अपनों से अपनी बात - गायत्री मन्त्र न तो अशुद्ध है, न ही झूठा

May 1983

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पुष्प उद्यान में गुणग्राही बुद्धि, पुष्पों की शोभा देखती है, सुगन्ध का आनन्द लेती है तथा सुरभित वृक्षों की छाया में बैठकर आनन्द लेती हे। गुणग्राही जब लौटता है तो उसे उद्यान की शोभा का भी स्मरण रहता है और उसके निर्माता, माली तथा प्रयास की सराहना भी करता रहता है।

इसके विपरीत दोषदर्शी बुद्धि को उसमें पग-पग पर कमियाँ-खराबियाँ और बुराइयां दीख पड़ती हैं। यहाँ तक कि उसके निर्माता, संरक्षकों में भी इस प्रयास के पीछे कोई दुरभिसन्धि दीख पड़ती है। भौंरे, तितली, मधुमक्खी, कोयल स्तर के प्राणी उस रसास्वादन में निरत रहते हैं। जितना समय उस क्षेत्र में बीतता है, उसे सौभाग्य मानते हैं। किन्तु एक अन्य प्रकार के कीड़े भी उसी क्षेत्र में रहते हैं जिन्हें खाद गोबर की ही तलाश रहती है। खोजने पर हर जगह हर चीज मिल जाती है। सर्वथा निर्दोष तो इस संसार में कुछ भी नहीं है। भगवान, देवता, ऋषि, महामानव तक में खोट ढूंढ़े जा सकते हैं। पुष्प वाटिका में भी कहीं न कहीं खाद गोबर कूड़े-कबाड़ का अस्तित्व रहता है। उसे ढूँढ़ निकालने पर वे यह भी कह या सोच सकते हैं कि बगीचे में दुर्गन्ध के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। पुष्पों की आरे से मुँह मोड़ लेने पर वे दीखते भी कहाँ हैं।

गायत्री मन्त्र को भी कहने वाले शब्द रचना की दृष्टि से अशुद्ध, छन्द शास्त्र की दृष्टि से दोगला और परिणाम की दृष्टि से झूठा भी कह सकते हैं, पर ध्यान पूर्वक देखने से वे तीनों ही आक्षेप निस्सार प्रतीत होते हैं। ऋचाओं के सृजेताओं को इतना भी ज्ञान न रहा हो, ऐसी बात नहीं है। उनने वेद मन्त्रों की संरचना में जहाँ शब्द, छन्द, अर्थ का ध्यान रखा है, वहाँ मुख्यतया उसकी परिणति को भी ध्यान में रखा है। गायत्री की प्रेरणा तथा उपासना की परिणति ऐसी नहीं है जिसे भ्रान्त एवं निरर्थक कहा जा सके। दूर से तो तारे भी जुगनूँ जैसे दीखते हैं। समीपता अथवा जानकारी की गहराई बढ़ते जाने पर ही यह प्रतीत होता है कि वे उतने छोटे नहीं हैं जितने कि सामान्य दृष्टि से प्रतीत होते थे। गायत्री की गरिमा के सम्बन्ध में भी यही बात है। त्रुटि वेद मन्त्र में नहीं उसके प्रयोक्ताओं, पर्यवेक्षकों में हो सकती है। संशोधन उसी का होना चाहिए। न कि मूल मन्त्र का।

गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में आपत्ति उठाने वाले नासमझों को मात्र व्याकरण के आधार पर ही नहीं- शास्त्र, तर्क, तथ्य, दर्शन आदि सभी प्रमाणों के आधार पर यह बताया जा सकता है कि ऐसा विचार मात्र करना कितनी बड़ी दुर्बुद्धि का परिचायक है। यदि हम पहले व्याकरण पक्ष को ही लें तो कुछ पृष्ठभूमि भी पाठक समुदाय को समझनी होगी।

ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में वेदार्थ की गूढ़ता और उसे समझने की क्षमता के सम्बन्ध में कहा गया है कि उन्हें आत्मसात् करने के लिए परिष्कृत प्रज्ञा की आवश्यकता है। साधारण भाषा ज्ञान से उस प्रयोजन की पूर्ति ठीक प्रकार से होती नहीं। इस संदर्भ में उल्लेख है- “वेदों की व्याख्याओं के विषय में ऐसा समझना कि जब तक सत्य प्रमाण सुतर्क, वेदों के शब्दों का, पूर्वा पर प्रकरणों, व्याकरण आदि वेदांगों- शतपथ आदि ब्राह्मणों पर्व मीमाँसादि शस्त्रों-शास्त्रान्तरों का यथावत् बोध न हो और परमेश्वर का अनुग्रह, उत्तम विद्वानों की शिक्षा, उनके संग से पक्षपात छोड़कर आत्मा की शुद्धि न हो तथा महर्षि गणों के किए व्याख्यानों को न देखें तब तक वेदों के अर्थ का यथावत् प्रकाश मनुष्य के हृदय में नहीं होता।” -(विश्वामित्र संहिता)

वेदार्थ मात्र संस्कृत शब्दों का तात्पर्य एवं व्याकरण विद्या मात्र के आधार पर सही रूप में प्रकट नहीं होता। उसके रहस्यों को यदि भाषा के आधार पर जानना हो तो भी पद रचना, वर्ण संख्या, पद क्रम, स्वर सन्धान, ध्वनि जैसी विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए ही उस रहस्य को समझा जा सकता है, जो सृजेताओं ने उन शब्द गुँथनों में सँजोया है।

यास्क निरुक्त के (अ. 13 ख. 12) में उल्लेख है-

“न हि एषु प्रत्यक्षमस्ति अनषः अतपसो वा, पारोवर्योवत्सु तु वेदितृषु भूयः विद्यः प्रशस्यः भवति।”

अर्थात्- ऋषियों जैसे ज्ञान-विज्ञान के बिना उच्चस्तरीय तप तथा अध्यवसाय के बिना वेदमन्त्रों का अर्थ प्रत्यक्ष नहीं होता। वेदज्ञों में भी जिनकी ज्ञान साधना जितनी समृद्ध होती है, वे उसी अनुपात से रहस्यों को समझ पाते हैं। उनका ज्ञान उतना ही प्रशंसनीय होता है।

वस्तुतः श्रुति को सर्वथा छन्द परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। ऋचाएँ व्याकरण और छन्द नियमों से ऊपर हैं। व्याकरण के प्रस्तोता महर्षि पाणिनी ने वेदों को अपौरुषेय माना है। उन्होंने यह अभिमत व्यक्त किया है कि जहाँ कहीं भी वेद संरचना एवं व्याकरण विधा के मध्य व्यवधान उत्पन्न होने की स्थिति आए, वहाँ श्रुति संरचना को ही सही मानने का अभिमत व्यक्त किया है।

“छंदासि दृष्टत्वात् शुद्धम्”। अर्थात् जहाँ कहीं उनने व्याकरण की परिधि के बाहर वाक्यों का उपयोग देखा उसे वेद से शुद्ध माना। इतना ही नहीं इसके लिए उन्हें कई वाक्यों के वैदिक प्रयोग के लिए अलग से सूत्रों की संरचना करनी पड़ी। उपरोक्त कथन में भी इसी निर्णय का प्रकटीकरण हुआ है।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि वेद पहले बने- व्याकरण बाद में। श्रुति अपौरुषेय है एवं अनादि है। शब्द शास्त्र का विस्तार होने के उपरान्त उन्हें क्रमबद्ध बनाने की दृष्टि से व्याकरण एवं छन्द शास्त्र की रचना हुई है। न कि छन्द शास्त्र पहले बना और वेद बाद में। कितने ही ऋचा खण्ड ऐसे हैं जो वर्तमान व्याकरण के हिसाब से सही नहीं बैठता तो भी उनकी श्रेष्ठता एवं मान्यता में कोई अन्तर नहीं आता। उदाहरण के लिए ‘सत्यमेव जयते’ शब्द को लिया जा सकता है। व्याकरण के अनुसार इसे ‘सत्यमेव जयति’ होना चाहिए था। यह विवाद का प्रश्न नहीं बनाया जाना चाहिए। भाव उनके पीछे क्या है, उसे महत्व मिलना चाहिए, सद्बुद्धि यही कहती है।

गायत्री मन्त्र में प्रयुक्त तत् शब्द एक प्रकार से तो नपुँसक लिंग ठहरता है, पर उसकी व्युत्पत्ति तथा पदच्छेद दूसरे प्रकार से किये जाने पर वैसी स्थिति नहीं रह जाती और सहज समाधान हो जाता है।

“तंदित्यत्त्र सुयां सुलुगिति षष्टयलुक्” इस व्याकरण के अनुसार तत् पद को नपुँसक लिंग नहीं माना जा सकता। यहाँ तत् की व्याख्या तस्य की गयी है। लिंग व्यत्यय के अनुसार भी समग्र व्याख्या बनने पर अर्थ इस प्रकार निकलता है- “हम ‘तत्’ उस भर्ग (तेज) का ध्यान करते हैं।” यहाँ मन्त्र के यः वर्ण की यत् के रूप में व्याख्या की जानी है। ये सभी प्रमाण बताते हैं कि प्रचलित गायत्री छन्द पूर्णतः विशुद्ध एवं व्याकरण सम्मत है। इस सम्बन्ध में जो भी व्याकरण का सहारा लेकर जनमानस को गुमराह करने का प्रयास करते हैं, उनकी बुद्धि को क्या कहा जाय?

जिस ढंग से पदच्छेद कर तत् को नपुँसक लिंग ठहराया जाता है उसे अन्य दो ‘सर्वनाम’ शब्दों के साथ जोड़कर विसंगति बताई जाती है- यदि उस पदच्छेद के स्थान पर दूसरी प्रकार से उसका पदच्छेद किया जाय तो यह झंझट अनायास ही समाप्त हो जाता है। एक ही पदच्छेद का आग्रह करना असंगत है, कुतर्क है। अन्य पदच्छेद भी उसी प्रकार मान्य हो सकते हैं। ऐसे कुछ शुद्ध पदच्छेद इस प्रकार हैं।

1) ॐ भूर्भुवः स्वः धीमहि तत् वरेण्यं भर्गो देवस्य सवितुद् यः प्रचोदयात् नः धियः (2) तत् धियो यः नः प्रचोदयात् भर्गो देवस्य सवितुद् वरेण्यं धीमहि (3) देवस्य सवितुर यो भर्गो नः धियो प्रचोदयात् वरेण्यं धीमहि (4) तत् सवितुर वरेण्यं भर्गो देवस्य यः नः धियो प्रचोदयात् धीमहि।

‘तत्’ के स्थान पर ‘तस्य’ रखने का सुझाव देना वेदों के आदि सृजेताओं को पाठ पढ़ाने के सदृश है। ऐसे प्रस्ताव रखने वाले अपने आपको वेद सृजेताओं से अधिक विद्वान होने का दावा करते हैं। न जाने उनकी अहमन्यता कहाँ तक सही है?

वैसे तत् शब्द से ऐसी कोई अड़चन नहीं उत्पन्न होती, जिससे उसे बदलने की आवश्यकता पड़े। संस्कृत व्याकरण के सामान्य जानकार भी समझते हैं कि “तस्य सवितुः” का समास संयोग भी “तत्सवितु” ही बनता है। ऐसी स्थिति में हम तो यही कह सकते हैं कि ‘तत्’ के स्थान पर तस्य या ‘तम्’ कर देने, ‘यो’ के स्थान पर यद् कर देने का प्रस्ताव करने वालों के सम्मुख वेद रचयिता ऋषियों को जाना चाहिए और कहना चाहिए कि उन्हें इतना भी नहीं आता था तो इन प्रस्तावकों के पास जाकर व्याकरण एवं छन्द शास्त्र पढ़ते। जब कुछ पढ़ लिख जाते तब कहीं यह साहस करते कि वेद सृजन का साहस जुटायें। इसे व्यंग्य न मानकर यथार्थ माना जाय और उस अन्तर्वेदना की अनुभूति की जाय जो किसी भी उचित शब्द के तोड़-मरोड़ कर गाली-गलौज के रूप में प्रयुक्त होने पर किसी को भी होती है।

इसी प्रकार गायत्री महामन्त्र में प्रयुक्त हुए शब्दों में लिंगभेद की गलती निकालना भी अनुपयुक्त है। भर्ग शब्द को साधारण संस्कृत में पुल्लिंग माना गया है पर वैदिक कोषों में उसे संज्ञा, सर्वनाम एवं नपुँसक लिंग भी निरूपित किया गया है। सायण भाष्य के अनुवर्ती मैक्डॉनल की संस्कृत डिक्शनरी में ‘भर्ग’ का अर्थ करते हुए लिखा गया है- भर्गोः वैदिक, पु. एफल्जैन्स (ज्योतिर्मयो), वैदिक शब्द नपुँसक लिंग- ग्लोरियस (गौरवशाली, तेजस्वी)। उसे डा. विश्व बन्धु ने भी माना और उद्धृत करते हुए अपना प्रस्तुतीकरण किया है।

