‘नानिरतो दुश्चरितान्नाशान्तो ना समाहितः। ना शान्त मानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्-कठोपनिषद्
अर्थात्-जो मनुष्य निषिद्ध कर्मों से विरत नहीं है, जिसने अपनी इन्द्रियों को जीता नहीं है, जिसका मन एकाग्र नहीं है, जिसका चित्त शान्त नहीं हुआ है-उसको आत्म-साक्षात्कार कभी नहीं होता है।