दुर्भाग्य ग्रस्तों की दुनिया

September 1982

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महापुरुषों, ऋषि कल्प व्यक्तियों के प्रयोग में आने वाली वस्तुएँ सुरक्षित रखी जाती है। भगवान बुद्ध के दाँत, हजरत मुहम्मद साहब के बाल, ईसा के वस्त्र इस लिए सुरक्षित रखे गये हैं कि उन दिवंगत आत्माओं के साथ सम्बद्ध रहने के कारण वे पदार्थ भी विशिष्ट पवित्रता और प्रखरता युक्त समझे गये हैं। महामानवों के हाथ का प्रसाद ग्रहण करके भी लोग कृत-कृत्य होते हैं। इसमें प्रसाद के खाद्य पदार्थ की नहीं उन स्पर्शकर्ताओं की प्राण प्रतिभा का समावेश रहने से ही विशेषता उत्पन्न होती है।

इसी प्रकार दुरात्माओं के दुष्कृतों से भी स्थान, उपकरण आदि पर भी उनका प्रभाव देखा जाता है। बूचरखानों, वेश्यालय, मद्यशालाओं के भीतर तथा इर्द-गिर्द ऐसा वातावरण रहता है जिससे सौम्य सज्जनों का मन भी विक्षुब्ध होने लगे। इसलिए ऐसे स्थानों से दूर रहना ही श्रेयस्कर माना जाता है।

कई बार कुछ मकान, आभूषण, वस्त्र, उपकरण आदि में भली-बुरी विशेषताएँ सम्बन्धित लोगों के संपर्क से उत्पन्न होती देखी गई हैं। जहाँ अचिन्त्य-चिन्तन का-अकरणीय कृत्यों का बाहुल्य रहा है। जहाँ उत्पीड़न शोषण अन्याय आतंक का दौर चला है वहाँ ऐसी विभीषिकाएँ जम जाती हैं जिनके संपर्क में आने वालों का अहित अनिष्ट होने लगता है। ऐसे स्थान अभिशप्त कहलाते। भुतहे मकान, मरघट आदि में डेरा डालने पर जिस प्रकार भय, आतंक की अनुभूति होती है उसी प्रकार अभिशप्त मकान या पदार्थ

भी उपयोग करने वालों का अनिष्ट करते देखे गये हैं। इसे चेतना के चुम्बकत्व का प्रभाव प्रमाण ही समझना चाहिए।

मिशिगन की विशालकाय झील में मुसाफिर और सामान इधर से उधर ढोने के लिए सन् 1888 में एक स्टीमर बना। उसका आदि, मध्य और अन्त सभी दुर्भाग्य से जुड़ा रहा। जल प्रवेश को एक वर्ष भी न होने पाया था कि वह टकरा कर क्षति ग्रस्त हो गया। 1890 में वह डूबकर तली में बैठ गया। बड़ी कठिनाई से उसे निकाला और तैराया गया। चलाने वाली कम्पनी भी मुसीबत में पड़ी और ढोये गये मुसाफिर तथा अस्वाव भी क्षतिग्रस्त होते रहे। 1893 और 1902 में वह डूबते-डूबते बचाया जा सका। 1917 में एक पुल से जा टकराया। 1920 में एक बर्फीली चट्टान से जा टकराया और उलट गया। अन्त में इस आये दिन की क्लेश से पीछा छुड़ाने के लिए 1921 में उसे कबाड़ियों के हाथ बेच दिया गया।

पेरु की सेन्ट्रल रेलवे का एक इंजन जिस दिन से बना उसी दिन से दुर्घटना करने लगा। आये दिन कभी अपने कलपुर्जे तोड़ लेता कभी दूसरों के प्राण संकट खड़ा करता। वह पाँच बार पटरी से उतरा, जमीन में घुसा और क्रेन पर लादकर यथास्थान लाया गया। संचालकों को उसका दुर्भाग्य मिटाने के लिए एक उपाय सूझा। उसका नम्बर 37 था। बदल कर 33 कर दिया गया। प्लेट उसी नम्बर की। कागजात में इन्दराज उसी नम्बर का। तो भी उसका दुर्भाग्य छूटा नहीं वरन् और भी उग्र हो गया। ब्रेक फेल हुआ और एक दूसरी ट्रेन से जा टकराया। टक्कर बहुत भयानक थी उसने समूचे रेल के पुल को ही उखाड़ दिया। उखड़ा पुल नीचे नदी में गिरा और धन जन की बहुत क्षति हुई।

सन् 1685 की बात है। जापान के एक फैंसी ड्रेस विक्रेता ने एक बहुमूल्य-किमोनो-महिला परिधान तैयार किया। उसे देखने तो अनेकों लड़कियाँ आई पर मूल्य को देखते हुए खरीदने की हिम्मत किसी की न पड़ी। एक धनी लड़की ने उसे खरीदा। घर ले जाने के बाद वह उसे पहनने भी न पाई थी कि मर गई। घर वालों ने कुछ कम मूल्य पर उसी विक्रेता को लौटा दिया। दूसरी जिसने खरीदा वह भी इसी तरह मरी और पोशाक वापिस लौटी। तीसरी बार भी ठीक यही हुआ। इस अभागे परिधान की सुन्दरता, कीमत के साथ-साथ उसके अभागी होने चर्चा पूरे जापान में फैल गई। देखने कौतूहल वश बहुत आते, पर उसे खरीदना तो दूर कोई छूता तक नहीं था।

मामला राज दरबार तक पहुँचा। पोशाक कचहरी में पेश हुई। विवरण सुनने के बाद धर्मगुरु ने उसे आग में जला देने की दण्डाज्ञा सुना दी। परिधान जिस समय जा रहा था। ठीक उसी समय भयंकर आँधी आई। चिनगारियाँ उड़-उड़कर दूर-दूर तक पहुँची और उससे भयंकर अग्निकाण्ड खड़ा हो गया। उससे इतनी बड़ी क्षति हुई जितनी कि उससे पूर्व कभी भी नहीं हुई थी। प्रायः तीन चौथाई टोकियो शहर जल गया। इस अभूत पूर्व अग्नि काण्ड में 300 मन्दिर, 500 शाही महल, 9000 स्टोर, 61 पुल और हजारों लाख घर झोंपड़ी जलकर स्वाहा हो गये। इतना ही नहीं उस अग्निकाण्ड में लगभग एक लाख मनुष्य भी जलकर खाक हो गये।

ब्रिटिश म्यूजियम में एक अभिशप्त ममी रखी हुई है। यह ममी सन् 1864 में अरब देश की एक खुदाई से प्राप्त हुई थी। आकर्षण से प्रभावित होकर बाबसिसरो नामक एक पूँजीपति ने उसे खरीद लिया। दो माह के भीतर उसे व्यापार में इतना बड़ा घाटा हुआ कि वह अपने को सन्तुलित न रख सका। हृदय की धड़कन रुक जाने से उसकी मृत्यु हो गयी। ममी की देख-रेख करने वाले दो नौकर भी बिना किसी रोग के बिस्तर पर सोये हुए मृत पाए गए। उक्त पूँजीपति का इकलौता बेटा ट्रक दुर्घटना की चपेट में आ गया और उसे अपनी दोनों टाँगें कटानी पड़ीं। अभिशप्त जानकर घरवालों ने बिना कोई मूल्य लिए एक फोटोग्राफर जे. एस. सैक्सन ने अधिक कीमत प्राप्त करने के उद्देश्य से ममी का फोटो लेना चाहा जिससे विभिन्न पत्रिकाओं में उसे प्रकाशन के लिए दिया जा सके। फोटो साफ करने पर यह देखकर विस्मित रह गया कि उसमें मिश्र की अधेड़ महिला का स्पष्ट चित्र आ गया है। चित्र लेने के दूसरे दिन ही वह पागल हो गया तथा कुछ ही दिनों में मर गया। उसकी पत्नी ने परेशान होकर, लन्दन स्थित ब्रिटिश म्यूजियम को ममी को वापस सौंप दिया। ममी को म्यूजियम में पहुँचाने वाले दो मजदूरों में से एक तो एक सप्ताह के भीतर ही मर गया दूसरा कार दुर्घटना में हाथ-पैर गँवा बैठा। म्यूजियम में पहुँचने के बाद भी अभिशप्त ममी का प्रकोप कम नहीं हुआ। शहर की मशहूर फोटोग्राफर कम्पनी मेसर्स डब्ल्यू. ए. मैनसल ने इस ममी का चित्र लेने का प्रयास किया। उक्त कम्पनी का लड़का फोटोग्राफर को लेकर ममी का निरीक्षण करने आया। निरीक्षण के उपरान्त वापिस लौटते समय कार दुर्घटना में उसका हाथ टूट गया। फोटोग्राफर इन संकेतों को न समझ सका। दूसरे दिन म्यूजियम से उक्त ताबूत का चित्र खींचकर वह लौट ही रहा था कि कहीं दूर से एक काँच का टुकड़ा उसकी नाम में आकर टकराया। नाम कट गयी। उक्त संकटों को देखकर म्यूजियम के अधिकारियों ने उसका चित्र लेना ही वर्जित कर दिया। इन घटनाओं को देखकर म्यूजियम के अधिकारियों न ममी के इतिहास का पता लगाने का कार्य पुरातत्व वेत्ताओं को सौंपा। पर्यवेक्षण करने पर मालूम हुआ कि ताबूत मिस्र कही एक ऐसी महिला का है जो अथाह सम्पत्ति की मालकिन थी। अनैतिक कार्यों द्वारा उसने यह सम्पत्ति एकत्रित कर ली थी। जीवन के अन्तिम दिनों में कुछ व्यक्ति यों ने उसके साथ षड्यन्त्र करके संपत्ति हड़प ली। वह विक्षिप्तावस्था में मरी। विशिष्ट सूत्रों द्वारा जानकारी मिली कि वह ताबूत पहले भी अनेकों व्यक्ति यों की मृत्यु का कारण बन चुका है। उसकी आत्मा निरन्तर ताबूत के साथ बनी रही। जो भी उसे छूता अथवा छेड़छाड़ करने का प्रयत्न करता उसके कोप का भाजन होता।

ब्रिटेन के एक अपराधी के घर से एक ऐसा चित्र बरामद हुआ जो बिल्ली का था तथा नीले पेपर पर काले चाक से बनाया हुआ था। ध्यान से देखने पर इस अस्पष्ट चित्र में खूँखार जानवर की आँखें चमकती दिखाई देती थीं। सर्वप्रथम वन विभाग के एक अधिकारी ने उसे प्राप्त किया। उसने उसे अपने शयन कक्ष में लगाया। अभी कुछ ही दिन बीते होगे कि वन अधिकारी ने आत्महत्या कर ली। चित्र आकर्षण था पर उसे दुर्भाग्यशाली जानकर पत्नी ने काउण्ट अलेक्जेन्डर नामक व्यक्ति के हाथों बेच दिया। जिसे उसने अपने ड्रेसिंग रुम में सजाया। काउण्ट अलेक्जेन्डर जब भी ध्यान से चित्र को देखता उसे दो हिंसात्मक आँखें घूरती दिखाई पड़ती । एक दिन विक्षिप्तावस्था में उसने स्वयं को गोली मार ली। इस चित्र ने अपना तीसरा शिकार काउण्ट अलेक्जेन्डर के युवा पुत्र को बनाया। दुर्लभ वस्तुओं को एकत्रित करने के शौक को पूरा करने के लिए वह उस चित्रा को अपने घर ले आया। चित्र को एक दिन वह ध्यान से देख रहा था। अचानक डरने लगा कि किसी व्यक्ति की खूनी आँखें उसे घूर रही हैं। असन्तुलन की स्थिति में उसने भी आत्म-हत्या कर ली। चौथा शिकार उस युवक का एक रिश्तेदार बना। चित्र की पेंटिंग बनाने के लिए वह उसे अपने घर ले आया। दूसरे दिन वह अपने बिस्तर पर मृत पाया गया। इसके साथ ही यह रहस्यमय चित्र भी न जाने कहाँ गायब हो गया।

जिस अपराधी के घर से उक्त चित्र बरामद हुआ उसकी विस्तृत जानकारी एकत्रित करने पर कई रोचक तथ्य सामने आए। इन्टेलिजेन्स डिपोर्टमेंट के विवरण में वर्णन था कि वह रहस्यमय चित्र एक अपराधी गिरोह का कोई संकेत था। जिस घर से वह प्राप्त हुआ उसका मालिक उक्त गिरोह का सरदार था। वह चित्र उसे अत्यधिक प्रिय था तथा सदा अपने पास रखता था। उसके ऊपर अनेकों हत्याओं एवं अपराधों का आरोप दर्ज था।

इटली का एक जहाज द्वितीय विश्वयुद्ध के समय एटलाँटिक महासागर से होकर जा रहा था। नाविकों को सागर की लहरों पर कोई चीज तैरती दिखी जाल डालकर खींचने पर वह काठ की एक आदमकद युवती की प्रतिमा निकली। प्रतिमा के जहाज पर आते ही नाविक एवं यात्री चारों ओर एकत्रित होकर देखने लगे। नारी सौंदर्य की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति उस काष्ठमूर्ति में हुई थी कि सभी मंत्रमुग्ध बने देखते रहे प्रतिमा की लकड़ी की चौकी पर नाम अंकित था ‘एटलाँश’। प्रतिमा पर आसक्त दो नाविक अपना सन्तुलन गँवा बैठे उन्होंने अथाह समुद्र में छलाँग लगा दी। नाव के कप्तान ने इस आकस्मिक घटना के फलस्वरूप प्रतिमा को केबिन में मजबूत ताले के भीतर बन्द कर दिया। इटली बन्दरगाह पर पहुँचकर जहाज के कप्तान ने प्रतिमा को निकटवर्ती अजायबघर को सौंप दिया। प्रतिमा में आकर्षण इतना अधिक था कि वहाँ भी दर्शकों की भीड़ जमा हो गयी। कितने ही व्यक्ति तो देखकर पागल हो गए। जर्मन सेना के एक लेफ्टिनेण्ट ने 13 अक्टूबर 1944 को प्रतिमा के समक्ष सीने में गोली मारकर आत्महत्या कर ली। एक अन्य व्यक्ति ने भी इसी प्रकार गोली मार ली। अजायबघर के अधिकारियों ने यह स्थिति देखकर विचार किया कि उस प्रतिमा को हटा देना चाहिए। पर दुर्लभ एवं अनोखी कलाकृति होने के कारण उसे हटाया न जा सका। हाँ, अधिकारियों ने उसके प्रदर्शन पर रोक अवश्य लगा दी। प्रतिमा के कलाकार का नाम पता नहीं मालूम हो सका पर ऐसा अनुमान गया कि प्रतिमा किसी द्वीप की राजकुमारी की है जो अपने समय की अद्वितीय सुन्दरी थी एवं यौवनकाल में ही राजकीय दुष्चक्रो के कारण उसकी मृत्यु हो गयी थी।

ऐसे प्रसंग घटते है तो दुर्भाग्यग्रस्तों एवं उनसे जुड़ी वस्तुओं के अभिशापों का स्मरण दिला देते है। यह तथ्य अपनी जगह अटल है कि अभिशप्त वातावरण चेतन जगत जगह के प्रवाह का ही एक निषेधात्मक पहलू है। इनसे बचना व सुसंस्कारी वातावरण के सान्निध्य में आना ही श्रेयस्कर है, भले ही तुरन्त आकर्षण पहली ही ओर घसीटता हो। (क्रमशः)


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