गायत्री महामन्त्र में तेईस अक्षर होने की बात कहकर कई व्यक्ति उसकी छन्द रचना को अशुद्ध मानते हैं और लगभग झूठा आदि तक कहने लगते हैं। वस्तुतः उसमें छन्द रचना की दृष्टि से न तो कोई दोष है और न ही व्याकरण की अशुद्धि।

वेदों में अनुष्टुप, त्रिष्टुप, जगती, बृहती, पंक्ति, गायत्री आदि अनेकों छन्दों का प्रयोग हुआ है। इनमें से प्रत्येक के कई-कई भेद हैं। उपरोक्त छन्दों को एक वर्ग समझा जा सकता है और उनके भेदों को उप वर्ग की संज्ञा दी जा सकती है। छन्दों की संख्या सीमित कर देने की दृष्टि से एक बड़े वर्ग के अंतर्गत छोटे उपभेदों का समावेश कर दिया गया है।

गायत्री भी एक छन्द वर्ग है। उसके कितने ही भेद-उपभेद-उपवग हैं। यथा-गायत्री छन्द-निचृद् गायत्री छन्द, आर्षी, आसुरी, विराड् गायत्री, विराडार्थी गायत्री, निचृटार्षी, स्वरा ढन्नाभार्षी, प्रजापात्या, भूरिग्, भूरिग्त्रिपाद, वर्धमाना, पिपीलिका मध्या, निचृद् गायत्री आदि, आदि। यह सभी गायत्री भेद हैं। इनमें जो थोड़ा-थोड़ा अन्तर है, उसके रहते हुए वे एक ही समान गायत्री के अंतर्गत आते हैं। इन भेदों के कारण उनका कोई अन्य छन्द नहीं बन जाता। वे एक परिवार से निकलकर सर्वथा स्वतन्त्र नहीं बन जाते। गायत्री में 23 अक्षर होने से वह निचृद् उपवर्ग में तो आता है, पर इससे उसमें अशुद्धि होने जैसी कोई बात नहीं है।

गायत्री के तीन चरण हैं। अक्षर गणना के अनुसार प्रथम पाद में सात और द्वितीय-तृतीय पाद में आठ-आठ अक्षर हैं। एक अक्षर का झंझट “ण्यं” शब्द में है। उसे एक गिन लिया जाय तो ही सात अक्षर होते हैं। अन्यथा उसे ध्वनि के अनुरूप वर्गीकृत किया जाय तो संख्या पूरी आठ हो जाती है।

आद्य शंकराचार्य ने इस पाद का पदच्छेद इस प्रकार किया है। (1) तत् (2) स (3) वि (4) तुः (5) व (6) रे (7) णि (8) यम्। उनके मत से ध्वनि गणना के अनुसार 24 अक्षर पूरे हो जाते हैं।

‘मन्त्रार्थ चन्द्रोदय’ (पृष्ठ 33) पर ‘ण्यं’ के शब्द में ऐसा ही अभिमत व्यक्त किया गया है और भ्रांति निवारण के सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट प्रस्तुतीकरण किया गया है-

‘तत्र वरेण्य-मित्यत्र वरेणियं इति व्यूहेन पाद पूरणम् तदुक्तं पिंगलेन पाद इत्यधिकृत्य’ इयादि पूरण इति।

अर्थात्- पिंगल शास्त्र में वरेण्यं नामक शब्द के अन्तिम भाग में इय जोड़ने से आठ अक्षरों का प्रथम चरण शुद्ध हो जाता है। अर्थात् “तत् सवितुर्वरेणियम्” इसका अर्थ यही हुआ कि छन्द शस्त्र की दृष्टि से भी गायत्री मन्त्र शुद्ध गायत्री छन्द है।

ऋचाओं की संरचना मात्र अर्थ प्रधान ही नहीं है, उनमें स्वर विज्ञान के अनुरूप शब्द गुँथन भी एक तथ्य है। शब्द क्रम के अनुसार छन्द संरचना होती है। सितार के तारों की तरह एक के बाद दूसरों के झनझनाने से, जो स्वर लहरी उत्पन्न होती है, उसके प्रभाव परिणाम का रचनाकारों ने ध्यान रखा है। स्वर शास्त्री जानते हैं कि कई बार अमुक राग प्रवाह उत्पन्न करने के लिए शब्दों को दीर्घ से ह्रस्व और ह्रस्व से दीर्घ भी करना पड़ता है। ऋचा में स्वर विद्या का रहस्य अर्थ से भी अधिक है। गायत्री के सृजेता ने ‘ण्यं’ शब्द के लेखन और उच्चारण में जो अन्तर रखा है, उसमें स्वर विज्ञान के रहस्य समाहित है। ऐसा मात्र गायत्री में ही नहीं, अन्यान्य मन्त्रों में भी हुआ है। स्वर के अनुरूप ही शब्द गुँथन को यहाँ विशेष महत्व दिया गया है। यहाँ पर ण्य शब्द का स्वर विज्ञान वाला पक्ष प्रबल मानते हुए ही उसे इस प्रकार रखा गया है।

गायत्री छन्द नाम से वेदों में कितने ही मंत्र हैं। किन्तु ‘वरेण्य’ वेदमाता गायत्री का नामकरण उसमें प्रयुक्त हुए छन्द के आधार पर नहीं हुआ है। उसको गय=प्राण, त्री=त्राणकर्त्री क्षमता के आधार पर यह नाम दिया गया है। यह विशेषता इस स्तर के अन्य छन्दों में नहीं है। इसलिए उन्हें गायत्री नाम से नहीं पुकारा जाता। बृहती जिसे अन्य छन्दों के आधार पर किसी भी वेदमंत्र को पुकारा नहीं जाता। फिर गायत्री के नाम से यह एक मन्त्र ही क्यों प्रख्यात हुआ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि उसकी प्राण सम्बर्धिनी शक्ति को विशेष महत्वपूर्ण माना गया है और उस विशेषता की जानकारी देने की दृष्टि से ही इसको वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता- त्रिपदा का मान दिया गया है। अन्य छन्दों को यह सम्मान प्राप्त नहीं।

द्वैतवाद के प्रस्तोता जी. माध्वाचार्य ने वेदार्थों की गम्भीरता एवं गरिमा के सम्बन्ध में कहा है-

“गुणाधिक्यं भवेद् येन, वेदस्यार्थ स एवहि। प्रयोजकत्वात् नान्यस्य, कलाभावात्त दर्थता॥”

अर्थात्- “भावार्थ से नहीं, वेदों की रहस्यमयी गरिमा उनके स्वर, मात्रा, वर्ण, पद, पद्याँश, चरण आदि की संगति बिठाते हुए ही समझी जा सकती है। मात्र शब्दार्थ भर से उसकी वास्तविकता का बोध नहीं होता।” यह कथन कितना सटीक है, इसमें किसी को कोई सन्देह नहीं होना चाहिए।

इतना कुछ कह लेने पर गायत्री मन्त्र के पाप नाशक होने सम्बन्धी विवाद को सुलझा लेना भी उचित होगा। किसी भी मन्त्र को मात्र रटते रहने या मुख से उच्चारण कर व्यवहार को यथावत् बनाये रखने पर बदला जा सकता है, इस मान्यता को सर्वथा निर्मूल करना चाहिए। गायत्री मंत्र की प्रेरणा ही कुछ ऐसी है कि उसके भाव को आत्मसात करने पर व्यक्ति पापों की ओर- दुष्कृतों की ओर- उन्मुख नहीं होता।

गायत्री उपासना से पाप नाश होने या सुख शांतिदायक पुण्यफल प्राप्त होने की फलश्रुति के साथ इतना संकेत और भी जुड़ा हुआ है कि उस आधार पर उपलब्ध होने वाली प्रेरणा को जीवनचर्या में सम्मिलित किया जाय। व्यवहार क्रम में उतारा जाय। इसका अधिक स्पष्टीकरण इसलिए नहीं किया गया है कि पुरातन काल में इस तथ्य से तो सभी अवगत थे कि आदि और अन्त के संकेत करने पर उसकी मध्य शृंखला का अनुमान सामान्य ज्ञान के आधार पर ही हर कोई लगा लेता है।

स्कूल में प्रवेश- स्नातकोत्तर सम्मान। व्यायामशालाओं में भर्ती- प्रख्यात पहलवान। खेत में बीजारोपण- कोठे भरने वाली फसल। भूमि पूजन-भव्य भवन। व्यवसाय आरम्भ- समृद्धि का स्वप्न। इस प्रकार के कथन ही आमतौर से कहे सुने जाते हैं। इतना अनुमान सहज ज्ञान के आधार पर लगाया जा सकता है कि आदि और अन्त के बीच मध्य भी होता है। भूमि पूजन भर से भवन नहीं बन जाता। उसके लिये श्रम साधन जुटाने होते हैं। बीज बोते ही कोठे नहीं भर जाते वरन् लम्बे समय तक खाद, पानी, निराई, गुड़ाई, रखवाली आदि का भी प्रबन्ध करना होता है। विद्यार्थी स्कूल में प्रवेश लेने भर से अफसर कहां बन जाता है। मध्यान्तर का विशेष वर्णन न करने पर तो यह अनुमान लगा पाना भी सम्भव नहीं। विवाह-संस्कार फले-फूले, गृहस्थ जीवन का स्वर्णिम स्वप्न देखा जाय, यह तो ठीक है। किन्तु उसके बीच पति-पत्नी का निरन्तर कर्त्तव्य-पालन भी एक तथ्य है। इसे भले ही विस्तृत रूप में वर्णन किया न जाय पर उसकी जानकारी तो रखनी ही चाहिए।

यह हो सकता है कि कोई प्रयोक्ता या आलोचक-मध्य शृंखला को प्रयोग में आने की उपेक्षा होती देखकर यह अनुमान लगाने लगे कि मध्य शृंखला का कोई विधान ही नहीं है। मात्र आदि अन्त ही सब कुछ है। इस भ्रान्ति के कारण जो भी रहे हों, इससे प्रभावित कोई कितना भी क्यों न हो, तथ्य यही है कि मध्यान्तर की व्यवस्था करने पर ही लक्ष्य पूर्ति होती है। गायत्री मन्त्र का भावार्थ दृष्टि में रखें तो यही तथ्य उसमें सन्निहित दीख पड़ता है।

गायत्री में सद्बुद्धि की- महाप्रज्ञा की आराधना है। उपासक उसका जप मात्र ही न करें वरन् प्रचोदयात्- प्रेरणा भी ग्रहण करें। उस अनुशासन के अनुरूप उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र एवं उदात्त व्यवहार का भी अभ्यास करें तभी वह प्रक्रिया पूरी होती है जिसके आधार पर उपासना का महत्व एवं माहात्म्य वर्णित किया जाता रहा है। निश्चय है कि गायत्रीमय जीवनचर्या अपनाने पर व्यक्तित्व में उत्कृष्टता का समावेश होगा और उस प्रक्रिया में संलग्न व्यक्ति को प्रगति, समृद्ध, संस्कृति एवं सुख शान्ति जैसे प्रतिफलों से लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा।

यह बात पाप नाश के सम्बन्ध में भी है। पाप नाश से तात्पर्य क्रियमाण भले-बुरे कृत्यों का फल न मिलने से नहीं, वरन् यह है कि कुकृत्यों में लगाने और नरक यातनाओं में संत्रस्त करने वाली दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा मिलेगा। सत्प्रेरणा के- सद्बुद्धि के आधार पर सत्प्रेरणा अपनाने वाले को पाप नाश एवं नारकीय प्रवृत्तियों से छुटकारे का लाभ मिलना ही चाहिए।

कितने लोग पालन करते हैं, कितने नहीं, यह प्रश्न सर्वथा दूसरा है, उसमें सिद्धान्त को झुठलाया नहीं जा सकता। प्रयोक्ताओं की ना समझी या अवहेलना की ही भर्त्सना की जा सकती है। रिश्वतखोरी का कानून है, उसे लोग पालते नहीं, इस कारण उस कानून निर्धारण पर दोष नहीं लगाया जा सकता। अवहेलना करने वालों की ही निन्दा की जा सकती है। भले ही वह अवहेलना ना समझी के कारण की जा रही हो अथवा जान बूझकर वैसा किया जा रहा हो। गायत्री का समय स्वरूप तब बनता है जब उसका शास्त्रोक्त उपासना परक ही नहीं, मन्त्र में सन्निहित प्रज्ञा प्रेरणा पक्ष भी अपनाया जाय और सत्प्रवृत्तियों के रूप में उसे जीवनचर्या का अविच्छिन्न अंग भी बनाया गया। ( क्रमशः )


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