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September 1982

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वो वा एतदक्षरं गार्य्यविदित्वा स्मँल्लोके जुहोति यजते। तपस्यप्यते बहूनि वर्षसहस्त्राव्यन्तवदेवास्स्य तद् भवति यो॥

वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात् प्रैतिस कृपणोऽथः। य एतदक्षरं गागिं विदित्वास्माल्लोकात् प्रैतिस ब्राह्मणः॥ (वृहदारण्यक 3। 8। 10)

हे गार्गी जो इस ब्रह्म को न जानकर इस जगत् में बहुत वर्षों तक होम, यज्ञ, या तपस्या करत है, उसका फल अनंतकाल होता है। एवं जो अक्षर ब्रह्म को बिना जाने इस जगत से प्रयाण करता है, वह दीन होता है और जो उसको जानकर इस जगत् से प्रस्थान करता है, वह ब्राह्मण (ब्रह्मविदः) होता है।


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