तथ्यान्वेषियों की दृष्टि में मानव का स्वरूप

May 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य क्या है, इस प्रश्न की यथार्थ व्याख्या करना प्रायः कठिन है। तो भी विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों ने अपने-अपने ज्ञान के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है। परिभाषा, जो मनुष्य का समग्र और सही स्वरूप प्रस्तुत करे- दी जाय, इसके पूर्व उन विशेषज्ञों का मत जानना आवश्यक है।

भौतिक विज्ञान का “थर्मो डायनामिक्स” सिद्धान्त मान्यता प्राप्त है। इसके द्वितीय नियम के अनुसार ब्रह्माण्ड की प्रत्येक क्रिया ऊँचे एन्ट्रापी- अव्यवस्था अर्थात् असन्तुलन की ओर चलायमान है, पर जीवित प्राणी इस नियम के अपवाद हैं। उनमें यह क्षमता पायी जाती है कि प्राकृतिक प्रक्रिया के विपरीत चलकर, व्यतिक्रम के स्थान पर सन्तुलन स्थापित कर सकते हैं। इस मान्यता के आधार पर मनुष्य ‘एन्ट्रापी रिडयूसर’- अव्यवस्था को दूर करने वाला सृष्टि का श्रेष्ठतम प्राणी है।

दूसरी परिभाषा रसायन शास्त्रियों ने दी है। उनकी मान्यता है कि विकास की आरम्भिक अवस्था में यह पृथ्वी बंजर रूप में थी। समुद्र का फैलाव और भी अधिक व्यापक क्षेत्र में था। मिथेन, अमोनिया जल, हाइड्रोजन, सल्फाइड, नाइट्रोजन आदि का वातावरण में बाहुल्य था। बाद में सौर विकिरण, भूमिगत ताप तथा विद्युतमय वातावरण से मुक्त हुआ प्रकाश तथा रेडियो धर्मी पदार्थों से युक्त भूपृष्ठ को मुक्त किया गया, सूक्ष्म विकिरण ऊर्जा के रूप में विस्तारित हुआ। इन ऊर्जा स्रोतों ने सामान्य अणु संरचना को अधिक जटिल बना दिया सर्वाधिक छोटा अणु कार्बन आपस में सिमटकर एक मजबूत बंध के रूप में परिवर्तित हो गया। प्रत्येक कार्बन अणु में चार बन्ध बने। अन्थ जैविक अणु कार्बन से सम्बन्धित हो गए। अन्ततः जैविक अणु अधिक विकसित एवं जटिल होकर क्रियाशील हो गए। इसी आधार पर पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ हुआ और विकास क्रम में उच्चतर प्राणी तथा मनुष्य का प्रादुर्भाव हुआ। अतएव रसायन शास्त्रियों ने मनुष्य की व्याख्या “कार्बन अणु की जटिल जैविक संरचना” के रूप में की है।

जैव रसायनविदों ने रसायन शास्त्रियों से थोड़ा अलग हटकर मनुष्य की व्याख्या की है। उनका मत इस प्रकार है- “छोटे तथा बड़े अणुओं में जीवन तत्व का अभाव है। अपने आप वे गति करने में असमर्थ होते हैं। पर पृथ्वी के शैशव काल में जब अणु अधिक जटिल स्वरूप धारण करने लगता है, तो कुछ जैविक तत्वों का उद्भव अपने आप होता है, जो उन अणुओं को गति देते हैं। उन्हें न्यूक्लिक एसिड कहा जाता है। दूसरे प्रकार के उत्पन्न हुए जैविक अणु प्रोटीन हैं। कुछ प्रोटीनों में उत्प्रेरक गुण पाये जाते हैं, जिन्हें इन्जाइम कहते हैं। विभिन्न प्रकार के न्यूक्लिक एसिड विभिन्न तरह के इन्जाइमों का निर्माण करते हैं। जीवन का जटिल स्वरूप इनके सहयोग से प्रकट होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार जैव रसायन के विशेषज्ञों ने मनुष्य को न्यूक्लिक एसिड व इन्जाइमों के बीच पारस्परिक क्रियाशील रहने वाला प्राणी कहा है।

अन्यान्य क्षेत्र के विशेषज्ञों ने भी अपने विषय ज्ञान के आधार पर मनुष्य की परिभाषा विभिन्न रूपों में दी है। जीव विज्ञानियों ने मनुष्य को एक कोशीय सम्पिण्ड माना है, तो ज्योतिर्विदों ने उसे तारों के बीज कोष की रचना माना है। मानव शास्त्री कहते हैं कि मनुष्य कुशाग्र दृष्टि, सुविकसित मस्तिष्क, कल्पनाशील मन तथा समर्थ शरीर से युक्त एवं सृष्टि का सुविकसित प्राणी है, पुरातत्व वेत्ताओं की मान्यता है कि मनुष्य संस्कृति का संचायक, नगर का निर्माता, मिट्टी पात्र से लेकर अन्यान्य कलाकृतियों का आविष्कारक, संगीत, कृषि साहित्य जैसे विषयों का निर्माता है।

समाज शास्त्रियों के अनुसार वह एक सामाजिक प्राणी, समाज का एक अभिन्न घटक तथा उसका निर्माता है। पाश्चात्य मनःशास्त्र को मानने वाले मनुष्य को एक अद्भुत तथा विलक्षण सचेतन जीव मानते हैं, जिसके पास मन और मस्तिष्क जैसे बहुमूल्य घटक प्राप्त हैं। वह मूल प्रवृत्तियों का गुलाम है। सेक्स ही वह प्रेरक तत्व है जिससे उसकी प्रत्येक भली-बुरी गतिविधियाँ संचालित हैं। जिसकी सन्तुष्टि अथवा अतृप्ति पर मानवी विकास अथवा पतन आधारित है। वह सचेतन जीवों का प्रचण्ड शक्ति स्रोत है।

अर्थ शास्त्रियों ने पार्थिव शरीर के रूप में मनुष्य का मूल्याँकन किया है तथा शरीर का विश्लेषण अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि मानव शरीर में फास्फोरस की इतनी मात्रा पायी जाती है कि माचिस की 220 तीलियों के शीर्ष पर एक परत लगायी जा सके।” ऐसी ही गणना उन्होंने अन्य घटकों की भी की है। सभी तत्वों की कीमत अर्थशास्त्रियों ने लगभग सत्ताईस रुपये लगायी थी। कुछ व्यक्तियों का आक्षेप है कि कुछ दशकों में महंगाई बेहिसाब बढ़ी है ऐसी स्थिति में मानव शरीर की कीमत भी अधिक आँकी जानी चाहिए। यदि उनकी बात मान ली जाय, तो मनुष्य शरीर की कीमत अधिक से अधिक पचास रुपये तक मानी जा सकती है।

रिश्तों के आधार पर भी मनुष्य का एक स्वरूप प्रकट होता है। एक ही समय में वह किसी का पुत्र, किसी का पिता, एक स्त्री का पति, एक लड़की का भाई, किसी का दोस्त तथा किसी का दुश्मन, कहीं कर्मचारी, किसी का नौकर, किसी का अधिकारी, सम्पत्ति का स्वामी संरक्षक हो सकता है। प्रकृति एवं अभिरुचि के अनुरूप भी उसका एक रूप है। वह विचारक हो सकता है। कलाकार, गायक, संगीतज्ञ, अभिनयकर्ता, दार्शनिक, अध्यापक, अर्थशास्त्री, कृषक, विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, संत, दुष्ट, समाज सुधारक, भ्रष्ट, ब्रह्मचारी, व्यभिचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, बालक, युवा, वृद्ध, नर, नारी जैसे अगणित उसके रूप में हैं। एक साथ वह एक से अधिक विशेषताओं से युक्त भी हो सकता है। वह बुद्धिमान हो सकता है और मूर्ख भी। बलवान अथवा निर्बल भी हो सकता है। सुन्दर और कुरूप दोनों ही उसके रूप हैं।

पुरातन तथा आधुनिक मनीषियों एवं दार्शनिकों ने भी मनुष्य की व्याख्या विभिन्न ढंग से की है। पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने मनुष्य को एक पंख विहीन द्विपाद के रूप में वर्णन किया है। दार्शनिक सेनेक्रा उसे एक सामाजिक प्राणी मानता है। एल्डुअस हक्सले का कहना है कि- “मनुष्य इन्द्रियों की दासता में जकड़ा एक बुद्धिमान जीवन है।” डर्विन ने ‘जीव विकास की एक उच्च स्थिति के रूप में मनुष्य का वर्णन किया है। फ्रायड मनुष्य को पशु प्रवृत्तियों में जकड़ा एक जीव मानता है। जान स्टुअर्ट मिल मनुष्य को एक चलता-फिरता नश्वर प्राणी कहता है, जो अन्य जीवों की तुलना में अधिक समझदार तथा सृष्टि के लिए उपयोगी है। वर्ट्रेण्ड रसेल उसे बुद्धिमान किन्तु ध्वंशक जीव मानते हैं।

भारतीय ऋषियों तथा मनीषियों ने भी मनुष्य तथा मनुष्य जीवन की विवेचना अनेक रूपों में की है। नास्तिकवादी दार्शनिक चार्वाक ने मनुष्य को नश्वर माना है। इस मान्यता के आधार पर ही उन्होंने कहा था-

“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्।”

अर्थात्- “जब तक जिये, सुख से जिये, ऋण लेकर घी पिये।” क्योंकि शरीर के भस्मीभूत हो जाने के बाद कौन लौटकर आता है।

योग मनोविज्ञानियों के अनुसार मननात् मनुष्यः। अर्थात् मनन करने से मनुष्य कहलाता है। शास्त्र कहते हैं-

“मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।”

अर्थात्- मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है।

वैरस्यमत्र विषवत्सुविधाय पाश्चादेनं विमोचयति तन्मन एवं बन्धात्। -विवेक चूणामणि

अर्थात्- यह मन ही देह आदि सब विषयों में राग की कल्पना करके रस्सी से पशु की तरह पुरुष को बाँधता है फिर इन विषयों से वैराग्य उत्पन्न करके इसको बन्धन मुक्त भी कर सकता है।

भगवान राम को ऋषि वशिष्ठ ब्रह्म विद्या का उपदेश देते हुए कहते हैं- हे राम! मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताता हूँ- मनुष्य से बढ़कर इस संसार में और कुछ भी नहीं है।”

मनुष्य क्या है। आत्मज्ञानी कहते हैं- अहंमात्मानं पराजिग्ये। मैं अपराजित आत्मा हूँ।

एक ब्रह्मज्ञानी का उद्घोष है-

“अहं ब्रह्मास्मि। सोऽहम्। सच्चिदानन्दोऽहम्।”

वह ब्रह्म मैं हूँ। वह मैं हूँ। मैं सत्-चित् और आनन्द से युक्त हूँ।

“अकर्ताहम् भोक्ताहमविकारोऽहमक्रियः। शुद्धबोध स्वरूपोऽहं केवलोऽहं सदा शिवः॥ -विवेक चूणामणि

अर्थात्- मैं अकर्ता-अभोक्ता हूँ, अविकारी हूँ। शुद्ध बोध स्वरूप हूँ। एक हूं और नित्य कल्याणस्वरूप हूँ।

नाहमिदं नाहमदोऽप्युम योरवभासकं परं शुद्धम्। ब्राह्याभ्यन्तरशून्यंपूर्ण ब्रह्माद्वितीयंमवाहम्॥ -(विवेक चूड़ामणि)

अर्थात्- मैं न यह जगत् हूँ, न वह ईश्वर है, बल्कि इन दोनों का प्रकाशक, बाह्याभ्यन्तर शून्य, पूर्ण, अद्वितीय और शुद्ध परब्रह्म ही हूँ।

मनुष्य क्या है? उत्तर एक प्रतिप्रश्न में सन्निहित है कि मनुष्य क्या नहीं है? अर्थात् सब कुछ है। बीज रूप में उसके भीतर विकास की असीम सम्भावनाएँ विद्यमान है। अपने विषय में जो जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। वह एक ऐसा अनगढ़ प्राणी है, जो सुगढ़ बन सकता है, नर से नारायण बन सकता है और अधोगामी मार्ग अपनाकर नर पशु-नर पामर भी बन सकता है। अभीष्ट दिशा में चल पड़ने की उसे खुली छूट है। शरीर, मन, अन्तःकरण तथा उनसे जुड़ी असामान्य क्षमताएँ सदुद्देश्यों से जुड़कर उसके विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं और निकृष्ट दिशा में नियोजित होकर पतन पराभव की ओर ढकेल भी सकती हैं।

अपने को वह रसायनों का सम्मिश्रण मूल प्रवृत्तियों का गुलाम, अणुओं का संगठन अथवा चलता-फिरता पौधा भर मानता रहे, यह मनुष्य के लिए शोभा नहीं देता। उचित यही है कि वह मनुष्य जीवन की गरिमा समझे तथा यह माने की सुरदुर्लभ प्रस्तुत अवसर उसे विशिष्ट प्रयोजन के लिए प्राप्त हुआ है, जिसका सदुपयोग होना चाहिए। श्रेष्ठ मान्यता के अनुरूप ही विचारणा का क्रम चलता और अन्ततः वही आचरण में उतरता है। भौतिक मान्यताओं से ऊपर उठकर ही मनुष्य का सही एवं शाश्वत मूल्याँकन करना विवेक सम्मत है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles