दो भक्त थे। एक बहुत देर भजन करता। दूसरा कुछ ही क्षणों में काम निपटा देता। दोनों ही मन्दिरों में रोज दर्शन करने जाते।
कम भजन करने वाला सम्पन्न बनता चला गया और बहुत करने वाला दरिद्र ही बना रहा। बड़े मानस ने देवता से शिकायत की कि ऐसा क्यों? अधिक भक्ति का कम प्रतिफल कैसे? देवता मुस्कराये। एक तुम हो जो मनोकामना से लदे रहते हो और पुरुषार्थ के नाम पर आलस बरतते हो। दूसरा है जो पुरुषार्थ करता है और उतने से ही व्यवस्थापूर्वक काम चलाते हुए सन्तोष करता है। देवता ने फिर समझाया। भजन निस्पृह और पराक्रम युक्त होना चाहिए। तभी उसकी सार्थकता है।