जीवन भार नहीं, दैवी अनुदान है।

May 1983

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जिसकी भूख मारी गई उसे व्यंजन भी स्वादिष्ट नहीं लगते। जिसने जीवन का महत्व, स्वरूप और उद्देश्य ही नहीं समझा उसे न उसमें आनन्द आता है और न परिष्कृत करने का प्रयत्न चलता है। रात्रि का निद्रा में व्यतीत होना प्रकृति व्यवस्था है किन्तु यह मनुष्य की अपनी मर्जी है कि वह दिन में भी सोता रहे या जागता हुआ जिए। जगने का तात्पर्य है- इस ईश्वर प्रदत्त सम्पदा की गरिमा और सदुपयोग करने पर हस्तगत हो सकने वाली विभूतियों की महिमा का आँकलन करना।

जीवन भार नहीं है, जिसे अनख, उपेक्षा के साथ किसी तरह ढोया जाता रहे। वह अलभ्य अवसर है। वह बहुत कुछ है। ऐसा है जिसके सहारे बहुत कुछ किया पाया और बना जा सकता है। प्रमादी ही इसे भारभूत मानते और किसी तरह खाते, सोते इस बहुमूल्य सुयोग को अर्ध मृतकों की तरह उपेक्षा अवज्ञापूर्वक किसी खाई खंदक में धकेलते-उड़ेलते रहते हैं।

जो अपने से असन्तुष्ट है, उसके लिए इतना ही पर्याप्त नहीं कि खीज या निराशा प्रकट करे और दुःख दुर्भाग्य प्रकट करने वाले आँसू बहाये। वरन् यह भी आवश्यक है कि किन कारणों से उसे हेय परिस्थिति में पड़े रहना पड़ रहा है और उन्हें किस प्रकार बदलना सम्भव हो सकता है। जो है, वह पत्थर की लकीर नहीं है। उसे भाग्य का विधान मान बैठने में कोई सार नहीं। हमें सोचना चाहिए कि किस प्रकार परिस्थितियों में परिवर्तन हो सकता है। इसका प्रथम चरण यह है कि मनःस्थिति बदली जाय। यह आँशिक सत्य है कि परिस्थितियों ने हमें जकड़ा और विपन्नता में दिन गुजारने के लिए विवश किया। सच तो यह है कि दुर्बल मनःस्थिति ही अनुपयुक्त को पकड़ती और उसके साथ जुड़ती जकड़ती चली जाती है। कोई चाहे तो उसे छोड़ या बदल भी सकता है। इसके लिए बाहरी परिवर्तनों की आशा करने से पूर्व, भीतरी परिवर्तन आवश्यक है। हेय स्तर का जीवन जीने से इनकार कर देने के उपरान्त, यह किसी के लिए भी सम्भव नहीं कि उसके लिए विवश कर सके। विवशता हमारी अपनी दुर्बलता के अतिरिक्त और कुछ है नहीं।

विघ्न, विरोध, प्रतिबन्ध, वर्जन अपने स्थान पर सही हो सकते हैं, पर उनमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि किसी को श्रेय पथ पर चलने से रोक सकने में समर्थ हो सके। मनुष्य की अपनी निजी क्षमता भी तो कुछ है। वह घिरा तो अवश्य है, पर घेरे इतने जटिल नहीं है जो सत्पथगामी संकल्प और साहस को निरस्त करके उसे हेय स्थिति में पड़े रहने के लिए विवश बाधित कर सके। समाज की सामर्थ्य इतनी ही है कि वह कुमार्ग पर चलने से रोके, अनाचार पर अंकुश रखे। इससे आगे की वह सामर्थ्य किसी में भी नहीं कि उत्कृष्टता अपनाने और श्रेय प्रयोजनों की दिशा में चल पड़ने की विविशता उत्पन्न कर सके। यह अपनी ही आन्तरिक दुर्बलता है जिसके कारण हेय स्तर का जीवन जीना पड़ता है। बाहरी दबाव की बात तो बहाना मात्र है। बाहरी विरोध और सहयोग तो मनुष्य की अपनी स्थिति को देखकर ही बनते, बिगड़ते और बदलते रहते हैं।

समाज में भले और बुरे सभी तत्व हैं। जब हम बुरों पर दृष्टि डालते, ललचाते और पकड़ते हैं तो वे सहज ही समीप आते और प्रभाव डालते हैं। इसके विपरीत जब भलाई का देखना खोजना आरम्भ किया जाता है। न उनकी तो मात्रा कम प्रतीत होती है और न पकड़ने के लिए कहीं बहुत दूर जाने की। व्यक्ति न सही, सद्ग्रन्थों से सहायता मिल सकती है। इतिहास यह बता सकता है कि भूतकाल में श्रेष्ठता कितनी प्रखर रही है। बेधक दृष्टि हो तो यह भी विदित हो सकता है कि छाये हुए कुहरे से आगे श्रेष्ठता की सत्ता और महत्ता इन दिनों भी किसी प्रकार सजीव और सक्रिय बनी हुई है। समर्थन आरम्भ में नहीं, अन्त में मिलता है। श्रेष्ठता की बात सोचने वालों को आरम्भ से अपना समर्थन सदैव आप ही करना पड़ा है।


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