असामयिक बुढ़ापा, अपनी ही मूर्खता का प्रतिफल

May 1983

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आयु का शरीर पर प्रभाव पड़ता तो है, पर उस प्रभाव को ऐसा नहीं कहा जा सकता जिससे उसकी कार्य क्षमता ही समाप्त हो जाये। हल्के और भारी काम करने की सामर्थ्य एक बात है और सर्वथा अशक्तता दूसरी। जिसमें मनुष्य को दूसरों पर आश्रित रहना पड़े अपनी शरीर चर्या अपने अपने द्वारा न बन पड़े तो उसे असमर्थता कहते हैं। ऐसी स्थिति तक पहुँचने जैसी मनुष्य की काय संरचना है नहीं। यह अभिशाप ईश्वर प्रदत्त नहीं, मनुष्य का स्वउपार्जित है।

मानवी सत्ता दो भागों में बंटी हुई है एक काया दूसरी चेतना। दोनों के मिलने से ही मानवी अस्तित्व का समग्र स्वरूप बनता है। इन दोनों के मध्य परस्पर सघन संबंध ही एक का दूसरे पर सुनिश्चित और गम्भीर प्रभाव पड़ता है। मतभेद का विषय इतना ही रह गया है कि इनमें से कौन वरिष्ठ और कौन कनिष्ठ है। सर्वसाधारण की मान्यता यह है कि शरीर के साथ ही मन घटता, टूटता, हारता और मरता है। जबकि विशेषज्ञ अपना भिन्न मत प्रकट करते देखे गए हैं कि शरीर पर मन का नियन्त्रण ही सुनिश्चित तथ्य है इसलिये यह माना जाना चाहिये कि मन का स्तर ही शरीर की समर्थता और असमर्थता के लिये बहुत हद तक उत्तरदायी है। इसमें अपवाद इतना ही है कि प्रकृति की सामान्य विधि-व्यवस्था के अनुसार समय के साथ-साथ शरीर भी बढ़ता और घटता है।

शरीर का बुढ़ापा चमड़ी पर झुर्रियाँ पड़ने, दाँत उखड़ने, बाल सफेद पड़ने, घुटने और कमर जकड़ने जैसे चिन्ह देखकर जाना जा सकता है, पर मन के बुढ़ापे से दूसरे ही प्रकार के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। आकांक्षाओं का सकुल जाना, निराश रहना, दोस्तों का अभाव दीखना, काम में मन ऊबना जिनमें दिख पड़े समझना चाहिये कि मन के बुढ़ापे ने घेर लिया। शरीर और मन का बुढ़ापा आमतौर से साथ-साथ आता है, पर यह आवश्यक नहीं और न अनिवार्य ही। शरीर प्राकृत पदार्थों का बना है इसलिये उस पर नियति व्यवस्था का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है, किन्तु चेतना प्रकृति का गुलाम नहीं है। उसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है वह चाहे तो अपने विचार तन्त्र को मरण काल तक सुरक्षित रख सकती है और उसे बुढ़ापे के चिन्हों से बचाये रख सकती है।

शरीर शिथिल पड़ने से इतना ही हो सकता है कि कठोर परिश्रम न बन पड़े। पर इससे क्या, मेहनत की दृष्टि से हल्के समझे जाने वाले काम भी ऐसे हो सकते हैं जो मजूरी की तुलना में कहीं अधिक ऊंचे स्तर के हैं। उन्हें हल्के-फुल्के ढंग से करते रहने में किसी वयोवृद्ध को भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये। इस प्रकार व्यक्ति मरण काल तक उत्पादक और श्रम रत बना रह सकता है। थकान काम करने से नहीं, निठल्ले बैठने, काम सामने न रहने से आती है। ऊब सबसे अधिक थकाने वाला भार डालती है। इस ऊब का कारण अनिच्छित काम का दबाव रहना या खाली बैठना ही होता है। समय काटने के लिये निरुद्देश्य खटपट की निरर्थकता समझदारी की पकड़ में आ जाती है और उस बाल-क्रीड़ा से वे लोग उद्विग्न होने लगते हैं जिनने पिछला युवावस्था वाला समय व्यस्तता और उत्कंठा के सहचरत्व में गुजारा है। यही असली बुढ़ापा है। शरीर पर झुर्री डालने वाली जरा-जीर्णता तो एक छोटा चिन्ह है। इतना छोटा जिसकी उपेक्षा भी की जा सके। जिसके कारण उत्पन्न हुई कमजोरी की हल्के कामों के साथ तालमेल बिठाकर उत्साह भरी क्रियाशीलता को जीवन्त बनाये रखा जा सके।

आदमी का महत्व जब उसकी अपनी दृष्टि में घट जाय, जब वह अपने को असमर्थ और निरर्थक समझने लगे तो समझना चाहिये कि उसे सचमुच ही बुढ़ापा मौत का चचेरा भाई है। दोनों के बीच दोस्ती भी है। जहाँ एक को पहुँचना होता है वहां दूसरे को इशारों से न्यौत बुलाता है। शरीर बूढ़ा होने पर सावधानी बरतने पर मन को जवान बनाये रखा जा सकता है।

कहते हैं कि बच्चे भविष्य की सोचते हैं। बुड्ढे भूतकाल की राम कहानी कहते रहते हैं और जवान वर्तमान की समस्याओं के समाधान में व्यस्त रहते हैं। पर उन्हें किस श्रेणी में माना जाये जो भूतकाल के गुण गाते रहते हैं और भविष्य को अन्धेरे से घिरा देखते रहते हैं। भूत वापस नहीं आ सकता। भविष्य के संबंध में हथियार ही डाल दिये गये फिर वर्तमान का नीरस और बोझिल होना स्वाभाविक है। जिन्हें ऐसे असमंजस में रहना पड़ रहा है उन्हें मौत की गोद में ही राहत मिल सकती है। विधि का विधान इन निराश्रितों की मनोकामना भी पूरी करता है और भगवान जल्दी बुला ले की उनकी मुखर या मौन प्रार्थना को स्वीकार कर लेता है। मौत भी आखिर छप्पर पर से तो नहीं कूदती उसका तरीका भी घुटन के घुन दीमक लगाकर खोखला करने और अन्ततः धराशायी करने का है। वृद्ध जन इच्छा अनिच्छा से इसी रस्से में अपने हाथ-पैर बाँध वाले और अंधकार के गहरे गर्त में गिरने के लिये घिसटते या घसीटे जाते गतिशील रहते हैं।

भविष्य से भयभीत रहने वाले, जिम्मेदारियाँ उठाने से इन्कार करने वाले, अपनी दृष्टि से अपना मूल्य गिरा लेने वाले व्यक्ति वस्तुतः बूढ़े हैं, फिर भले ही आयु की दृष्टि से युवा ही क्यों न हों। कितने व्यक्ति जवानी में भी जीर्ण-जीर्ण पाये जाते हैं जबकि कितने ही वयोवृद्धों पर जवानी छाई रहती है। न उनकी हिम्मत कम पड़ती है और न बहादुरी को कोई आँच आती है। आयु बढ़ने की यह अलामते नहीं है। यह सब तो मानसिक बुढ़ापे के चिन्ह हैं। इसी से अधिकाँश लोग घिरे देखे जाते हैं।

जो अशुभ ही सोचता है। हारने की आशंकाएँ करता रहता है। जिसे भविष्य पर विश्वास नहीं, जिसका आत्म विश्वास खोखला है, जो पराक्रम करने से डरता है, समझना चाहिये उसने बुढ़ापे के साथ अपना गठबन्धन कर लिया। ऐसा गठ जोड़ जिसके सहज टूटने की भी सम्भावना नहीं है।

बुढ़ापे में शरीर का वजन घट सकता है और दूर तक देख सकने की क्षमता में कमी आ सकती है, पर यह नहीं हो सकता कि इस कारण किसी की सृजन शक्ति घट जाये। कल्पनाएँ बचपन से प्रारंभ होती हैं और मरते दम तक साथ देती हैं। यही है वह क्षमता जो मनुष्य की बुद्धिमता, प्रतिभा और गरिमा को विकसित करती है। बुढ़ापे में इसे घटना नहीं वरन् संचित अनुभवों के आधार पर और अधिक बढ़ना चाहिये।

जीन मेसफिल्ड कहते थे- मनुष्य की सृजन शक्ति बुढ़ापे के कारण क्षीण नहीं होती वरन् तब होती है जब उसकी कमी होने से स्व रचित अन्धविश्वास में घिरता चला जाता है। जब कोई कहता है कि मेरी क्षमता चुक गई तभी वस्तुतः वैसी स्थिति पैदा होती है। यदि कोई अनुभव करता रहे कि उसकी मौलिक क्षमता यथावत् विद्यमान है और मात्र अंग अवयव ही आयु के अनुसार ढीले पड़े हैं तो ऐसा व्यक्ति उम्र के बढ़ते जाने पर भी बूढ़ा ना होगा।

एडीसन ने लिखा है- जंग लोहे को खा जाती है। शीत में पानी जम जाता है। इसी प्रकार हिम्मत हार जाने की मनःस्थिति में मनुष्य वस्तुतः असमर्थ हो जाता है।

सिसरो ने इस मान्यता को गलत बताया है कि बुढ़ापे में स्मरण शक्ति चली जाती है। वे कहते हैं मैंने ऐसा कोई बूढ़ा नहीं देखा जो जमीन में गढ़े धन की संख्या या स्थान भूल गया हो। विस्मृति उन बातों की होती है, जिनमें दिलचस्पी नहीं होती जो बेकार प्रतीत होती हैं। क्या जवानी व बुढ़ापे का विस्मरण कारण एक ही है-दिलचस्पी का कम होना। यह कमी उन प्रसंगों में पड़ती है उन्हें महत्वहीन समझा जाता है। जिन्हें महत्वपूर्ण समझा जायेगा उनके सम्बन्ध में विस्मरण होने जैसी कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होगी। मनुष्य अपने समीपवर्ती व्यक्तियों, पदार्थों या उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करते हैं और विस्मृति पर दोषारोपण करते हैं।

सुकरात की बौद्धिक क्षमता 71 वर्ष की आयु में भी ठीक वैसी ही थी जैसी कि 40 वर्ष पूर्व की आयु में। मिल्टन की अधिक प्रख्यात और वजनदार कविताएँ उसने 60 वर्ष के होने के उपरान्त लिखी थी।

मावटियर कालिन्स कहा करते थे- “समय आदमी के शरीर को चुनौती दे सकता है, किन्तु वह इतना प्रबल नहीं है कि उसके आगे जीवट को हार माननी पड़े।”

सेमुआल जेन्सन के अनुसार सृजन की सामर्थ्य सृष्टि के आदि में आरम्भ हुई और मनुष्य को ईश्वर को विरासत के रूप में मिली। कौन है जो उसे छीन सके। फिर बेचारे बुढ़ापे की क्या विसात जो किसी को सृजन प्रयोजन में आजीवन संलग्न रहने से रोक सके। यह कर सकना तो बुढ़ापे के बस की बात भी नहीं है।

डा. सी.वाय कैम्पटन कहते थे- आज का आदमी स्वाभाविक मौत नहीं मरता वह अपने हाथों धीरे-धीरे आत्म-हत्या करते रहने में लगा रहता है।

यह धीमी आत्महत्या क्या है? इसका उतर है अवयवों की कार्यक्षमता का अस्वाभाविक रूप से- अनावश्यक तेजी से ह्रास। ऐसी घटोत्तरी का प्रकृति व्यवस्था में कोई स्थान नहीं। यह मनुष्य का अपना ही कर्तव्य है भले ही वह जानबूझ कर किया गया हो यह अनजाने ही चलता रहा हो। यह ख्याल सही नहीं है कि अधिक काम करने से आदमी जल्दी मरता है। यह बात अतिवाद बरतने के संबंध में ही सही हो सकती है वस्तुतः अस्त-व्यस्तता, अनियमितता प्रकृति नियमों के प्रति बरती गई उपेक्षा, अवज्ञा ही शक्ति क्षय का आधारभूत कारण होती है।

9 वीं सदी से लेकर 16 वीं सदी तक रसायन वेत्ताओं ने पारे को माध्यम बनाकर दो प्रयोगों पर अपना ध्यान विशेष रूप से केन्द्रित रखा है और सफलता पाने के लिये उन दोनों से जो सम्भव था वह सब कुछ किया है। एक प्रयत्न है तांबे और पारे के संयोग से सोना बना लेना। दूसरा है कि कोई औषधि बना लेना जिससे मनुष्य अमर न सही चिर यौवन का आनंद प्राप्त कर सके- बुढ़ापे को युवावस्था में बदल सके। इस सम्बन्ध में सफलताओं की चर्चा में कितनी ही किम्वदंती तो सुनी जाती हैं किन्तु ऐसे सुनिश्चित प्रमाण नहीं हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि इस प्रयत्न में कोई कहने लायक सफलता मिली। अभी भी उस शृंखला के छुटपुट प्रयत्न चलते रहते हैं और उनकी सफलता में आशा उत्साह भरने वाली कई किम्वदंतियां सुनने को मिलती हैं किन्तु प्रमाणों के अभाव में विज्ञ समाज ने उस दिशा में अधिक प्रयत्न करने में रुचि नहीं ली।

वृद्धता के पर्यवेक्षण का अब एक स्वतन्त्र विज्ञान ही विकसित हो गया है। उसका नाम है- जेरेंटोलॉजी उसमें कलपुर्जों का घिस सकना, ताजगी का कठोरता में बदल जाना तथा कोशाओं की क्षतिपूर्ति न हो पाना प्रकृति क्रम के अनुरूप कारण बताया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि वृद्धता में मानसिक मान्यताओं का बड़ा योगदान है। कोई व्यक्ति बुढ़ापे की बात अधिक सोचे तो उसे समय से पूर्व ही जीर्ण-जीर्ण होना पड़ेगा। इसके विपरित इसके विपरित यदि कोई अपने को युवक मानता रहे और भविष्य को युवकों जैसा होने पर विश्वास करे तो यौवन की अवधि लम्बी हो जायेगी और बुढ़ापा धीरे-धीरे आयेगा- गहरा न होगा और वैसा कष्ट न देगा जैसा कि मानसिक वृद्धता से ग्रसित लोगों को देता है।

अधिक तापमान में रहने वाले अथवा भीतरी क्षेत्र में उत्तेजना उत्पन्न करने वाले लोग प्रायः आत्म जीवी होते हैं। उनकी तुलना में ठंडे क्षेत्रों में रहने वाले तथा आहार-विहार एवं चिन्तन में ठंडक को स्थान देने वाले देर तक जीवित रहने वाले पाये गए हैं। शरीर पर हल्का-फुल्का दबाव रहे और मानसिक स्थिति हंसने-हंसाने जैसी बनी रहे तो लम्बी आयुष्य संभव होती है। उद्विग्न और असंतुष्ट व्यक्ति जल्दी मरते हैं। यह मानसिक दबाव बीमारियों की तरह ही काया को घुलाता है और समय से पूर्व मरने की परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।

लम्बी और गहरी साँस लेने की आदत से फेफड़े मजबूत बनते हैं और अधिक आक्सीजन मिलती है। इस संदर्भ में बरती गई सावधानी आयु की लम्बाई बढ़ा देती है जबकि झुककर बैठे रहने वाले श्रम न करने वाले उथली साँस लेते हैं फेफड़े आशक्त होते जाते हैं साथ ही आक्सीजन न्यून मात्रा में मिलने के कारण पोषण की कमी और जिन्दगी का वृद्धि का क्रम चलते रहने के कारण भी अकाल मृत्यु का संकट उत्पन्न होता है। बुढ़ापा इसी का पूर्व सन्देश है। परिश्रम न करने वाले आलसी या अमीर- श्रमजीवियों की तुलना में अधिक जीते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि कम परिश्रम करने से शक्ति का व्यय कम होगा और सामर्थ्य का भण्डार भरा रहेगा। यह प्रतिपादन अतिशय- सामर्थ्य से कहीं अधिक श्रम करने पर ही लागू होता है। सामान्यतया भीतरी और बाहरी अवयवों का क्रिया-कलाप गतिशील रखने के लिये श्रम संलग्न रहने की भी आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना पुर्जे अपनी स्वाभाविक क्षमता गंवाते चले जाते हैं और जंग खाये हुए लोहे की तरह निरर्थक बन जाते हैं। अशक्ति का यह भी एक बड़ा कारण है।

वैज्ञानिकों ने यह विश्वास व्यक्त किया है कि थकान के कारण जिनकी मृत्यु हुई है उनके मृत शरीर को लम्बी अवधि तक शीत तापमान में सुरक्षित रखा जाये तो उपयुक्त अवधि तक विश्राम पाने के उपरान्त मृतक जीवित हो सकते हैं। उन्हें इसी काया में पुनर्जन्म मिल सकता है।

इस विश्वास का परीक्षण करने के लिये कितने ही अमीर अमेरिकियों ने अपने शरीर को मृतक होने पर सुरक्षित रखे जाने की व्यवस्था की है। लम्बे समय तक शीत प्रबन्ध करने तथा देखभाल की व्यवस्था बनाने में प्रायः 90 हजार डालर खर्च बैठता है। बीस अमेरिकी ने समय से पूर्व ही यह राशि इस प्रयत्न में संलग्न वैज्ञानिकों को सौंप दी। इनमें जो मर चुके उनके शव निर्धारित योजना के अनुरूप शीत भण्डार में यथावत रख भी दिये गए हैं।

कनाडा के मूर्धन्य शरीर विज्ञानी एल्विन टॉफलर ने एक असाधारण मृत्यु का सविस्तार वर्णन किया है और उससे निकले निष्कर्षों को बहुत गम्भीरता से लिया है और समूची मनुष्य जाति के लिये एक चेतावनी के रूप में प्रस्तुत किया है।

कुछ दिन पूर्व कनाडा में एक 11 वर्षीय बालक की कुछ अनोखे रूप में मृत्यु हुई, न गम्भीर बीमारी में ग्रसित हुआ न कोई अन्य ऐसे कारण देखे गए जिससे इस छोटी आयु में अकारण मृत्यु हुई। चिकित्सकों के लिये यह आश्चर्य का विषय था। शब्दच्छेद हुआ। पाया गया कि लड़का असमय की वृद्धता का शिकार होकर मरा है। उसमें वे सभी लक्षण उभर आये थे जो 80-90 वर्ष के जरा जीर्णों में मृत्यु से पूर्व स्वाभाविक रूप से देखे जाते हैं। भीतर ही भीतर उसका हर अवयव जीर्णता ग्रस्त जर्जर हो गया था।

कनाडा के मूर्धन्य शरीर शास्त्रियों पर इस बीमारी को “प्रोजीरिया” अर्थात् समय से पूर्व का बुढ़ापा नाम दिया और इस चेतावनी को ध्यान में रखते हुए व्यापक जाँच-पड़ताल की कि कहीं यह बीमारी गुपचुप अन्य शरीरों में प्रवेश नहीं कर रही है। अनेक चिकित्सकों ने अपने-अपने रोगियों की जाँच-पड़ताल की तो पाया कि जवानी में मनुष्य को जिन विशेषताओं से भरा-पूरा होना चाहिये उनमें भारी कमी पड़ रही है और असमय की वृद्धता का प्रवेश उन अनेक शरीरों में हो रहा है जो बाहर से देखने में सामान्य प्रतीत होते हैं।

डा. एल्विन ने इस संदर्भ में सुविस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है और कहा है कि यह बढ़ता हुआ मर्ज अगले दिनों समूचे मनुष्य समुदाय को अपनी चपेट में ले सकता है। चिकित्सकों के पास इसका कोई उपचार भी न होगा।

क्योंकि यह किसी बाहरी आक्रमण का प्रतिफल नहीं है। यह प्राकृतिक जीवन के व्यतिक्रम का ही परिणाम है जिसके दबाव से स्वाभाविक जीवनी शक्ति का बेतरह ह्रास होता है और अवयवों को उपयुक्त पोषण विश्राम न मिलने के कारण वे थकते टूटते चले जाते हैं।

वे कहते हैं बढ़ती हुई व्यस्तता, उद्विग्न, विलासिता और एकाकी जीवन के कुचक्र में लोग फंसते जा रहे और अपने अस्तित्व तक को विस्मरण किये दे रहे हैं। यही क्रम चलता रहा तो लोग असमय वृद्ध होते और अकाल मृत्यु के शिकार होते चले जायेंगे। यह वंशानुक्रम के आधार पर नई पीढ़ियां वृद्धता साथ लेकर ही जन्म लेंगी।


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