भारतीय संस्कृति के संस्कारों को संस्कृति कह सकते हैं। प्रकृति पदार्थ अनगढ़ स्थिति में होते हैं उन्हें सुरम्य, सुव्यवस्थित एवं उपयोगी बनने के लिए उन्हें संस्कारित किया जाता है। लोहा जमीन से जब निकलता है तब विशुद्ध न होकर मिट्टी मिला होता है उसे आग में तपाकर शोधित किया जाता है। हीरा खरीदा जाता है। कच्ची धातुएँ से उपयोगी औजार उपकरणों के रूप में परिवर्तन करने की प्रक्रिया भी ऐसी ही है। विष को अमृत बनाने वाली रासायनिक पद्धति के सम्बन्ध में भी यही कहा जायगा।
जन्मतः सभी नर पशु होते हैं उन्हें सभ्य, सुसंस्कृत, महान देव बनाने का कार्य जिस रीति-नीति को अपनाने से सम्भव होता है उसे संस्कार पद्धति ही नाम दिया जायगा। अपनी धर्म परम्परा में जन्म से लेकर मरण पर्यन्य पुंसवन से लेकर अन्त्येष्टि तक मनुष्य को सोलह बार निर्धारित कर्मकाण्डों के अनुसार संस्कारित किया जाता है। उन प्रेरणाओं के अनुरूप साधन जुटाते एवं अनुशासन रखने से ही सामान्य को असामान्य- नर पशु को देव मानव बनने का अवसर मिलता है। वस्तु का जितना महत्व है उससे अधिक उसकी प्रस्तुत क्षमता सुन्दरता उभारने वाली कुशलता कलाकारिता की है। यह है संस्कृति का चमत्कार। जो मानवी कलाकारिता के संपर्क में आने वाले प्रत्येक पदार्थ या प्राणी में दृष्टि गोचर होता है। इसी को परिष्कार की प्रक्रिया कहते हैं।
अग्नि प्रज्ज्वलन मनुष्य की सामान्य आवश्यकता एवं कुशलता है। इसके सहारे भोजन पकाने से लेकर कारखाने चलाने तक के अनेकानेक कार्य सर्वत्र सम्पन्न होते रहते हैं। इसी सामान्य को असामान्य बनाने की पद्धति अग्निहोत्र है। अग्नि प्रज्ज्वलन और अग्निहोत्र का मौलिक अन्तर एक ही है एक अनगढ़ प्राकृत होता है दूसरे में प्रयुक्त होने वाला प्रत्येक उपकरण संस्कारित किया जाता है। संस्कारित- अर्थात् अध्यात्म विज्ञान के आधार पर भाव सम्वेदना एवं चेतन ऊर्जा द्वारा किया गया अनुप्राणित है। इस आधार पर सामान्य जड़ पदार्थों को भी दिव्य क्षमता सम्पन्न बनाया जाता है और उससे उसी स्तर का काम लिया जाता है।
प्रसाद, पंचामृत, चरणोदय, यज्ञोपवीत, प्रतिमा आदि का भौतिक बाजारू मूल्य नगण्य है। पर उन्हें उच्चस्तरीय भावनात्मक प्रयोग प्रक्रिया द्वारा दिव्य बनाया जाता है। अभिमन्त्रित करना इसी को कहते हैं। इसमें मात्र मन्त्रोच्चार से ही काम नहीं चलता वरन् और भी ऐसे कितने ही भाव पक्ष जुड़ते हैं जिनके कारण जड़ वर्ग की वस्तुएँ सचेतन से भी एक कदम आगे बढ़कर देव वर्ग में गिनी जाने योग्य बन जाती हैं। तब उनका प्रभाव भी वैसा ही होता है। प्रतिभा में प्राण प्रतिष्ठा करने से लेकर- अभिमन्त्रित वस्तुएँ आशीर्वाद वरदान देने तक का सुविस्तृत अनुदान प्रकरण इसी तथ्य पर टिका हुआ है कि प्रयुक्त वस्तुएं कितनी प्रखरता के साथ अनुप्राणित की गईं।
यज्ञ का तत्वज्ञान यहीं से आरम्भ होता है। अग्नि प्रज्ज्वलन से तो गर्मी भर पैदा की जा सकती है। जलाने पकाने से जो लाभ-हानि मोटेतौर पर हो सकती है उस परिणाम का पता लगाया जा सकता है। पर जब अग्निहोत्र की देव सत्ता का- दिव्य ऊर्जा उत्पादन की संज्ञा मिलती है तो निश्चय ही उसमें उन विधि-विधानों का चमत्कार होता है जो मात्र क्रिया-कृत्य न होकर भाव सम्वेदनाओं से भरे होते हैं और उनका सूत्र संचालन उत्कृष्ट स्तर की जीवन पद्धति अपनाने वाले याजक वर्ग द्वारा होता है। अभिमन्त्रण की शास्त्रीय परम्परा में देवत्व का समावेश करने वाला रहस्य उस संस्कार प्रकरण में ही खोजा जा सकता है जो यजन कृत्य के हर छोटे-बड़े उपकरण या कर्मकाण्ड के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा होता है। यदि उस प्राण प्रतिष्ठा की उपेक्षा की जाय और मात्र अग्नि में सुगन्धित पदार्थ भर होमे जाते रहे तो उसका प्रतिफल उतना ही होगा जितना कि अगरबत्तियों का एक गट्ठा अँगीठी पर रखकर जला देने का।
सुसंस्कारी अग्नि, समिधा, हविष्य, उपकरण, सम्बद्ध व्यक्ति एक निर्धारित पद्धति के अनुरूप संस्कारित किया जाता है। इसमें मन्त्रोच्चार से लेकर अनेक निर्धारित क्रिया-कृत्यों का समावेश करना होता है और वह कार्य बाजारू लोग नहीं ब्राह्मणोचित जीवनचर्या अपनाने वाले पुरोहित द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए सच्चे अर्थों में अग्निहोत्र हो रहा है और उसका निर्धारित प्रतिफल मिलने का आधार बन रहा है।
देव संस्कृति में हर वस्तु को संस्कारित करने पर जोर दिया गया है। स्नान जल, परोसा भोजन, शयन, जागरण आदि सभी को संस्कारवान बनाने की विधिव्यवस्था निर्धारित है और उसी को नित्य कर्म विधि कहते हैं। देव पूजा में तो प्रतिमा से लेकर उपचार सामग्री तक की दिव्यता सम्पन्न बनाने के लिए मन्त्र पाठ एवं दूसरे कृत्य करने पड़ते हैं। उससे पूजा कृत्य भावनात्मक ऊर्जा से भरा-पूरा बनता है और देखने में खिलवाड़ जैसा लगने पर भी महान परिणामों का आधार बनता है।
यज्ञाग्नि चूल्हे या अलाव में से निकालकर नहीं लाई जाती थी वरन् विधि-विधान के साथ आरणि मन्थन से उत्पन्न की जाती थी। यजन कृत्य के लिए प्रयुक्त होने वाली अग्नियाँ कर्मकाण्डी ब्रह्मवेत्ताओं द्वारा अखण्ड सुरक्षित एवं नित्य यजन द्वारा परिपुष्ट रखी जाती थी। उन्हीं को यज्ञ कार्यों में उपयोग किया जाता था। आह्वानीय, गाहिपत्य, दक्षिणाग्नि यह तीन अग्नियाँ व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं विश्व कल्याण के देव प्रयोजनों के निमित्त प्रयुक्त होती थीं। इन्हें सुरक्षित रखने तथा यजन द्वारा परिपुष्ट करते रहने वाले अग्निहोत्री शास्त्रों में ‘अहिताग्नि’ नाम से सम्मानित किये गए हैं और देव कृत्यों में उन्हें प्रमुखता प्रधानता देने का निर्देश किया गया है। अग्नि स्थापन, प्रज्ज्वलन, यजन, स्वाष्टकृत पूर्णाहुति, वसोधारा आदि की आहुतियों में विशेष मन्त्रोच्चार एवं विधि-विधान अपनाना पड़ता है। इसे संस्कार प्रकरण ही समझा जाना चाहिए।
जिस भूमि पर यज्ञ किया जाय। जहाँ वेदी या कुण्ड बनाया जाय। वहाँ भूमि शोधन संस्कार करना होता है। शास्त्रों में आया है कि भूमि की शुद्धि संमार्जन (स्वच्छ झाड़ देने), प्रोक्षण दूध, गोमूत्र या जल छिड़कने या धोने), उपलेपन (गोबर से लीपने), अवस्तरण (कुछ मिट्टी को ऊपर डाल देने) एवं उल्लेखन (मिट्टी को कुछ खुरचकर निकाल देने) से हो जाती है। जब ये विधियाँ भूमि की स्थिति के अनुसार प्रयुक्त होती हैं तो उस प्रकार की अशुद्धि दूर हो जाती है।
“भमस्तु संमार्जन प्रोक्षणोपलेपनावस्तरणोल्लेखनेर्यथा स्थान दोषविशेषात्प्रायत्यम्। (बा. घ. सू. 1। 5। 66)।
यही बात वशिष्ठ (3। 56) में भी आती है। एक अन्य स्थान पर बौधा. ध. सू. (1। 6। 17-21) में आया है- जब कठोर भूमि अशुद्ध हो जाय तो वह उपलेपन (गोबर से लीपने) से शुद्ध हो जाती है, नरम (छिद्रवती) भूमि कर्षण (जोतने) से शुद्ध होती है (अशुद्ध तरल पदार्थ से) भींगी भूमि प्रच्छादन (किसी अन्य स्थान से शुद्ध मिट्टी लाकर ढँक देने से) और अशुद्ध पदार्थों को हटा देने से शुद्ध हो जाती है।
वशिष्ठ (3। 57) ने बौधायन के समान पाँच शुद्धि साधन दिये हैं। मनु (5। 124) ने भी पाँच साधन दिये हैं- झाडू से बुहारना, गोबर से लीपना, जल-छिड़काव, खोदना (एवं निकाल बाहर करना) और उस पर (एक दिन एवं रात) गायों को रखना। विष्णु. (23। 57) ने छठा अन्य भी जोड़ दिया है, यथा- दाह (कुछ जला देना)। याज्ञ. (1। 88) ने दाह एवं काल जोड़कर सात साधन दिये हैं। वामन पुराण (14। 68) के अनुसार भूमि की अशुद्धि का दूरी करण खनन, दाह, मार्जन, गोक्रम (गायों को ऊपर चलाना), लेपन, उल्लेखन (खोदना) एवं जलमार्जन से होता है-
भमिर्विशुध्यते खातदाहमार्जन गोक्रमै। लोपादुल्लेखनात्सेकाद्वेश्म संमार्जनार्चनात्॥ (वामन पुराण 14। 68)
देवल (मिता. एवं अपरार्क, याज्ञ 1। 88) ने विस्तृत विवरण उपस्थित किया है। उनके मत से अशुद्ध भूमि के तीन प्रकार हैं, अमेध्य (अशुद्ध), दुष्ट एवं मलिन। जहाँ प्रजनन कृत्य हो, कोई मरे, या जलाया जाय या जहाँ कुकर्मी रहें या जहाँ दुर्गन्ध युक्त वस्तुओं, विष्ठा आदि की ढेरी आदि हो, जो भूमि इस प्रकार गन्दी वस्तुओं से भरी हो उसे अमेध्य घोषित किया गया है। जहाँ कुत्तों, सूअरों गधों एवं ऊँटों के निवास वाली भूमि दुष्ट कही जाती है।
इसके उपरान्त देवल ने इन भूमि प्रकारों की शुद्धि की चर्चा की है। शुद्धि पाँच प्रकार की होती है, यथा खनन, दहन, अवलेपन, वापन (मिट्टी से भर देना) एवं पर्जन्य वर्षण। इन पाँचों द्वारा अमेध्या (अनुपयुक्त) भूमि की शुद्धि की जा सकती है इन्हीं विधानों का संकेत महर्षि देवल ने इस प्रकार किया है- “दहनं खननं भूमेखलेपन वापन। पर्जन्य वर्षणं चेति शैचं पंचविधं स्मृतम्॥ पंचधा वा चतुर्धा वा भूरमेध्या विशुध्यति। द्विधा त्रिधा वा दुष्टा तु शुध्यते मलिनैकधा॥ देवल (शु. कौ.)।
यज्ञ उपकरणों में स्रुवा, स्रुचि, प्रणीता, प्रोक्षणी, आज्य स्थली चरुस्थली आदि का प्रयोग होता है। उन्हें काष्टकार से खरीदकर ऐसे ही प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। इन्हें आरम्भ में तो देव प्रयोजन में प्रयुक्त हो सकने का कृत्य करना ही पड़ता है। हर यज्ञ में उन्हें प्रयुक्त करते समय अग्नि संस्कारित करना होता है। इन्जेक्शन की पिचकारी की तरह इनका भी परिशोधन आवश्यक माना गया है। इसका निर्देशन सूत्र ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर हुआ है। शतपथ के संस्काराध्याय में समिधाओं को संस्कृत करने के लिए उसके धोने- अभिसिंचित करने का विधान है-
‘प्रोक्षणीरध्वर्युरादत्ते। स इध्ममवाग्रे प्रोक्षति ‘कृष्णोऽस्याखरेष्टोऽग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि’ - इति। तन्मेध्यमवैतदग्नये करोति॥1॥ (शतपथ 1 काण्ड। 3 अध्याय। 3 ब्राह्मण)
अर्थात्- ‘अध्वर्यु, प्रोक्षणी को लेता है। वह अध्वर्यु कृष्णस्याऽखरेष्ठोऽग्नये श्त्यादि मन्त्र बोलते हुए समिधाओं का अभिसिंचन करता है। इस प्रोक्षण कर्म द्वारा समिधाओं को यज्ञ-कर्म के अनुरूप संगमनीय पावन और पवित्र बनाया जाता है।’
मार्जनं यज्ञपात्राणं पाणिना यज्ञकर्मणि। चमसानां ग्रहाणां च शुद्धि प्रक्षालनेन तु॥ चरुणां स्रक् स्रवाणां च शुद्धिरुष्णेन वारिण। स्फ्य शूर्प शकटानां च मूसलोलूखयस्य च॥ (मनु. 5। 116-117)
अर्थात्- यज्ञ कर्म में यज्ञ पात्रों की शुद्धि हाथ द्वारा मार्जन करने से और चमस तथा ग्रह नाम के पात्रों की शुद्धि जल के धोने से होती है। चरु तथा स्रुक् और स्रुवा आदि यज्ञ पात्रों की शुद्धि गरम जल से और स्फ्य, शूर्प, शकट, मुसल और ओखली की शुद्धि जल के प्रक्षालन से होती है।’
याज्ञवल्क्य स्मृति में भी कहा है-
‘मार्जनं यज्ञपात्राणाँ पाणिना यज्ञकर्मणि।’ (आचाराध्याय, 185)
अर्थ- ‘यज्ञ-कर्म में यज्ञ पात्रों की शुद्धि दाहिने हाथ से कुशा द्वारा मार्जन करने से ही हो जाती है।’
स्वच्छता का उपयोग सर्वत्र होना चाहिए। अस्पतालों, भोजनालयों में जिस प्रकार सफाई का ध्यान रखा जाता है। उसी प्रकार यज्ञ कृत्य की प्रत्येक वस्तु तथा विधि-व्यवस्था में इस प्रकार का ध्यान रखा जाय। स्नान, शुद्ध वस्त्र धारण की मर्यादा में जहाँ स्वच्छता को आवश्यक बताया गया है वहाँ याजक को अभिमन्त्रित जल से नहाने या ‘दश स्नान’ पद्धति के अनुसार सुसंस्कारित बनाने का विधान है। स्नान के सम्बन्ध में तो और भी स्पष्ट निर्देश है:–
अस्नात्वानाचरेत्कर्म जप होमादि किंचन। - धर्म सिन्धु
अर्थात्- बिना स्नान किये जप, होम आदि नहीं करने चाहिए।
स्वच्छता और सुसंस्कारिता के समन्वय से यज्ञ की विधि-व्यवस्था देव प्रयोजन के अनुरूप बनती और अपना सत्परिणाम प्रस्तुत करती है। यही वह रहस्य है जिसे समझने और अपनाने पर शास्त्रकारों ने बहुत जोर दिया है और अभीष्ट फल प्राप्त करने के लिए इस मर्म को विस्मृत न होने देने का निर्देशन किया है।