गायत्री साधना की सफलता का विज्ञान

May 1983

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वाणी का उपयोग सामान्यतः जानकारियों के आदान प्रदान तक ही सीमित है। इस आदान-प्रदान में शब्द ही उच्चारित होते हैं। शब्दों को वाणी का प्राण कहा जा सकता है अन्यथा अकेले वाणी कुछ भी करने में, कोई भी जानकारी दे पाने में असमर्थ ही है। शब्द या ध्वनि सुनकर ही कई बातों का पता चलता है। पैरों की चाप ध्वनि के रूप में होती है, जिसे सुनकर पता चलता है कि अमुक प्राणी आ रहा है। बादलों की गड़गड़ाहट, हवा की सनसनाहट, पत्तों की खड़खड़ाहट सुनकर बिना देखे भी बहुत कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। मुंह की आवाज सुनकर यह पता चलता है कि यह शब्द किस प्रणी का है? और वह कहाँ है? बातचीत से घटनाओं, परिस्थितियों एवं समस्याओं की जानकारी मिलती है। सामान्यतया शब्दोच्चार जानकारी के आदान-प्रदान में ही प्रयुक्त होता है। उसकी इतनी ही बौद्धिक उपयोगिता है। स्कूलों में, कारखानों में, यात्राओं में, व्यवसाय में, कुटुम्ब में, मित्रों में प्रायः इसी प्रकार का वार्तालाप होता पाया जाता है।

इस प्रकार सामान्यतः शब्द जानकारी के आदान-प्रदान की मस्तिष्कीय आवश्यकता को ही स्थूल रूप में पूरा करता है। यह आवश्यकता पूर्ति स्थूल रूप में तो कम होती है, विशेष स्थिति वह है जिसमें जानकारी के आदान-प्रदान की मस्तिष्कीय आवश्यकता तो कम पूरी होती है, पर उसमें अन्तरात्मा की भाव सम्वेदनाएँ पर्याप्त मात्रा में जुड़ी रहती हैं। ऐसे शब्दों को गान कहते हैं। स्थूल शरीर हलचलें करता है और आवाज निकालता है। सूक्ष्म शरीर शब्द द्वारा जानकारियों का आदान-प्रदान करता है। कारण शरीर की सत्ता भावपरक है। जब अन्तःकरण बोलता है तो उसमें भावनाएँ भरी रहती हैं। इसे ही आध्यात्मिक अर्थों में ‘गान’ कहा जाता है।

सामान्यतः ‘गान’ शब्द से गीत का आशय लिया जाता है। शब्दों को लयबद्ध करके गाया या गुनगुनाया जाना, उसमें भावनात्मक मस्ती का जुड़ा रहना ही ‘गान’ है। इसे और भी अधिक सुसंस्कृत किया जाता है तो ताल-स्वर आदि का समावेश हो जाता है। उस स्थिति में इसे छन्द नाम दिया जाता है। काव्य या कविता भी इसी लयबद्ध भाव प्रवाह को कहते हैं। उसे जब वाद्य यन्त्रों के साथ मिला दिया जाता है तो संगीत बन जाता है। वेदों की ऋचाएँ छन्द कही जाती हैं। मन्त्रों में गान की इन विशेषताओं के साथ शब्द-गुँथन का भी असाधारण महत्व है।

इस विशेषता के कारण ही मन्त्र सामर्थ्यवान् बनते हैं और अभीष्ट चमत्कार उत्पन्न करते हैं। गायत्री मन्त्र को ही लें। उसका शब्दार्थ बहुत सामान्य-सा है, तेजरूप भगवान से सद्बुद्धि की याचना भर उसमें की गई है। इस अर्थ की बोधक अनेक कविताएँ प्रायः सभी भाषाओं में मौजूद हैं अथवा बन सकती हैं। किन्तु इनका वह प्रभाव नहीं हो सकता जो गायत्री मन्त्र का होता है। कारण यही है कि उन कविताओं में शब्द विज्ञान और भाव विज्ञान का उतना अद्भुत समन्वय नहीं है और सूक्ष्मदर्शी तत्त्ववेत्ताओं की विशेष मनःस्थिति में ही ऐसे दिव्य अवतरण सम्भव होते हैं। इसलिए वेदमन्त्रों की संरचना को ‘अपौरुषेय’ कहा गया है।

