आनन्द रुपमृत यद्विभाति

September 1982

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हमारे ऋषि कह गये हैं कि “आनन्द से ही सभी जीवों की उत्पत्ति होती है। उसी से वे विकास पाने और अन्त में आनन्द में ही लीन हो जाते हैं।” इसका अर्थ यह नहीं कि ऋषियों को प्रकृति के नियमों का ज्ञान नहीं था अथवा वे कल्पना जगत में इतना विचरण करते थे कि उन्हें वस्तुस्थिति का ज्ञान नहीं रहता था। वायु, अग्नि और मृत्यु भी प्रकृति के कठोर अनुशासन में बंधे हैं, यह भी वे जानते थे। फिर भी उनका अन्तः-कवि हृदय आनन्द विभोर होकर यह गीत गाता था। आनन्द से ही सब जीव उत्पन्न होते हैं, विकास पाते हैं और आनन्द में ही जाते हैं। “आनन्द रुपमृत यद्विभाति” यह कहते हुए वे सृष्टि के आनन्द स्वरूप का ही वर्णन करते थे। आनन्द की पूर्णता की स्वाभाविकता ही इसी में है कि वह इस रूप में जो नियम व्यवस्था है, विधि अनुशासन हैं-अपनी अनुभूति करें-स्वयं को प्रकट करें। रूप हीन आनन्द रूप में प्रकट होने के लिये रचना करता है। गायक का आनन्द संगीत में, नर्तक का नृत्य में, कवि का छन्दों के रूप में प्रकट होता है। मनुष्य का असोध आनन्द भी कई रूपों में प्रकट होकर मनुष्य को निर्माता की पदवी दे देता है।

यह आनन्द जिसे-प्रेम-रस भी कहते हैं, स्वभाव से ही द्वित्वमय है। यह व्यक्ति को तो उसकी अनुभूति कराता है, आस-पास परिकर को भी उसके अन्तः के उल्लास का परिचय देता है। गायक गीत गाते हुए श्रोता भी होता है। प्रेमी अपनी प्रिय वस्तु के माध्यम से अपने ही रूप की छाया देखता है प्रिय वस्तु से वियोग की कल्पना भी उसी के आनन्द की कृति है जो वियोग के बाद फिर मिलन की इच्छा बन जाती है। परमात्मा का यह शाश्वत स्वरूप इन सबक अन्दर विद्यमान है। प्रेम साधना से-आत्मीयता विस्तार से-आनन्द उल्लास को बिखेर कर हम सब उसका प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं-यह एक शाश्वत सत्य है।


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