अपने पैरा पर चलें, अपना लक्ष्य ढूंढ़ें

May 1983

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रहना सबके साथ है। करना और खाना भी साथ-साथ ही बन पड़ता है। इतने पर भी अपने अकेलेपन को भूल नहीं जाना चाहिए। मनुष्य अकेला आया है। परलोक भी अकेले जाना पड़ेगा। खाने, नहाने सोने में हर व्यक्ति अकेला होता है फिर यह यथार्थता ऐसी नहीं है जिसे भुला दिया जाय।

अपना अहित निवारण और हित साधन करने के लिए एकाकी चिन्तन की आवश्यकता है। लोग क्या कहते और क्या करते हैं, इस आधार पर जो किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहते हैं, वे भूल करते हैं। एक केन्द्र से अनेक दिशाओं में अनेक पगडण्डियाँ जाती हैं। उनमें से हर एक पर प्राणी गए होते हैं इनमें से अपने लिए एक का चुनाव ही करना होगा, सभी पर नहीं जाया जा सकता है। अनेक पगडण्डियों में से एक का चुनाव अपनी ही विवेक बुद्धि के आधार पर करना होता है। यही है यह दृष्टि जिसे अपनाकर संसार के मेले से अपने काम की वस्तु चुनी जा सकती है।

पीड़ा आप ही सहनी पड़ती है। इन्द्रियों के सुख-दुख भी अपने को ही होते हैं। इसमें किसी की साझेदारी सम्भव नहीं। अपने कृत्यों का परिणाम भी अपने को ही भोगना पड़ता है। न एक के बदले का दूसरा सिंहासन पर बैठता है और न फाँसी पर लटकता है। सहयोग समर्थन, सहानुभूति और संवेदना में अनेकों की साझेदारी रहती है। क्योंकि हम सब समुदाय के अंतर्गत निर्वाह करते हैं फिर भी अपनी समस्याएँ आप ही सुलझानी पड़ती हैं।

शास्त्रों- आप्त पुरुषों और धर्मोपदेशकों की कमी नहीं। सन्तों और सम्प्रदाओं के प्रतिपादनों में एकता कम और भिन्नता अधिक है। ऐसी दशा में क्या उपयुक्त क्या अनुपयुक्त इसका निर्णय स्वयं ही करना होता है। सभी के मत का न तो समन्वय है और न उन सभी का खण्डन करने लायक तर्क किसी के पास है। ऐसी दशा में विवेक के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं जिसे छोड़कर किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकना सम्भव हो सके।

गरुड़ अकेले उड़ते हैं। भेड़ें ही सदा भीड़ की प्रतीक्षा करती हैं और झुण्ड के साथ किसी भी दिशा में चल पड़ती हैं। सूर्य, चन्द्र, तारक सभी अपने-अपने पथ पर एकाकी परिभ्रमण करते हैं। दो का साथ कहीं नहीं। रास्ते में पथिक अनेकों मिलते और बिछुड़ते रहते हैं। न तो वे अपने साथ आ सकते हैं और न अपने लिए ही उनके साथ चले जाना सम्भव हो सकता है। सबका अपना मार्ग है उस पर चलने के लिए अपने ही पैरों का प्रयोग करना पड़ता है। थकान में किसी की साझेदारी नहीं। राह की ठोकर में अपने को कष्ट होता है और उसके लिए पट्टी भी अपने ही पैर में बँधती है।

अपने विवेक से काम चलता है। वही अपना सच्चा सहचर है। अपने ही पराक्रम से अभीष्ट का उपार्जन सम्भव है। दूसरों के परामर्श और सहयोग से न तो समस्याएँ हल होती हैं और न उनके सहयोग से मंजिल तक पहुँच सकना सम्भव होता है।

विवेक को जगाया और परिपक्व किया जाय। उसे साहस के सहारे इस योग्य बनाया जाय कि सच्चा मार्गदर्शक और सहयोगी बन सके। इसके लिए आवश्यक है- आदर्शों के प्रति निष्ठा। वही ध्रुव तारे का काम देती है। आकर्षणों के प्रति लुभाने वाली दुर्गति ही प्रायः मनुष्य पर लद पड़ती है और उसे कठपुतली की तरह नचाती है। जो इस भ्रम जंजाल में से अपना श्रेय और अभीष्ट चुन सकता है वह बुद्धिमान है।

बुद्धिमत्ता का अर्थ प्रलोभनों का परिपोषण करने वाली चतुरता नहीं। वह दूरदर्शिता है जो श्रेय को उपलब्ध कराती और महानता के लक्ष्य तक पहुँचाती है। ऐसी दूरदर्शी विवेक बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं। यही है जिसे प्रखर करने की साधना करनी चाहिए। यही है वह उपलब्धि जिसके सहारे अकेला भी हजारों लाखों से बढ़कर समर्थ सिद्ध होता है।


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