गायत्री शब्द का सामान्य अर्थ भी यही है कि जो गाई जाने पर अपना चमत्कार प्रस्तुत करे। इस तथ्य को प्रामाणित करने वाले अनेकों प्रमाण मौजूद हैं। यहाँ गायन का अर्थ संगीत से नहीं, वरन् उस मनःस्थिति में उपासना क्रम चलाने से है जो भावनापूर्वक, भावभरी मनःस्थिति में चलाया जाता है। साधक के अन्तस् में मस्ती छाई रहनी चाहिए और बेगार भुगतने की तोता रटन्त की तरह नहीं, अपितु भाव तरंगों में लहराते हुए उसे गाया गुनगुनाया जाना चाहिये। जिह्वा का शब्दोच्चार मात्र तो बकवास कहलाता है। अन्य प्राणी, छोटे बच्चे अथवा अविकसित मस्तिष्क वाले प्रायः बिना मतलब की बकझक करते रहते हैं। वाणी की प्रौढ़ता सुविज्ञ मस्तिष्क की ज्ञान सम्पदा जुड़ जाने से ही वह विशेषता उत्पन्न होती है जो प्रखर भी होती है और प्रभावशाली भी। इस उच्चारण से बोलने वाले का भी लाभ होता है और सुनने वाले का भी। इसके बाद दिव्य वाणी आती है, जिसमें परिष्कृत व्यक्तित्व के साथ जुड़ी रहने वाली भाव संवेदना का भी समावेश होता है। ऋचाओं का यही स्तर है। उनकी विशेषता सामगान को निखारती है।

उपासना प्रक्रिया में भी मन्त्रोच्चार के साथ श्रद्धा भरी अनन्य तन्मयता का समावेश होना चाहिए। ऐसा समावेश जिसमें क्रमबद्ध, लयबद्ध, स्वरबद्ध गुनगुनाहट तो हो ही साथ ही इष्ट के साथ एकाकार होने की आकुलता भी हो। मन्त्रों का वास्तविक लाभ इसी गान वाली मनःस्थिति में मिलता है। विशेषताओं से संयुक्त गायत्री शब्द के अनेक अर्थ हैं। गय ‘प्राण’ को भी कहते हैं और ‘गीत’ को भी। भगवान ने गीता में “गायत्रीच्छदंसामहम्” वाक्य में गायत्री छन्द को अपना रूप बताया है। यहाँ छन्द से तात्पर्य गीत से है, पर वह मनोरंजन के लिए नहीं है। दिव्य तन्मयता की भावभरी लहरों में लहराने के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला ‘नाद ब्रह्म’ है। वह गान गायन कर्त्ता को ऐसी भाव भूमिका में ले उड़ता है जो सर्वतोमुखी कल्याण का अनुदान दे सके। गाने वाले का त्राण करने वाली मन्त्र शक्ति को गायत्री कहा गया है। प्रभा का त्राण करने वाली भी गायत्री का एक अर्थ है। इस सम्बन्ध में शस्त्रों में कई स्थानों पर विभिन्न तरह से उल्लेख किया जाता है-

वेद में कहा गया है-

बसन्तः प्राणायनो गायत्री बसंती। -यजु. 13। 5

अर्थात्- गायत्री वह है जो बसन्त में गाई जाती है और गाने वाले की रक्षा करती है।

गायंति त्वागा यत्रिणोऽर्यन्त्यकर्मर्किणः। - ऋग्वेद 1। 10। 1

अर्थात्- गायत्री का गान करने वाले तेरा ही गुणगान करते हैं। तेज के उपासक उसी सूर्य की उपासना करते हैं।

यद् गायत्री अधिगायत्र माहितम्। -ऋग्वेद 1। 164। 23

अर्थात्- जिसका गायन करते हैं उसे गायत्री कहते हैं।

गायन्तं त्रायतं इति गायत्री। - गोपथ.

अर्थात्- जो गाने वाले का त्राण कर वह गायत्री यद्गायत तद्गायत्री- शत. जिसे गाते हैं वह गायत्री है।

त्रायन्तों गायतः सर्वान् गायत्रीत्यमिधीयते। - अहि. वु. स. 3। 16

अर्थात्- अभी गान करने वालों की रक्षा करती है, इससे उसे गायत्री कहते हैं।

गायत्री प्रोच्यते तस्यात् गायत्तं त्रायते यतः। गायतात् त्रायते यस्मात् गायत्री तेन कथ्यते॥

अर्थात्- गायन करने वाले का त्राण करने वाली होने से वह गायत्री कहलाती है।

तमेत देव गायत्रं साम गायन्न वायत। यद गायन्न त्रायद तद् गायत्रस्य गायत्रत्वम्॥ - जै. ब्रा. 3। 38। 9

अर्थात्- जो गायत्री का मान करता है गायत्री उसकी रक्षा करती है।

गातार त्रायते यस्माद् गायत्री तेन गीयते। - स्कन्द पुराण (काशी खण्ड)

अर्थात्- गाने वाले की रक्षा करती है, इसी से उसको गायत्री कहा जाता है।

गायतो मुखाद् उदपतदिति गायत्री। - निरुथ 7। 12

अर्थात्– सबसे प्रथम गान करते हुए परमेश्वर के मुख से जो गीत निकला वही गायत्री है।

सर्वेषामेव वेदानाँ गुह्योपनिषदाँ तथा। सारभूता तु गायत्री निर्गता ब्रह्मामे मुखम्॥

अर्थात्- सब वेदों और गुह्य उपनिषदों का सार रूप ब्रह्माजी के मुख से गायत्री मन्त्र प्रकट हुआ।

गायत्री किस प्रकार अपने उपासक का सर्वविध कल्याण करती है और उसे सर्व समर्थ बनाती है? इसका एक सुसंगत विज्ञान है। मन्त्र विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि जीभ से जो भी शब्द उच्चारित होते हैं, उनका उच्चारण केवल जीभ द्वारा ही नहीं होता। अपितु उनके उच्चारण में कण्ठतालू, मूर्धा, ओष्ठ, दाँत, जिह्वा मूल आदि मुख के विभिन्न अंग महत्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं। इस उच्चारण काल में जिन भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों में नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैले हुए हैं। इस विस्तार क्षेत्र में कई ग्रन्थियाँ होती हैं, जिन पर उच्चारण से दबाव पड़ता है। जिन लोगों की कोई विशेष सूक्ष्म ग्रन्थियाँ रुग्ण या क्षत-विक्षत होती हैं, उनके मुख से कुछ खास शब्द अशुद्ध निकलते हैं, या रुक-रुककर निकलते हैं। हकलाना या तुतलाना इसी को कहते हैं।

योगी लोग जानते हैं कि शरीर में विद्यमान अनेक छोटी बड़ी ग्रंथियों में विशेष शक्ति भण्डार छिपा रहता है। सुषुम्ना से सम्बद्ध षट्चक्र प्रसिद्ध है। ऐसी अगणित ग्रन्थियाँ शरीर में विद्यमान हैं विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रन्थियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभाव से इन ग्रन्थियों का शक्ति भण्डार जागृत होता है। मन्त्रों का गठन इसी आधार पर होता है, यह बात पहले ही स्पष्ट की जा चुकी है। गायत्री मन्त्र के 24 अक्षर हैं। इनका प्रत्येक का सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी ग्रन्थियों से है, जो जागृत होने पर सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती है। गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार, शरीर में विद्या पाठ सूक्ष्म ग्रन्थियाँ इस प्रकार झंकृत और स्पन्दित होती हैं जिसका प्रभाव अदृश्य जगत पर पड़ता है और साधक की चेतना भी उससे इस प्रकार प्रभावित होती है कि अनेकों प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष लाभ होते हैं। यह प्रभाव ही गायत्री साधना के सत्परिणाम प्रस्तुत करती है।

शब्दों की शक्ति साधारण नहीं है। प्रकट तौर पर भले ही वे जानकारी का आदान-प्रदान करने वाले प्रतीत होते हों, परन्तु शब्द विद्या के, ध्वनि विज्ञान के आचार्य जानते हैं कि शब्दों में कितनी शक्ति है? और उसकी अज्ञात गतिविधि के द्वारा क्या-क्या परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं? शब्दों की इस असाधारण शक्ति क्षमता के कारण ही शब्द को ब्रह्म कहा गया है। गायत्री मन्त्र में इस शब्द विज्ञान का भरपूर उपयोग हुआ है।

गायत्री उपासना को और भी फलवती बनाने वाला कारण है, साधक का श्रद्धामय विश्वास। विश्वास की शक्ति से सभी मनोविज्ञानवेत्ता भली-भाँति परिचित हैं। इस तरह के कई उदाहरण देखने में आते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि केवल विश्वास के कारण ही लोग भय की वजह से अकाल मृत्यु के मुख में चले गए और विश्वास के कारण ही मृतप्राय लोगों ने नवजीवन प्राप्त किया। रामायण में तुलसीदास जी ने ‘भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ’ गाते हुए श्रद्धा विश्वास को भवानी शंकर की उपमा दी है। लोग अपने विश्वासों की रक्षा के लिये धन, आराम तथा प्राणों तक को हँसते-हँसते गँवा देते हैं। एकलव्य, कबीर आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनसे प्रकट है कि गुरु द्वारा नहीं केवल अपनी श्रद्धा के आधार पर प्राप्त होने वाली शिक्षा से भी अधिक विज्ञ बना जा सकता है। हिप्नोटिज्म का आधार रोगी को अपने वचन पर विश्वास कराके उससे मनमाने कार्य करा लेना ही तो है। ताँत्रिक लोग मन्त्र सिद्धि की कठोर साधना द्वारा अपने मन में उस मन्त्र के प्रति जमी श्रद्धा के आधार पर ही सफलता प्राप्त करते हैं। जिस मन्त्र से श्रद्धालु ताँत्रिक चमत्कारी काम कर दिखाता है, उस मन्त्र की अश्रद्धालु साधक चाहे जिस तरह आराधना करे, उसे कुछ लाभ नहीं होता। गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में भी यही तथ्य बहुत सीमा तक काम करता है। जब साधक श्रद्धा और विश्वासपूर्वक आराधना करता है तो शब्द विज्ञान और विश्वास विज्ञान दोनों की विशेषताओं से संयुक्त गायत्री मन्त्र का प्रभाव और भी अधिक बढ़ जाता है और वह एक अद्वितीय शक्ति सिद्धि होती है।

गायत्री को इसीलिए गान करने वाले का त्राण करने वाली कहा गया है कि वह शब्द विज्ञान और विश्वास के आधार पर साधक में अनेकों सूक्ष्म शक्तियाँ जागृत कर देती है। यह शक्तियाँ साधक को अनेकों प्रकार की सफलतायें, सिद्धियाँ और सम्पन्नता प्राप्त कराती हैं। गायत्री साधना एक सुव्यवस्थित वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसे भली-भाँति सम्पन्न किया जाये तो उसके सत्परिणाम प्राप्त होना सुनिश्चित है।


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