमें से एक प्रबल हो उठती है और दूसरी प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। यदि मान्यता बदली जा सके तो एक लिंग दूसरे में मानसिक दृष्टि से सरलतापूर्वक और शारीरिक दृष्टि से थोड़ी अधिक प्रयत्नशीलता के साथ बदला जा सकता है। नर में नारी की या नारी में नर की विशेषताएँ उभर सकती हैं। एकाध जन्म के अनवरत प्रयत्न से तो अगले जन्मों में यह परिवर्तन निश्चित रूप से हो सकता है।

उपलब्ध प्रमाणों में ऐसे अगणित हैं जो नर और नारी के बीच प्रचलित अन्तर को अवास्तविक सिद्ध करते हैं। उनमें परिवर्तन न हो सकने की सम्भावना को स्पष्ट करते हैं।

इस संदर्भ में कुछ उपलब्ध तथ्य सामने हैं जिन पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि नर-नारी के मध्य इन दिनों जो वरिष्ठता-कनिष्ठता की मान्यता है उसका कोई ठोस आधार या कारण नहीं है। तथ्यतः दोनों एक हैं। एक जैसी सम्भावनाओं से भरे-पूरे हैं। जो प्राकृतिक अन्तर है वह सृष्टिक्रम की प्रजनन-प्रक्रिया को ध्यान में रखकर ही सृष्टा ने बनाया है, पर इसमें ऐसा कोई अन्तर नहीं है जिससे किसी को किसी से वरिष्ठ या निकृष्ट ठहराया जा सके।

क्यूबा में जन्मी लाकेता जनेता थी जो महिला पर उनका मन सैनिक जीवनचर्या अपनाने के लिए उद्विग्न रहा। इसके लिए उसने एक सैनिक से विवाह भी किया पर इस प्रयास से भी वे सैनिक न बन सकीं, वरन् मात्र गृहिणी बन गईं। इस असन्तोष में उसने तलाक ले लिया और मर्दाना वेष बनाकर सेना में भर्ती हो गई। उसका युद्ध-कौशल निखरा। नकली मूँछ लगाकर वह पूरी जवान लगती और साथियों से हर प्रतिद्वन्द्विता में आगे रहती। एक बार उसका पति ही उसकी टोली को ट्रेनिंग देता रहा। इस बीच उसे भी पहचान न हो सकी कि रंगरूटों में एक उसकी पूर्वपत्नी भी है। मुद्दतों वह उसी कार्य में संलग्न रही। भेद तब खुला जब वह एक मोर्चे पर घायल होकर अस्पताल पहुँची और बेहोशी की हालत में उसका ऑपरेशन किया गया।

सोने की खदानें खोदने वाली कैलीफोर्निया की वेल्स फारगो कम्पनी अपने समय में बहुत प्रख्यात थी। अमेरिका भर में उसकी सम्पन्नता की चर्चा चलती रहती। खोदे हुए सोने तथा महत्वपूर्ण कार्यकर्ता और कागजात लेकर एक तेज घोड़े वाली गाड़ी खदान से दफ्तर तक का लम्बा रास्ता पर करती। सड़क ऊबड़-खाबड़, ढेरों पहाड़ी मोड़, घात लगाकर बैठे रहने वाले डाकुओं की भरमार। इन कठिनाइयों के बीच गाड़ी को सरपट दौड़ाकर ले चलना बड़ा जोखिम भरा काम था। कई कोचवान डाकुओं द्वारा मारे गए, कई दुर्घटनाग्रस्त हुए, कई आकर्षक वेतन वाली उस नौकरी को छोड़कर भाग गए। अन्ततः एक कोचवान टिका। उसकी बहादुरी का सभी ने लोहा माना। यों सुरक्षा गार्ड तो गाड़ी में भी चलता था फिर भी दुस्साहसी डाकू गाड़ी को रोकने और पीछा करने से चूकते नहीं थे। नया कोचवान जहाँ गाड़ी को सरपट दौड़ाता जाता वही इर्द-गिर्द मँडराते डाकुओं की भी लम्बे हण्टर से चमड़ी उधेड़ देता। अवसर आने पर दूसरे हाथ से निशाना भी साधता और डाकुओं के हौसले पस्त कर देता। युवक कोचवान का नाम था- चार्ली उसकी निर्भीकता, बहादुरी तथा खुशमिजाजी पर सभी मुग्ध थे। उसे सम्मान भी खूब मिला और वेतन भी भरपूर।

चार्ली नौकरी पूरी करके रिटायर हुआ तो उसे बहुत पैसा मिला। इस धन से उसने एक बड़ा कृषि फार्म खरीदा और शेष जीवन वहीं रहकर शान्तिपूर्वक बिताया। मरने के उपरान्त अन्त्येष्टि के समय ही लोगों को यह पता चला कि चार्ली नाम से प्रख्यात वह योद्धा नर नहीं वस्तुतः एक नारी थी, जिसने आजीवन अपने वास्तविक स्वरूप को छिपाए रखा।

जेम्स रॉड थी तो महिला पर उसमें नारी सुलभ कोमलता का नाम भी नहीं था। वह मन से मर्द थी और मर्दानगी के साथ ही जीना चाहती थी। उसे नाविक का काम पसन्द आया। वह जोखिम भरा था। उसमें तगड़े और बहादुर प्रकृति के लोग ही भर्ती हो सकते थे। जेम्स रॉड ने अपने असली रूप को छिपाने का लगातार अभ्यास करके प्रवीणता प्राप्त कर ली। उसे प्रकृति ने कद भी ऐसा ही दिया। पाँच फुट साढ़े नौ इंच ऊँची तथा 180 पौण्ड भारी होने के कारण 16 वर्ष की उम्र में ही वह परिपक्व लगने लगी और प्रतिद्वन्द्विता में कितने ही जवानों को हराकर जलयान चलाने वालों में भर्ती हो गई। मर्दानी आवाज, नकली मूँछ- किसी को सन्देह तक न होता था कि वह नारी है। एक बार तो वह कप्तान तक से झगड़ पड़ी और धक्का मारकर उसे औंधे मुँह गिरा दिया। तेज-तर्रार स्वभाव होने के कारण सभी उसका लोहा मानते थे। साथियों में वह अग्रणी गिनी जाती।

किसी प्रकार भेद खुल गया और चर्चा होने लगी। उसने नौकरी छोड़ दी और नाम बदलकर दूसरे जहाज में नौकरी कर ली। बाद में उसका रहस्य वर्षों तक छुपा ही रहा। ब्रिटेन में इसी प्रकार वेष बदलकर नौसेना के लड़ाकू जहाज पर लम्बी अवधि तक नौकरी करने वाली एक अन्य महिला मैडम कोली हुई हैं। वे भी पूरी अवधि तक नौकरी करके निवृत्त हुईं और किसी को असली भेद का पता न चलने दिया। बात तब प्रकट हुई जब वृद्धावस्था में उसने नाविकों के लिए एक जलपान गृह खोला। तब भी वह अपने वस्त्र मर्दों जैसे ही पहनती रही।

जर्मनी के प्रसव विशेषज्ञ डॉ. रुडोल्फ ग्रेइत्स ने जब देखा कि उन दिनों इस विषय की प्रवीण महिला डाक्टर उपलब्ध नहीं है और इस कारण अनेकों प्रसूताओं को अपनी जान गँवानी पड़ती है तो उनने महिला डाक्टर के रूप में एक अपरिचित स्थान में नौकरी कर ली। बहुत समय बार भेद खुलने पर उसे वह नौकरी छोड़नी पड़ी। तब तक अन्य कुशल चिकित्साएँ तैयार हो चुकी थीं।

प्राणी की आरम्भिक सत्ता नर या नारी के रूप में पूर्व निर्धारित नहीं होती। वह परिस्थितिवश इस विभाजन में से एक को अपनाती है। भ्रूणावस्था के आरम्भिक दिनों में प्राणी लिंग रहित होता है अथवा उसे उभयलिंगी भी कह सकते हैं। प्रगति के उपरान्त ही वे चिह्न उभरते हैं जिसके आधार पर उसकी अमुक वर्ग में गणना की जा सके। अविकसित प्राणियों में से अनेकों उभयलिंगी होते हैं और आवश्यकतानुसार अपना रूप बदलते रहते हैं। किन्तु विकसित प्राणियों में भी यह स्थिति देखी गई है। इस उभयलिंगी स्थिति को विज्ञान की भाषा में ‘हर्माफ्रोडाइट’ कहा जाता है। इस शब्द के पीछे वह ग्रीक गाथा जुड़ी हुई है जिसमें ‘हर्माफ्रोडाइस’ नामक युवक का सल्पाइसिस नामक जलपरी के साथ प्रणय हो गया और वे दोनों देवताओं के अनुग्रह से एक दूसरे में समा गए। फलतः वह संयुक्त शरीर ‘हर्माफ्रोडाइट्स’ कहलाया। उसमें उभयलिंगी चिह्न थे।

ऐसे व्यक्तियों में नर-नारी की भिन्नता करने वाले दोनों ही प्रकार के अवयव पाए जाते हैं। जब वे बड़े होने लगते हैं तो दोनों का ही विकास होता है। इनमें से एक प्रधान होता है, दूसरा गौण। पुरातन काल में तो इसमें हेर-फेर की गुँजाइश नहीं थी पर अब यह सम्भव है कि विकसित पक्ष को बढ़ने देने के लिए अविकसित भाग को ऑपरेशन से हटा दिया जाय।

उभयलिंगी अपवादों के कारण और विवरण प्रस्तुत करते हुए तद्विषयक अनुसन्धानी जेम्स कोलमैन ने एक ग्रन्थ लिखा है- “एबनार्मल साइकोलॉजी एण्ड मॉडर्न लाइफ”। इसमें जहाँ उदाहरणों का विवरण है वहाँ उनमें से प्रत्येक में पाई जाने वाली एक दूसरे से भिन्नता का भी उल्लेख है। कोलमैन लिखते हैं कि ऐसे लोगों में दोनों प्रकार की यौन भावनाएँ पाई जाती हैं जो अवसर पाने पर इस या उस ओर लुढ़कती रहती हैं।

फ्रेडरिक ड्रिमर ने उभयलिंगी अपवादों की विशेष विवेचना करते हुए एक पुस्तक लिखी है- “वेरी स्पेशल पीपुल”। उसमें भूतकालीन तथा अर्वाचीन ऐसे उदाहरणों की चर्चा है जिनमें यौन दृष्टि से पाई जाने वाली विलक्षणताओं पर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक में ‘वाकी वार्क’ नामक एक व्यक्ति की विस्तार पूर्वक चर्चा की गई है। उसका आधा शरीर नारी का और आधा पुरुष का था। दोनों ही लक्षण पूर्णतया स्पष्ट तथा सुदृढ़ थे। उसका नाम इसी आधार पर रखा गया था। बाकी (नारी) कार्क (नर) का संयुक्तिकरण होने की बात इस नाम से प्रकट होती है।

यह व्यक्ति लन्दन में एक कार्निवाल का प्रमुख आकर्षण था। दर्शकों की भीड़ में से अधिकाँश उसी को देखने के लिए आते थे। प्रकृति की इस अद्भुत ठिठोली को देखकर सभी आश्चर्यचकित होकर लौटते थे जिन्हें इसमें किसी जालसाजी की आशंका होती थी उनके सन्देह निवारण के लिए अतिरिक्त फीस देने पर पीछे के कमरे में उसे वस्त्र रहित स्थिति में देखने यहाँ तक कि छूकर वस्तुस्थिति समझने की भी सुविधा थी। अन्ततः इस सन्देह का पूर्णतया निराकरण हो गया था और सभी यह विश्वास करने लगे थे कि वह पौराणिक अर्धनारी-नटेश्वर का जीवन्त उदाहरण है।

न्यूयार्क के डाक्टर लियोवल मैन ने अपने एक मरीज का आश्चर्यजनक उल्लेख किया है। मेट्रोपोलिटन क्षेत्र के एक 40 वर्षीय गृहस्थ को एक रोग विशेष के लिए फिमेल हारमोन इन्जेक्शन दिये गए। उससे रोगमुक्ति के अतिरिक्त एक विशेष परिणाम और देखा गया कि उस व्यक्ति के स्तन उभर आये और उनमें से दूध बहने लगा। इस पर उसने उस दूध को अपनी छोटी बच्ची को पिलाना आरम्भ कर दिया तो तीन मास तक पीती रही। यह हारमोन वह था जो दूध बढ़ाने के लिए प्रायः पशुओं को दिया जाता है।

फ्राँस में अठारहवीं सदी के अंत में एक रेनी बोदेयूँ नामक महिला हुई है। उसके परिवार के 42 व्यक्तियों को एक आक्रमणकारी दल द्वारा बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। रेनी ने बदला लेने की ठानी। बन्दूक प्राप्त करने और निशाना साधने का अभ्यास करने के लिए पुरुष वेष बनाकर वह सेना में भर्ती हुई। युवावस्था से लेकर बुढ़ापे तक वह अपने को चतुरता के साथ छिपाए रही और किसी को यह पता न चलने दिया कि वह नर नहीं नारी है।

ये उदाहरण व अनेकानेक वैज्ञानिक प्रमाण बार-बार इस तथ्य को सत्यापित करते हैं कि शरीर संरचना प्रधान नहीं। इस दृष्टि से नर-नारी में भेद किया भी नहीं जाना चाहिए। नारी की मूल थाती उसका स्नेह-सौजन्य से लबालब अन्तःकरण है। अपने को वरिष्ठ न मानकर यदि परस्पर सहकार का स्वरूप बन पड़े तो समाज में दोनों शक्तियों का सहयोग मिलता रह सकता है।


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