मनोविज्ञान को नीति विरोधी न बनने दिया जाय

September 1982

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मनुष्य में भी अन्य प्राणियों की तरह कुछ जन्मजात प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। वे पूर्ण संचित अनुभवों एवं अभ्यासों का प्रतिफल है। विकास क्रम की लम्बी मंजिल पूरी करते-करते उसे बहुत कुछ भूलना और सीखना पड़ा है। इसी समुद्र मन्थन की उपलब्धियों से जितनी कुछ पूँजी हस्तगत है, उसी पिटारी को संचित प्रवृत्तियाँ कहा जा सकता है।

विगत शताब्दी के मनोवैज्ञानिकों ने इन प्रवृत्तियों को असाधारण महत्व दिया है और लगभग पत्थर की लकीर जैसी मान बैठने की भूल की है। सामान्य-जन प्रेरणाओं से प्रेरित होकर रुचि लेते और कर्म करत हैं उसका पर्यवेक्षण करने पर उन्हें जिन अंतःप्रेरणा का पता चला है उन्हें उन्होंने मौलिक प्रवृत्तियाँ मान लिया और यह कहना आरम्भ कर दिया कि वे अकाट्य हैं। इन्हीं के समन्वय से व्यक्ति त्व बना है। इसलिए इन्हें हटाने की अपेक्षा तुष्ट करना चाहिए। इस प्रतिपादन का फल यह हुआ कि मनुष्य की स्थिति कठपुतली जैसी मानी गई और सोचा गया है कि जड़ पदार्थों की तरह ही मनुष्य की प्रकृति को बदलना भी अशक्य है। इस चिन्तन में मौलिक भूल यह होती रही है कि विकासवाद के उन सिद्धान्तों को भुला दिया गया जिन्हें अपनाकर एक कोशीय स्थिति से आगे बढ़ते-बढ़ते उस स्थिति तक पहुँचा जिसमें आज है। इस बीच जहाँ उसने अपनी काय संरचना में आश्चर्यजनक परिवर्तन किए वहाँ पुरानी आदतों, प्रवृत्तियों को भी सुधारता, समुन्नत बनाता चला गया। यदि यह क्रम भूतकाल में अपनाया जाता रहा है तो मनुष्य जीवन में प्रवेश पाने के उपरान्त वह प्रक्रिया क्यों समाप्त हो जायगी? और क्यों तथाकथित मूल प्रवृत्तियाँ जड़वत् जहाँ की तहाँ बनी रहेंगी? क्या मनुष्य शरीर प्राप्त करते ही अब तक की प्रवृत्ति परिष्कार प्रक्रिया समाप्त हो जायगी?

विकासवाद और मनोविज्ञान की यदि संगति बिठाई जाय तो भी यह आग्रह समाप्त हो जाता है कि मूल प्रवृत्तियों को परिष्कृत करने का प्रयास छोड़कर उनके तुष्टिकरण के लिए सिर झुका दिया जाय और रीति-नीति ऐसी अपनाई जाय जो प्रवृत्तियों के अनुरूप हो। देखना यह है कि मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्तियाँ क्या है? यों सभी मनोविज्ञानी इस संदर्भ में एकमत तो नहीं हैं फिर भी उन सबके प्रतिपादनों का जो सार निकलता है उसे इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है। (1) कामुकता (2) आत्मरक्षा (3)आक्रमण (4) वरिष्ठता (5) साहचर्य (6) अनुकरण (7) ईर्ष्या (8)दुराव (9) आधिपत्य आदि।

कहा जाता हैं कि इन्हीं उत्तेजनाओं से प्राणियों की विभिन्न प्रकार की आकांक्षाएँ उत्पन्न होती हैं और उनकी पूर्ति के लिए तरह-तरह के उपाय सोचने एवं प्रयत्न करने पड़ते हैं। आज की तुलना में कल अच्छा स्थिति प्राप्त करने में अपने पुरुषार्थ जगाने, साधन बढ़ाने पड़ते हैं और दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा में उतरना पड़ता है। उसी आधार पर जीवनचर्या चलती और कुशलता तथा सुविधा बढ़ती हैं। यह भी कहा जाता है कि यदि इस प्रवृत्ति प्रवाह में अवरोध खड़े किए जाएँगे तो मानसिक कुण्ठाएँ बढ़ेगी और उनका शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ेगा और प्रगति क्रम में भी अवरोध उत्पन्न होगा।

यदि उपरोक्त प्रतिपादन को सही माना जाय तो उस ‘सर्वाइवल आँव फिटेस्ट’ के सिद्धान्त को भी सही मानना पड़ेगा जिसमें जंगल के कानून का समर्थन किया गया है। छोटी मछली को बड़ी मछली निगलती है, छोटे पौधों की खुराक ऊपर छाये हुए बड़े वृक्ष खा जाते है-वाली बात ही यदि प्रकृति को स्वीकार है तो फिर ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली उक्ति को ही न केवल प्राणि समुदाय में वरन् मनुष्यों में भी चरितार्थ होता पाया जाएगा, अथवा प्रगति के निमित्त वैसा प्रचलन आरम्भ करना पड़ेगा।

विचारणीय यह है कि क्या सचमुच ही इस जगत में उपभोग, आक्रमण की वृत्तियाँ ही प्रधान रहेंगी और उसी आधार पर कुछ बलिष्ठों को जीवित रहने और शेष दुर्बलों को उनका शिकार बनते जाने का सिलसिला चल पड़ेगा। अभी तो यह प्रवृत्ति मात्र माँसाहारी जीव जन्तुओं में ही पाई जाती है और वह एक सीमित वर्ग पर ही लागू होती है, पीछे जब यह मान्यता प्रकृति प्रेरणा के नाम पर जोर-शोर से समर्थन प्राप्त करने लगेगी तो अपने पराये का भी भेद न रहेगा और जो वर्ग अभी सीमित उस आक्रामकता से बचे हुए हैं वे भी उसकी चपेट में आ जायेंगे? सिंह, व्याघ्र मात्र कुछेक पशुओं को ही बैठकर दाँतों में फँसा माँस निर्भय होकर निकालते कुरेदते रहते हैं, उनके लिए कोई संकट उत्पन्न नहीं होता। जलचर, थलचर, नभचर अपने-अपने वर्ग के कुछेक प्राणियों को आहार बनाते हैं और शेष के साथ छेड़खानी नहीं करते। पर जब भूख के लिए नहीं प्रगति के लिए आक्रामक वृत्ति का तुष्टिकरण आवश्यक माना जाएगा और उसके लिए अधिकाधिक अवसर प्राप्त करने का उत्साह उठेगा तो उसके लिए क्षेत्र विस्तार की आवश्यकता पड़ेगी और अधिकाधिक आक्रमण करने, अधिकाधिक लाभ उठाने की यह सामंतशाही एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन जायगी जिसने मध्यकाल के अन्धकार युग में सारे नीति-नियम उठाकर ताक पर रख दिये थे और खुली लूट, कत्लेआम, युवा-युवतियों का दास-दासियों के रूप में अपहरण एक राज्य नियम बना दिया था। उन दिनों की रोमांचकारी घटनाओं की स्मृतियाँ तक आज भी दिल दहला देती हैं और गुहार उठती हैं कि हे भगवान् वे दिन लौटकर इस धरती पर फिर कभी न आयें।

उस मदान्ध प्रचलन को यदि मूल प्रवृत्तियों का तुष्टिकरण करने के नाम, प्रकृति प्रेरणा या प्रगति व्यवस्था में सम्मिलित करके लोक मान्यता स्तर तक पहुँचा दिया गया तो फिर अन्य प्राणियों का तो इस धरती से अस्तित्व उठ ही जाएगा, मनुष्य भी सुन्द-उप-सुन्द की कथा को चरितार्थ करते पाए जायेंगे और भाई को भाई का खून पीते देखा जाएगा । पूर्वजों के उत्तराधिकार में भाई ही प्रथम प्रतिद्वन्द्वी होता है। जब आक्रामकता और प्रतिद्वंद्विता ही नीति रही तो अन्यों पर आक्रमण करने से पहले भाई को ही क्यों न समाप्त किया जाय? ताकि बँटवारे में जो घाटा पड़ने वाला था उसकी आशंका हो न रहे।

जब कामुकता प्रकृति प्रेरणा हैं और उत्साह उभारने के लिए आवश्यक हैं तो उसकी पूर्ति के लिए जहाँ-तहाँ भटकने का, नया झंझट बढ़ाने की क्या आवश्यकता हैं? परिवार की स्त्रियाँ जो पहले से ही घर में रहतीं और खर्च कराती हैं उन्हीं से काम तृप्ति का काम भी क्यों न चला लिया जाय। बहिन या बेटी का अन्यत्र विवाह करने की क्या आवश्यकता? पिता, भाई आदि उन्हीं से संपर्क बनाकर सरलतापूर्वक तृप्ति क्रम क्यों न चलाते रहें! जब नीति-मर्यादाओं का मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्तियों में कोई स्थान ही नहीं है तो उन परम्पराओं का निर्वाह क्यों किया जाय जिनका समर्थन उपरोक्त मल प्रवृत्तियाँ नहीं करतीं?

बच्चों को प्यार, दुलार देने और उनका पालन करने में एक ऐसा तत्व ही काम करता है जिनका न तो अर्थशास्त्र समर्थन करता है और न जिससे सुविधा संवर्द्धन में कोई सहायता मिलती है। ऐसी दशा में वात्सल्य को क्यों न प्रतिगामिता, कुरीति, मढ़ मान्यता घोषित करके उसे समाप्त कर दिया जाय? आँगन में उगने, फलने वाले शाक-भाजी पकाकर खाए जा सकते हैं तो बाल-बच्चों का वैसा ही उपयोग क्यों नहीं हो सकता।

ऐसी दशा में दया, उदारता, सेवा, दान, परोपकार जैसा उन सत्प्रवृत्तियों के समर्थन का भी कोई आधार नहीं रह जाता जो आत्म-रक्षा सुरक्षा, ईर्ष्या, आक्रामकता आदि किसी भी मूल प्रवृत्ति का समर्थन नहीं करतीं।

मूल प्रवृत्तियाँ यदि वही हैं जिन्हें फायड या उनके साथी प्रतिपादित करते हैं तो उनके साथ एक तथ्य और भी जुड़ा हुआ समझा जाना चाहिए कि प्रगति क्रम में मिली आ रही पुरानी आदतें भर हैं। आदतों की जड़ें यों होती तो गहरी हैं, पर साथ ही समयानुरुप वे बदलती भी रहती हैं। बचपन से लेकर यौवन काल में पहुँचने तक ढेरों बार आदतें बदल जाती हैं। छोटा बच्चा वातावरण का निरीक्षण करने और पड़े रहने को तुलना में खड़े होने या घूमने की इच्छा से अभिभावकों की गोदी में चढ़ने का प्रयत्न करता है और उसके लिए संकेत करने से लेकर मचलने तक का उपक्रम करता है किन्तु दो-तीन वर्ष का होते ही वह आदत बदल देता है और अपने पैरों चलने लगता है। इसी प्रकार असमर्थ रहने तक दूसरों का सहयोग पाकर काम चलाने की प्रवृत्ति भी हट जाती है। इतना ही नहीं उसमें लज्जा संकोच का अनुभव भी होने लगता है। शिशु की इच्छा होते ही कहीं भी मल-मूत्र त्यागने में संकोच नहीं होता किन्तु बड़ा होते ही समय और स्थान की अनुकूलता न होने तक उन्हें इस पर रोकथाम भी लगानी पड़ती है। ऐसे-ऐसे उदाहरण आये दिन देखे जाते हैं। विवाह के उपरान्त लड़कियों की आदत नई परिस्थितियों के अनुरूप किस तेजी से बदलती है इसे देखकर आश्चर्य होता है। परिस्थितियों के साथ ताल-मेल बिठाने में मनुष्य अपने स्वभाव, अभ्यास में किस प्रकार कितना परिवर्तन कर लेता है इसे कैदी, सैनिक और संन्यासी की पूर्व परिस्थितियों के साथ तुलना करने पर लगता है कि न केवल परिस्थितियों में जमीन आसमान जैसा अन्तर आ गया वरन् स्वभाव भी बदल गया। साथ ही नया ढर्रा में रहने के लिए फिर से किसी प्रकार जेल में जा पहुँचें और निश्चिन्तता पूर्वक दिन गुजारे । आरम्भ में उन्हें जेल का प्रवेश कष्टकारक लगा होगा, पर बाद में तो वही अनुकूल बन गया और संतोषजनक लगने लगा।

यह उदाहरण बाहरी आदतों के सम्बन्ध में है। मूल प्रवृत्ति इससे गहरी होती है और प्रेरणा उत्पन्न करने वाले अन्तराल के साथ सम्बद्ध होती हैं। इतना होते हुए भी उन्हें अपरिवर्तनीय नहीं कहा जा सकता। मूल प्रेरणा में सुविधा संवर्धन, गौरव-सम्पादन कामोपभोग जैसे तथ्य भी जुड़े हो सकते हैं। पर वे इतने प्रबल नहीं है कि नैतिक परतों के साथ विग्रह खड़ा करें या उनके अनुशासन की सर्वथा उपेक्षा करने लगें। यदि ऐसा होता तो सदुद्देश्यों के लिए कोई त्याग-बलिदान की बात सोचने या करने में समर्थ हो न होता, वैसी उमंगें हो किसी के भीतर न उठतीं। वयस्क पुत्री के साथ अवसर मिलने पर पवित्रता बनाए रहने तक किसी के लिए भी शक्य न रहा होता। पर देखा इससे विपरीत ही जाना है। कसाई भी अपने बालकों तथा परिजनों को प्यार करते हैं और सहानुभूति भरा उदार व्यवहार करते हैं। आक्रमण की मूल प्रवृति को निरन्तर परिपोषण मिलते रहने पर तो कसाइयों को सर्वथा क्रूर हो जाना चाहिए था। पर ऐसा कुछ होता नहीं है इससे प्रकट होता है कि मूल प्रवृत्तियाँ अकाट्य नहीं है।

गत शताब्दी के मनोविज्ञानी शोधकर्ताओं ने लगता है उथले अन्वेषणों में सन्तोष कर लिया है। सम्भव है उसने ओछे स्तर के, नैतिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को अपने अन्वेषण का निमित्त कारण चुना हो। हो सकता है उन्हें शोधकाल की वर्तमान स्थिति को ही सब कुछ मान बैठने का भ्रम रहा हो। यदि ऐसा न होता तो उन्हें मूल प्रवृत्तियों में कुछ और भी ऐसी बातें मिल सकती थीं जो आदर्शवादी आदतों की पुष्टि करती और बताती कि वे भी अवसर पाते ही प्रकट और प्रखर हो सकती हैं। माता का सन्तान के प्रति जो भावभरा अनुदान होता है उसे कहीं से सिखाने-सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती और न उसके लिए कोई दबाव डालना पड़ता है। वह सब कुछ भीतर से ही उभर कर आता है। पीड़ितों के प्रति करुणा का, देशभक्ति जैसे उच्च उद्देश्यों के लिए प्राण उत्सर्ग करने का, ईश्वर भक्ति में भाव-विभोर होकर वैराग्य लेने की जो उमंगें अन्तराल में उठती हैं उन्हें भी किसी मूल प्रवृत्ति का कारण होना चाहिए। यह सोचा गया होता तो विश्लेषण कर्ताओं को जितने सूत्र हाथ लगे हैं वे अधूरे प्रतीत होते और उस शृंखला में उनने ऐसी खोजें भी की होती जो मूल प्रवृत्तियों की उत्कृष्ट परमार्थ परायणता को भी सम्मिलित कर लेती।

आदर्शवादिता का आचरण अपनाने पर अन्तराल में एक अलौकिक सन्तोष की अनुभूति होती है। यों बाहर से उसमें अनुदारता या अनाचार अपनाने की तुलना में घाटा, उपहास आदि सहने की ही अधिक सम्भावना रहती है। इतने पर भी यह सन्तोषानुभूति क्यों उठती हैं? चित्त में शान्ति और प्रसन्नता क्यों लगती है? इसका कारण भी किसी न किसी मूल प्रवृत्ति से जुड़ना चाहिए था। हिंस्र प्राणियों का आहार के लिए आक्रमण करना प्रकृति प्रेरणा भी कहा जा सकता, पर मनुष्य जैसे शाकाहारी, समूहवादी आदर्श में गरिमा अनुभव करने वाले विकसित प्राणी को भी उसी प्रवृत्ति का अनुयायी मान बैठना गलत है। प्रवृत्तियों के विश्लेषण से जो निष्कर्ष निकले हैं वे एक पक्षीय एवं एक परिस्थिति की परिस्थिति बालों को सामने रखकर किए गए प्रतीत होते हैं। अन्यथा आदर्शवादी जीवनयापन करने वालों की उच्चस्तरीय आदतों को भी शोध-क्षेत्र में सम्मिलित किया गया होता और देखा गया होता कि जिन्हें आधारभूत प्रेरणा माना जा रहा है, वे शाश्वत नहीं, मात्र परिस्थितिजन्य हैं। परिस्थितियाँ बदलने पर उनमें आमूलचूल परिवर्तन होना सम्भव है। जबकि हर प्राणी को मरण से भय लगता है और खतरे से बचने के लिए भाग खड़े होने की सूझती है तब सैनिक छावनियों में रहने वाले क्यों निरन्तर मौत के साथ खिलवाड़ करने में रस लेते और गर्व अनुभव करते देखे जाते हैं। वे युद्ध मोर्चे पर प्रबल शत्रु को देखते ही भाग खड़े होने की बात क्यों नहीं सोचते? देवभक्तों को सारा जीवन त्याग बलिदान से भरा-पूरा रखे रहने में स्वार्थ पोषक मूल प्रवृत्तियाँ बाधक क्यों नहीं बनती?

काम प्रवृत्ति यदि जन्मजात है और माता का स्तन पान करने में भी उसी कारण आनन्द मिलता है तो समर्थ होने पर सन्तान अपनी माता के साथ रमण करने में उत्सुकता क्यों नहीं प्रकट करती? ऐसे कुछ प्रश्न वर्तमान मनोविज्ञानियों की सूझ-बूझ से बाहर ही बने रहे होंगे। अन्यथा जान-बूझकर वे इतनी बड़ी समस्याओं को क्यों अनदेखा करते और क्यों अनसुलझा छोड़ देते?

नीति निष्ठा थोपी हुई वस्तु नहीं है। उत्कृष्टता को मूल प्रवृत्तियों के विपरीत कहा जाय तो फिर मानवी सुसंस्कारिता को भी अमान्य ठहराना पड़ेगा और प्रगति अद्यावधि इतिहास को झुठलाकर कोई ऐसा प्रतिपादन खोजना पड़ेगा जो पशु प्रवृत्तियों को ही आधारभूत कारण ठहराए रहकर भी भावनात्मक उत्कर्ष का कोई और कारण सिद्ध कर सके।

प्रवृत्तियों की प्रौढ़ता और समर्थता को मान भी लिया जाय और यह हठ किया जाय कि वे चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई ही हैं तो भी उसमें इतना सुधार तो बिना किसी असमंजस के किया जा सकता है कि उनकी तृप्ति के लिए ऐसे आधार भी ढूँढ़े जा सकते जो नीति-निष्ठा के साथ विग्रह न करें। प्रवृत्तियाँ काय तृप्ति और मनःतुष्टि के काम आती हों तो भी ऐसे अवसर उपलब्ध हो सकते हैं जिनमें स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय हो सके। इतना तो और भी अधिक सम्भव है कि सामान्य हास-परिहास से, विनोद कौतुक से भी उन्हें सन्तुष्ट किया जा सके।

जो हो, विज्ञ जनों ने देर से सही यह अनुभव किया है कि विज्ञान के नाम पर यदि उपयोगी मर्यादाओं का उल्लंघन चल पड़ा तो बाँध टूटते ही बाढ़ का पानी सर्वत्र फैलता चला जायेगा और खेत-खलिहानों घर-झोपड़ों को निस्सार करके रहेगा। अतएव वह आवश्यक है कि मानवी प्रगति की आधारभूत आदर्शवादी सत्प्रवृत्ति को इस प्रकार अस्त-व्यस्त नष्ट-भ्रष्ट न होने दिया जाय। इसके लिए उन्होंने मानवशास्त्र की अधूरी खोजों को अपर्याप्त माना और जो खोजना शेष रह गया है उसे पूरा करने का कदम बढ़ाया है। पिछली शताब्दियों में हुए थे और भ्रमवश नीति-विरोधी उच्छृंखलता समर्थक समझे गये थे। अब उनमें समुचित संशोधन किया जा चुका है। अपेक्षा यह की जा सकती है कि जब मनो विज्ञान वर्तमान प्रायः सन्धि को पार करके प्रौढ़ता तक पहुँचेगा वैसे ही प्रतिपादन करेगा जैसे कि दूरदर्शी मंचों से की जाती है।


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