समर्थ और समुन्नत नई पीढ़ी का निर्माण

May 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अच्छी फसल उगाने के लिए जितना महत्व अच्छी भूमि और अच्छे बीज का है उतना ही इस बात का भी कि उपज को उदरस्थ कर जाने वाले खरपतवार को बढ़ने न दिया जाय। बीजारोपण से पूर्व भूमि की जुताई इसीलिए की जाती है कि खेत की उर्वरता को आरोपित पौधों के पोषण में लग सकने का सुरक्षात्मक प्रबन्ध पहले से ही कर लिया जाय। सुयोग्य पीढ़ियों के उत्पादन का दूसरा पक्ष यह है कि अयोग्य उत्पादन की रोकथाम भी साथ-साथ की जाय। अन्यथा जिन साधनों का उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए किया जाना है उनका अधिकाँश आवेगों के निर्वाह तथा उनके द्वारा उत्पन्न की गई विकृतियों के निराकरण में ही खर्च होता रहेगा। खेत में खरपतवार को निर्वाध गति से बढ़ने की छूट दी जाती रहे तो समझना चाहिए कि उपयुक्त फसल के पकने की सम्भावना समाप्त हो गई।

सन्तान को सुयोग्य बनाने में माता-पिता की प्रजनन प्रक्रिया ही सब कुछ नहीं होती। वे तो श्री गणेश- बीजारोपण मात्र करते हैं। अगला सारा काम तो समूचे परिवार या समाज को करना होता है। बीज उपयुक्त खेत में पड़ कर अंकुरित होता और किसान के प्राथमिक पुरुषार्थ की सफलता व्यक्त करता है। पर इतने से ही तो काम नहीं चल जाता। उसके लिए खाद कहीं से लाना पड़ता है। पानी का प्रबन्ध कहीं से होता है। निराई गुड़ाई में किसी का पसीना बहता है। पशु-पक्षियों से रखवाली, और कृमि कीटकों को निरस्त करने की जिम्मेदारी किसी को उठानी पड़ती है। इस प्रबन्ध में अनेकों की भागीदारी रहती है और अनेक साधन जुटते हैं। सुयोग्य पीढ़ियों के निर्माण में न केवल गर्भ स्थापन एवं गर्भ धारण से उत्तरदायित्व सम्पन्न होता है वरन् उस अनुष्ठान में समूचे समाज को प्रकारान्तर से योगदान करना पड़ता है। ऐसी दशा में उत्पादकों का ही नहीं समाज के कर्णधारों का भी यह कर्तव्य हो जाता है कि वे सुयोग्यता सम्बन्ध के आवश्यक वातावरण बनाने, साधन जुटाने की तरह इस बात का भी ध्यान रखें कि कहीं हेय सृजन का दौर तो नहीं चल रहा है। सज्जन और चोर साथ-साथ बढ़ते रहे तो सज्जनता के लाभ से लाभान्वित होने का स्वप्न साकार न हो सकेगा। उठने के लिए सीढ़ी बनाने और गिरने के लिए खाई खोदने का उपक्रम साथ-साथ चले तो बात कैसे बनेगी।

सुसंतति का शुभारम्भ जनक जननी को गर्भाधान क्रिया के साथ आरम्भ होता है। उन दोनों की शारीरिक मानसिक स्थिति तो वंशानुक्रम के रूप में सन्तति को सुसंस्कारिता एवं दीक्षता प्रदान करने के लिए उपयुक्त होनी चाहिए। इसमें कमी पड़ेगी तो सड़े घुने बीज से उत्पन्न हुए अंकुर पूर्णता तक पहुँच नहीं सकेंगे। वरन् उल्टी खीज पैदा करेंगे। जो बोने की क्रिया सम्पन्न करें वे ही उगने से लेकर पकने तक की अवधि में अभीष्ट आवश्यकताएँ जुटाने का भी प्रबन्ध करें। इसके लिए उनकी पूर्व तैयारी होनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि प्रजनन कृत्य में संलग्न होने वाली को आर्थिक स्थिति भी इस योग्य होनी चाहिए कि वे अपने उत्पादन को समुचित खाद पानी देने तथा सुरक्षा जुटाने में व्यतिरेक उत्पन्न न हो सके। जिसके पास ऐसे साधन नहीं हैं वे बोने के साहस ही न करें। इसमें जुताई, बुआई का श्रम निरर्थक जाता है। साधनों के अभाव में अब अंकुर सूखते हैं तो दुःख भी होता है और अपयश भी लदता है। इस अक्षम विकृति सृष्टि का यदि समाज को भार वहन करना पड़े तो यह भी विश्व मानव की कुसेवा है। उत्पादित सन्तान का भविष्य न बना सकने की क्षमता न होते हुए भी उस वजन को उठा कर अपनी गर्दन तोड़ लेना और भार की गठरी को जमीन पर गिरा कर चूर-चूर कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है।

सुप्रजनन की आवश्यकता और उसकी पूर्ति के लिए विज्ञजनों में उपयुक्त वातावरण, प्रशिक्षण एवं सुविधा साधन जुटाने के लिए समूचे समाज को प्रोत्साहित किया है। इससे पहले उनका कथन यह भी है कि यह कार्य मात्र उन्हें ही करने दिया जाय जो हर दृष्टि से इसके लिए उपयुक्त होने की कसौटी पर कस लिये जायं। जिस प्रकार डाक्टर, इंजीनियर, सैनिक विद्यालयों में भर्ती होने से पूर्व छात्रों को प्राथमिक योग्यता जाँच ली जाती है उसी प्रकार बालकों के उत्पादन की आज्ञा भी समूचे की ओर मिलनी चाहिए ताकि कुपात्र उस कार्य में हाथ डालकर मानवी बिरादरी का अहित न करने लगे। नागरिक अधिकारों की गणना में यदि यौन कर्म आता हो तो भी उसके पीछे इतना नियन्त्रण तो रहना ही चाहिए कि वह शरीर क्रीड़ा तक सीमित रहे और समाज संकट उत्पन्न करने का कारण न बने। सन्तानोत्पादन समाज को प्रभावित करने वाला कृत्य है इसलिए उस पर यदि समाज या शासन की ओर से अंकुश लगता है तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। नागरिक अधिकारों की स्वतन्त्रता तभी तक उचित ठहरती है जब तक कि उसका प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता है। इसके आगे कदम बढ़ते ही समाज को अधिकार क्षेत्र बनता है कि वह स्वतन्त्रता का व्यतिरेक न करें। अपनी मर्यादा में सीमित रहे। शरीर क्रीड़ा तक ही नागरिक अधिकारों की परिधि समाप्त हो जाती है। प्रजनन कर्म स्पष्टतः समाज को लाभ या हानि पहुँचाने वाला कृत्य है। ऐसी दशा में उसका अधिकार होना चाहिए कि सुप्रजनन के लिए प्रोत्साहन प्रदान करें और उपयुक्त जोड़ों को यह उत्तरदायित्व निभाने के लिए अनुरोधपूर्वक अनावश्यक सुविधा प्रदान करे। प्राचीनकाल में इसके लिए ‘नियोग’ प्रचलन था अब उसके लिए वीर्य बैंक स्थापित किये जा रहे हैं।

यह व्यवस्था जुटाना अगला काम है। प्रथम चरण कुप्रजनन को रोकना है जिसके कारण इन दिनों त्राहि-त्राहि मची हुई है और अगले दिनों विपत्ति बरसाने वाली घटा घिरती आ रही है। इस रोकथाम की ओर विश्व विचारकों का ध्यान गया है और उनने व्यक्ति तथा समाज से समान आग्रह किया है कि वह अवाँछनीय प्रजनन की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाने वाले कदम उठायें। अन्यथा भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली विभीषिकाओं में अनुपयुक्त सन्तानों की भरमार से जो संकट उभरेगा उसका समाधान कर सकना किसी के हाथ में नहीं रहेगा। टिड्डी दल से होने वाली हानियों को जो जानते हैं जिन्हें मूषकों की- मच्छरों की अभिवृद्धि के दुष्परिणामों का पता है उन्हें यह भी जानना चाहिए कि आज का कुप्रजनन अगले कल किसी प्रकार समूचे वातावरण को विषाक्त करेगा और अनेकानेक समस्याओं का कारण बनेगा।

फ्राँस के व्यक्तित्व विशेषज्ञ अल्फेडविने ने मेधावी और मन्दमति लोगों की इस मौलिक विशेषता का आधारभूत कारण उनके जन्मदाताओं की जीन्स सम्पदा को बताया है और कहा है मेधावी सन्तानों का जन्म वे ही लोग दे सकते हैं जिनका व्यक्तित्व इसके लिए हर दृष्टि से परिष्कृत हो। पुरातन जीन्स वैभव में आज के व्यक्तित्व का सबसे अधिक प्रभाव रहता है।

विने ने अपने ग्रन्थ ‘दि ट्रेनिंग ऑफ इन्टेलिजेन्स’ में इस बात पर अधिक जोर दिया है कि किसी को बुद्धिमत्ता विकसित करनी हो तो यह कार्य उसके जनक जननी को अपनी शारीरिक, मानसिक दक्षता तद्नुरूप बनाने के साथ आरम्भ करना चाहिए अनुपयुक्त वंश परम्परा लेकर जन्मे बालकों में प्रतिभावान बालकों का उत्पादन बहुत प्रयत्न करने पर भी एक छोटी सीमा तक ही सम्भव हो सकेगा।

अमेरिका में इस सम्बन्ध की खोजबीन करने और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए कई महामनीषियों ने असाधारण प्रयत्न किये हैं। इनमें से स्टैन फोर्ड के डा. लीवस टर्मान, न्यूजर्सी के प्रो. हेनरी गोडर्ड और हारवर्ड विश्व विद्यालय के राबर्ट यर्कीज प्रमुख हैं। इन तीनों ने सन्तानोत्पादक दक्षता के सम्बन्ध में एक विशेष पर्यवेक्षण पद्धति का आविष्कार किया है। उसका नाम दिया है- “स्टैन फोर्ड विने टैस्ट” वे कहते हैं जो इस परीक्षण में खरे उतरे मात्र उन्हीं को सन्तानोत्पादन का लाइसेन्स मिलना चाहिए। शेष को इसके लिए अयोग्य घोषित कर देना चाहिए।

यूनेजिम्स रिसर्च ऐसोसिएशन को “कमेटी ऑन इन हरिटेस आफ मेन्टल टेस्ट” के सम्मुख प्रो. गोडार्ड ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था कि ऐसे लोगों को बलपूर्वक ‘वधिया’ बना दिया जाय यौन कर्म में तो रत रहते हैं किन्तु सुयोग्य उत्पादन की दृष्टि से अक्षम।

इस प्रतिवेदन से प्रभावित होकर ‘मूढ़ता की रोकथाम, प्रयोजन के लिए कई देशों ने कानून भी बनाये और अंकुश भी लगाये। ऐसे अनुबन्धों में पेन्सिल्वानिया, इण्डियाना, न्यूजर्सी और इओवा में हलके-फुलके कानून भी बने। प्रजातन्त्र में बहुमत का विरोध देखकर भी ऐसे सुधार करते समय फूँक-फूँक कर कदम उठाने होते हैं। इन कानूनों में शराबी, अफीमची, अपराधी, आक्रामक, असन्तुलित, विक्षिप्त, सनकी, दुर्बल, रोगी लोगों को सन्तानोत्पादन के अयोग्य घोषित किया गया और अनुबन्ध के उल्लेख पर कड़े दण्ड का प्रावधान रखा गया।

सरकारी महत्वपूर्ण पदों पर भर्ती करने के सम्बन्ध में उपयुक्त व्यक्तित्व तलाश करने की दृष्टि से उपयुक्तों का परीक्षण करने में अमेरिकी साइकोलॉजी ऐसोसिएशन की भी भागीदारी थी। उसके अध्यक्ष मेजर यर्कीज ने जिन्हें प्रतिभावान पाया उनमें से अधिकाँश वह विशेषता अपनी वंश परम्परा से साथ लेकर आये थे।

भविष्य निर्माण के लिए जहाँ अन्यान्य साधन जुटाने की आवश्यकता है वहाँ भावी पीढ़ी में मनस्वी एवं व्यक्तित्व सम्पन्न होने की बात को भी महत्व मिलना चाहिए। इसके लिए सुप्रजनन को प्रोत्साहित और पात्रता को निरुत्साहित प्रतिबंधित करने की भी आवश्यकता है।

यों वंशानुक्रम में प्रधानतया जनक जननी के संस्कारों का ही बाहुल्य रहता है तो भी माता और पिता की पिछली पीढ़ियों के उत्तराधिकार भी किसी मात्रा से हस्तान्तरित होते रहते हैं भले ही वे अपेक्षाकृत स्वल्प मात्रा में ही क्यों न हों। यह विरासत आगे-आगे बढ़ती चलती है और अनेक पीढ़ियों तक अपने प्रभाव किसी न किसी रूप में छोड़ती जाती है।

इस संदर्भ में सबसे बड़ी जिम्मेदारी जनक और जननी की आती है कि उनने अपने उत्तराधिकारियों को देने के लिए क्या कुछ सँजोया है। इन दोनों में भी पिता की जिम्मेदारी अधिक है क्योंकि भ्रूण पर वर्चस्व उसी के पक्ष का रहता है। प्रतिभा जितनी पिता की सन्तान को हस्तांतरित होती है उसकी तुलना में माता का योगदान अपेक्षाकृत कम ही रहता है। वंशानुक्रम में पिता की विशेषता रहने पर माता का उत्तरदायित्व हलका नहीं होता वह उस कभी को ऊपर से गर्भधारण के समय अपनी सुसंस्कारिता हस्तान्तरित पूरा करके संपन्न करती है। जबकि यह कार्य पिता की लम्बी अवधि तक साधना रत रहकर पूरा करना पड़ता है। सुप्रजनन की दृष्टि से उपयुक्त पिताओं को तलाश करना और उन्हें अपना महान उत्तरदायित्व सम्भाल सकने के लिए लम्बे समय तक आत्म निर्माण साधना के लिए सहमत किया जाना चाहिए। उनके व्यक्तित्व का ही अगली पीढ़ी से हस्तांतरण जो होना है। इसका अर्थ यह नहीं कि माता की अपेक्षा की जाय। उनमें से अधिकाँश में भावनात्मक वरिष्ठता प्रकृति प्रदत्त परम्परागत रूप से पाई जाती है। तो भी उन्हें गर्भ धारण के समय की तथा पालन-पोषण के दिनों की उत्कृष्टता तथा सतर्कता जानने तथा अभ्यस्त करने का प्रयत्न समय रहते किया जाना चाहिए।

बढ़ती हुई जनसंख्या की रोकथाम अपने स्थान पर उचित एवं आवश्यक है। इस प्रयास में उन्हें अग्रिम रहना चाहिए जिनकी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं पारिवारिक क्षमता सुसन्तति निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं है। जो इस स्थिति में है कि भावी पीढ़ी के लिए संस्कारवान प्रतिभावान नागरिक प्रदान कर सकते हैं उन्हें इसे भी एक परमार्थिक देशभक्ति पूर्ण कार्य समडडडडडडडडडडड कर सम्पन्न करना चाहिए। इसके लिए मेधावी और प्रतिभावानों युग्मों को अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles