यज्ञ ऊर्जा की अनुपम एवं अदभूत समर्थता

September 1982

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चेतना जगत की हलचलें जिसे ऊर्जा के माध्यम से गतिशील रहती है वह है-शब्द पदार्थ जगत की क्रिया-शीलता के पीछे जिस ऊर्जा का उपयोग होता है वह है-ताप धरती पर जिस स्तर का जीवन विद्यमान है और जिस प्रकार हलचलें होती रहती हैं उनमें सूर्य ताप की प्रधान भूमिका है। सौर मण्डल के जिन ग्रह-उपग्रहों में सूर्य ताप की जहाँ असन्तुलित स्थिति है वहाँ आग के गोले जैसी या हिम खण्ड जैसी स्थिति बनी हुई हे। धरती को जो सौभाग्य मिला है उसमें उसकी निजी संरचना का उतना महत्व नहीं जितना कि सौर ऊर्जा के सन्तुलित अनुदान का। इसलिए सूर्य को इस पदार्थ जगत की आत्मा कहा गया है-सूर्य आत्मा जगतस्थुषरच।”

यों पदार्थ जगत की साँचाना में अन्य तत्वों का भी सम्मिश्रण है, पर जहाँ तक क्रियाशीलता का सम्बन्ध है वहाँ अग्नि को ही प्रधानता देनी पड़ेगी। ताप और क्रियाशीलता एक प्रकार से पर्यायवाची ही समझे जा सकते है। शरीर का तापमान समाप्त होते ही न कोई अंग अवयव काम करता है न उसमें जीवन के चिह्न ही शेष रह जाते है। अन्य जीवधारियों के जगह की सबसे छोटी इकाई परमाणु मानी जाती है। अव उसके अन्तर्गत विद्यमान इलेक्ट्रान, प्रोटान आदि की उपस्थिति एवं मध्यवर्ती ‘न्यूक्लियस’ के सम्बन्ध में भी विस्तृत जानकारी प्राप्त कर ली गई है और अणु विस्फोट के माध्यम से प्रचण्ड ऊर्जा उभारने में सफलता प्राप्त कर ली गई है। अणु क्षेत्र से आगे तरंग जगत् है। पदार्थ की मूल प्रकृति अव परमाणु नहीं तरंगों के कितने ही भेद- उपभ्द है। इनमें से चेतन क्षेत्र में जिसे प्रकार शब्द की प्रमुखता है। कहा जा चुका है कि ताप और हलचल उसी प्रकार आपस में सम्बद्ध हैं जिस प्रकार कि शब्द और चिन्तन परस्पर सम्बद्ध है। उसी प्रकार ताप और गति को भी अन्योऽन्याश्रित माना जा सकता है।

यह सब स्मरण इसलिए दिलाया जा रहा है कि आत्मिकी के प्रयोग प्रयोजनों में जहाँ चेतनात्मक उत्कर्ष के लिए शब्द शक्ति का —गायत्री विद्या का महत्व समझाया जा रहा है उसी प्रकार सूक्ष्म विज्ञान में जहाँ कही पदार्थ साधनों का उसी उपयोग करना पड़े कहाँ उसके गति केन्द्र ‘ताप’ का महत्व भी ध्यान में रखा जा सके। शब्द शक्ति गायत्री विद्या के माध्यम से अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार से प्रयुक्त होती है। इसी प्रकार ताप शक्ति का दिव्य प्रयोजनों के लिए जब भी उपयोग करना पड़े तब उसके लिए क्या करना होगा ? इस प्रसंग का पूर्व निर्धारण यही ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए। कि इसके लिए अग्निहोत्र का माध्यम अपनाना पड़ेगा। जिस प्रकार प्रत्यक्ष प्रयोजनों का माध्यम अपनाना पड़ेगा। जिस प्रकार प्रत्यक्ष प्रयोजनों में आग, बिजली, भाप, तेल आदि माध्यमों से ताप उत्पन्न करके दीपक जलाने, रसोई पकाने से लेकर बिजली घर, मिल, कारखाने, यान जैसे अगणित प्रयोजन पूरे किये जाते हैं उसी प्रकार अग्नि-होत्र के माध्यम से ऐसी दिव्य ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जो अध्यात्म विज्ञान के आधार पर भौतिक उद्देश्यों के काम आ सके।

अध्यात्मवेत्ता साधना प्रयोजनों में अग्निहोत्र के अनेकानेक प्रयोगों का उपयोग एवं उल्लेख करते रहे हैं। उपासना उपचार में दीपक, अगरबत्ती, धूपबत्ती, अग्नि-होत्र आदि के प्रयोग होते हैं। न केवल भारतीय धर्म में वरन् संसार भर के सभी धर्मों में अपने-अपने ढंग से यह प्रक्रिया काम में लाई जाती है। अगरबत्ती, धूपबत्ती, लोबान, धूनी जैसे उपचार मन्दिर, गिरजाघर, गुरुद्वारे, चैतन्य आदि सभी जगह प्रयुक्त होते हैं। पारसी धर्म में तो यह मान्यता और भी अधिक है। उन्हें तो एक प्रकार से ‘अग्निपूजक’ ही माना जाता है। ‘अग्यारी’ का उस

धर्म में देवता जैसा सम्मान है।

भारतीय धर्म संस्कृति के साथ यज्ञ परम्परा अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त समय-समय पर होने वाले षोडश संस्कारों का विधान है। इन सभी में अग्निहोत्र अनिवार्य है। विवाह का प्रधान संस्कार परिक्रमा है। यह उस अवसर पर किए जाने वाले यज्ञ की ही होती है। लाश को चित्ता में जलाने की प्रक्रिया मूलतः अग्निहोत्र का ही जल्दबाजी में किया गया औंधा-सीधा स्वरूप है। अन्यथा यदि उस कृत्य को विधिवत् किया जा सके तो फिर अन्त्येष्टि यज्ञ में ही भूत शरीर का समापन करना पड़ेगा। होली वार्षिक यज्ञ का ही ध्वंसावशेष है। अन्याय त्यौहारों में भी अग्निहोत्र आवश्यक है भले ही उसे महिलाएँ चूल्हे से अग्नि निकालकर चिह्न पूजा के रूप में ही क्यों न करले । देवी, देवताओं में से एक भी ऐसा नहीं जिसकी पूजा प्रक्रिया में अग्निहोत्र का कोई न कोई छोटा-बड़ा रूप अपनाये बिना काम चल जाता हो। यहाँ तक कि भूत-पलीत जादू-टोना उच्चाटन-अभिचार में भी किसी न किसी रूप में अग्निहोत्र का समावेश करना पड़ता है। किसी भी मन्त्र की साधना अग्निहोत्र के रूप में पूूर्णाहुति किये बिना सम्पन्न नहीं होती।

गायत्री और यज्ञ को एक-दूसरे का पूरक माना गया है। एक को भारतीय संस्कृति की माता और दूसरे को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। इस प्रतिपादन के आध्यात्मिक, नैतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक पक्ष भी है और वे सभी विचारणा एवं भावना को उच्चस्तरीय बनाने की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण भी है। इतने पर भी उसका प्रत्यक्ष स्वरूप-अग्निहोत्र उपयोगिता की दृष्टि से अपनी अतिरिक्त गरिमा विशेष रूप से बनाए रहेगा। गायत्री को प्रज्ञादर्शन कहा जाय तो यज्ञ को उसका सहयोगी वर्चस् कहा जाएगा। इस आध्यात्मिक वर्चस् के अंतर्गत ही शारीरिक तेजस् और मानसिक ओजस् की ऊर्जा भी उभरती है। गायत्री अनुष्ठानों की पूर्णाहुति में ‘अग्निहोत्र’ को अनिवार्य माना गया है। प्रज्ञा को परमार्थ परायण बनाने का संकेत तो इसमें है ही, साथ ही यह वैज्ञानिक रहस्य भी समाहित है कि आत्मिक और भौतिक प्रगति के दोनों पक्ष परस्पर गुँथे हुए हैं। एक के बिना दूसरे की न तो साधना बनती है और न प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। अतएव ‘शब्द के साथ तप’ शक्ति का समावेश भी होना चाहिए। अर्थात् गायत्री उपासना में अग्निहोत्र को भी जुड़ा रहना चाहिए। होता भी यही है। अनुष्ठानों की पूर्णाहुति यज्ञ कृत्य के साथ ही सम्पन्न होती है। उन दिनों जप के समय दीपक, धूपबत्ती जलाए रहते हैं। जहाँ श्रद्धा और सद्भावना है वहाँ अखण्ड अग्नि, अखण्ड धूनी, अखण्ड दीपक की भी स्थापना रहती है। नित्यकर्म में पंचयज्ञ, बलिवैश्व की परम्परा है, जिनसे बनता है वे उसे निबाहते भी हैं।

अध्यात्म विज्ञान में पंचाग्नि विद्या का विशेष उल्लेख है। कठोपनिषद् के यम नचिकेता संवाद में इसकी सारगर्भित व्याख्या है। श्रोत्रिय अग्निहोत्री पाँच अग्नियों की स्थापना करके उनका विधिवत् यजन करते हैं। जीवन रूपी समिधा को समाज रूपी यज्ञ में होम देने की कई स्तर की प्रेरणाएँ यज्ञ कृत्य के विभिन्न क्रिया-कृत्यों में कितने ही प्रकार से समाविष्ट है। ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में यज्ञाग्नि को पुरोहित की संज्ञा दी है और वरण करने वालों को देवत्व की, विभूतियों की रत्नराशि उपलब्ध होने का आश्वासन दिया गया है। अध्यात्मदर्शन और विज्ञान के दोनों ही पक्षों में यज्ञ की जितनी चर्चा हुई है, जितनी व्यवस्था बताई, महिमा गाई गयी है उतना ऊहापोह कदाचित् ही किसी अन्य प्रसंग पर हुआ हो। यजुर्वेद, शपथ ब्राह्मण तथा सत्रों-ग्रन्थों में यज्ञ चर्चा की ही प्रमुखता है। मीमांसा दर्शन एवं कर्मकाण्ड ग्रन्थों पर दृष्टि डालने से उनमें यज्ञ ही सर्वोपरि महत्व का प्रतिपादित दीखता है? जन्मजात रूप से तो सभी अनगढ़ शूद्र होते हैं फिर मनुष्य शरीर में ब्राह्मण का उदय कैसे हो? इसी काया में देवत्व का उदय किस प्रकार सम्भव हो? इन सभी प्रश्नों का उत्तर मनुस्मृति में एक ही दिया गया है-महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीय कृयते तनुः” अर्थात् यज्ञों, महायज्ञों के माध्यम से इसी शरीर को ब्राह्मणस्य-ब्राह्मण स्तर का-बनाया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अग्निहोत्र के माध्यम से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा सम्बद्ध व्यक्ति सत्ता का स्तर बदल सकती है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक उपचार हुआ। शरीर के लिए औषधि उपचार, शल्य कर्म आदि का जो महत्व है वही प्रकारान्तर से विचारणा एवं भावना तन्त्रों में सुधार परिष्कार करने के लिए यज्ञ उपचार द्वारा सम्भव हो सकता है।

प्राणाग्नि को कुण्डलिनी के रूप में और योगाग्नि को ब्रह्मतेजस् के रूप में प्रतिपादित किया गया है। एक को भौतिक जगत की अधिष्ठात्री और दूसरी को चेतना परिसर की स्वामिनी कहा गया है। इन दोनों के उत्पादन में जो प्रयोग करने पड़ते हैं ऊर्जा उत्पादन की इस प्रक्रिया के प्रत्यक्ष और परोक्ष, ज्वलनशील और ज्योतिर्मय दोनों ही पक्ष हैं। इतने पर भी उपरोक्त दोनों ही अग्नियों का प्रज्ज्वलन जिस प्रकार होता है उसमें यज्ञ प्रक्रिया किसी न किसी रूप में सम्मिलित ही रहती है। ऐसे-ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जिन पर प्रकाश डाला जा सके तो वे तथ्य उभर कर ऊपर आ सकेंगे जिनके आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकेगा कि मनुष्यों के बीच देवात्मा की तरह रहने वाले प्रज्ञा पारंगत ऋषियों ने किन कारणों से ‘यज्ञ’ को आत्मविज्ञान के प्रतिपादन निर्धारण में क्यों मूर्धन्य स्थान दिया? आर्ष ग्रन्थों और आप्त वचनों के पीछे कल्पनाओं की मनगढ़न्त उड़ानें नहीं चिरकाल के प्रत्यक्ष अनुभवों का सार निष्कर्ष ही प्रस्तुत करने की परम्परा रही है। ऐसी दशा में यह मानना होगा कि यज्ञ तत्व के सम्बन्ध में जो कहा गया है वह सारगर्भित ही होना चाहिए।

यह भूतकालीन देवयुग की चर्चा हुई। आज के परिप्रेक्ष्य में देखना यह होगा कि क्या वे प्रतिपादन आज की स्थिति में भी सही है। क्या इन दिनों भी उस प्रक्रिया का उपयोग पुरातन काल की तरह अर्वाचीन भी हो सकता है? इस संदर्भ में नये सिरे से खोज करनी होगी। कारण यह है कि इन दिनों यज्ञ विद्या का एक प्रकार से लोप हो गया ही माना जा सकता है। मात्र आग जला देना और उसमें सुगन्धित सामग्री होम देना ही यज्ञ नहीं हो सकता। उसका प्रयोजन वायु को सुगन्धित करना भी नहीं है। यदि ऐसा ही होता तो उसमें मंत्रोच्चार एवं अत्यन्त सतर्कतापूर्वक बरते जाने वाले विधि-विधानों एवं अनुबन्धों को उसके साथ न जोड़ा गया होता। आग में सभी सुगन्धित द्रव्य एक साथ ही झोंके देने से भी वह कार्य बिना किसी झंझट के अत्यन्त सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता था। वस्तुतः ‘यज्ञ’ प्रक्रिया के अंतर्गत उन अनेकानेक संस्कार उपचारों का समावेश है जो गर्मी, रोशनी भर देने वाली आग को दिव्य प्रयोजनों में काम आ सकने वाली उच्चस्तरीय ऊर्जा के रूप में परिणत कर सकें। यह संस्कार प्रकरण ही यज्ञ का प्राण है। उसे न अपनाया जा सके तो अग्नि समारोह के माध्यम से प्राचीनकाल के राजसूर्य, अश्वमेध आयोजनों की तरह राजनैतिक न सही सामाजिक कार्यों के लिए समारोह स्तर की आवश्यकता ही पूरी हो सकती है। यज्ञ के साथ जुड़े हुए दिव्य प्रयोजन पूरे नहीं हो सकते। यज्ञाग्नि को दिव्य ऊर्जा में परिणत करने की विधि-व्यवस्था एक प्रकार से विलुप्त ही हो गई। कर्मकाण्ड की पुस्तकों में तो पूजा उपचार में प्रयुक्त होने वाले मन्त्रों एवं विधानों भर का उल्लेख है। उससे क्रिया-कृत्य तो विधिवत् हो सकता है किन्तु यज्ञाग्नि की प्राण-प्रतिष्ठा के रहस्यों को भूल जाने के कारण कोई महत्वपूर्ण कार्य सधते नहीं। उन खोई हुई कड़ी को ढूँढ़ा न जा सका तो स्थिति ऐसी ही उपहासास्पद बनी रहेगी। जैसी कि आज विज्ञ समाज में उपेक्षा, अवहेलना एवं भर्त्सना के रूप में सर्वत्र उभरी दृष्टिगोचर होती है। आज तो उसे खाद्य-पदार्थों की बर्बादी तथा समय, श्रम की होली जलाने की बात कहकर व्यंग्य वचनों की वर्षा ही सुशिक्षित वर्ग में होती दीखती है। परिस्थितियों की प्रतिक्रिया को देखते हुए इसे अनुचित भी नहीं ठहराया जा सकता।

अपूर्णता, अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था के रहते कोई भी प्रक्रिया अपना सही और समुचित परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकती। फिर निहित स्वार्थों द्वारा लाभ संचय के लिए मूढ़-मान्यताओं की भरमार किए जाने पर तो रही बची बात भी समाप्त हो जाती है। खंडहर भी यथावत् बने रहने पर पूर्व स्मृतियों का प्रतिनिधित्व करते और सम्मानास्पद बने रहते हैं, पर यदि उन स्थानों पर दुष्प्रवृत्तियों के केन्द्र बनकर खड़े हो जाएँ तो पुरातन इतिहास के आधार पर मिल सकने वाला गौरव भी हाथ से चला जाएगा । यही हो भी रहा है। यज्ञ एक समूचा विज्ञान सम्मत उपचार है।

अन्य वैज्ञानिक प्रयोजन के खोज अन्वेषणों में विपुल धन राशि खर्च होती रहती है। यदि ‘यज्ञ’ विज्ञान की पुरातन गरिमा बनी रहती, तो वह स्थिति न आती जो इन दिनों भर्त्सना के रूप में सुननी पड़ती है। सिक्का खोटा होने पर तो परखने वाले उसका तिरस्कार करेंगे ही।

बात निन्दा-प्रशंसा की, मान्यता-अवहेलना की नहीं वरन् यह है कि जिस तथ्य की आत्म-विज्ञान में मूर्धन्य भूमिका रही और जिसकी प्रतिक्रिया मनुष्य समुदाय को हर दृष्टि से कृत-कृत्य करती रही, उसकी अपने ही हाथों अन्त्येष्टि किस प्रकार कर दी जाय? उस विद्या के महान् आविष्कारों को सनकियों या आडम्बरियों की संज्ञा में सम्मिलित किया जाना किस प्रकार स्वीकार कर लिया जाय? आग, बिजली, पाक शास्त्र, संगीत, कला, शिक्षा, चिकित्सा आदि की जो उपलब्धियाँ अर्जित की गई वे सुधार परिवर्तनों की प्रक्रिया से होकर गुजरते हुए भी निरन्तर उन्नतिशील बन रही हैं। फिर यज्ञ तत्व जैसी उपलब्धियाँ निरुपयोगी बर्बादी समझे जाने की स्थिति में क्यों पड़ी रहें? प्राचीनकाल में उससे जो लाभ उठाएँ जाते रहे इस प्रगतिशील एवं साधन सम्पन्न युग में उससे हर क्षेत्र की तरह इसमें भी उन्नति अभिवृद्घि होनी चाहिए थी। पर यदि ऐसा नहीं हो सका तो इसमें दोषी उन्हीं को ठहराया जाएगा जो उस कृत्य को करते तो हैं पर लोक भर्त्सना से उसे बचाने के लिए कोई सुरक्षात्मक प्रयत्न नहीं करते। समय आ गया कि अब वस्तुस्थिति को तथ्यों की कसौटी पर खरे-खोटे की यथार्थता प्रकट होने का अवसर मिले। आवश्यक नहीं कि पुरातन के नाम पर वस्तुतः निरुपयोगी है तो उसकी न केवल उपेक्षा भर्त्सना होनी चाहिए वरन् उसे बन्द करने कराने का भी उपक्रम चलना चाहिए। यदि वह वस्तुतः उपयोगी है तो फिर आवश्यकता इस बात की होगी कि अध्यात्म विज्ञान का पक्षधर विज्ञ समाज उसे उस स्तर पर पहुँचाए , जिसमें उपयोगिता पर उँगली न उठ सके और लाभों को देखते हुए उसे अपनाने के लिए सहज उत्साह उठ पड़े।


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