यह तथ्य न केवल सर्वविदित है वरन् प्रत्येक का अनुभव है कि आज का जीवन व्यस्त और तनावपूर्ण है। आजकल सभी लोग तनाव पूर्ण जीवन के शिकार हैं। युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, व्यवसायी और नौकर पेशा, गरीब और अमीर हर वर्ग तथा हर स्तर का व्यक्ति तनावग्रस्त है। सड़कों पर भागती हुई जिन्दगी, आपस में बात करने और मिलने जुलने के लिए समयाभाव की समस्या, जरा सी बात पर दाँत पीसना और बाँहें चढ़ाना, व्यापारियों का चीख
चिल्लाकर बात करना .गृहिणी की बच्चों पर डाँट फटकार आदि सभी इस बात के प्रतीक हैं कि चारों ओर मानसिक तनाव व्याप्त है। यों तनाव से सामान्य अर्थ मानसिक तनाव ही लिया जाता है, पर वस्तुतः तनाव तीन प्रकार के होते है, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनाव । इन्हें आधि भौतिक आधिदैविक, दैविक और भौतिक चिन्ताओं तापों के रूप में भी इन्हीं की चर्चा की जाती है।
लम्बे समय तक लगातार एक ही प्रकार का काम करने और अत्यधिक श्रम करने के कारण जो थकान उत्पन्न होती है, उसे शारीरिक तनाव कहा जाता है। थक जाने या बहुत अधिक श्रम करने के बाद मनुष्य किस कदर अस्त-पस्त हो जाता है कि उसकी और कुछ करने की बात तो दूर रही, कुछ कहने या सुनने की भी की भी इच्छा नहीं होती। यहाँ आवश्यक नहीं है कि बहुत अधिक श्रम करने के कारण ही शारीरिक तनाव उत्पन्न हो। अधिक सोने, दिन चढ़े तक पड़े रहने, ज्यादा खाने आवश्यकता से अधिक आराम करने के कारण भी मस्कुलरटेन्शन उत्पन्न होता है। आहार-बिहार की गड़बड़ी और अस्त-व्यस्तता भी शारीरिक तनाव उत्पन्न करती है। जहाँ तक अधिक श्रम कारण उत्पन्न हुई थकान से पैदा होने वाले शारीरिक तनाव का प्रश्न है वह मुख्यतः दो कारणों से उत्पन्न होता है। एक तो अनिच्छा पूर्वक कार्य करना और दूसरे मैं काम कर रहा हूँ-यह भावना काम करते समय विद्यमान रहना। श्रम की यह भावना कि मैंने काम किया यदि मनुष्य किसी प्रकार भूल जाय तो तीन-चार घण्टे का विश्राम कर और एक दो बार भोजन कर आसानी से सोलह घण्टे तक काम कर सकता है।
शारीरिक तनाव के बाद मानसिक तनाव का क्रम आता है। यह बहुत अधिक सोचने विचारने या चिन्ता करने से उत्पन्न होता है। सोचना केवल उसी दिशा और उसी विषय जिसमें कि सोच विचार आवश्यक हो। परन्तु अधिकाँश व्यक्ति काम की बातें बहुत कम और व्यर्थ की, बेकार या ऊल-जलूल की बातें ज्यादा सोचते हैं जिनसे वर्तमान जीवन का कोई सम्बन्ध नहीं होता। पिछली बातों या घटनाएँ जिनको अनसुना करना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है अधिकाँश व्यक्ति उन्हीं की स्मृतियों में डूबते उतरते रहते हैं और सोच-सोच कर परेशान होते रहते है। किसी से लड़ाई हो गई, किसी ने गाली दे दी या अपमान कर दिया अथवा कोई दुर्घटना हो गई तो इतने मात्र से लम्बे समय तक मानसिक सन्तुलन अस्त-व्यस्त हो गया। इस तरह के मानसिक तनाव का पहला परिणाम नींद कम हो जाने के रूप में होता है।
स्वास्थ्य के लिए अच्छी, पूरी और प्रगाढ़ निद्रा आवश्यक है यह तो सभी जानते हैं। कोई व्यक्ति एक हफ्ते तक बिना कुछ खाए रह सकता है, पर एक सप्ताह तक नींद के बिना रह पाना सम्भव नहीं है क्योंकि नींद शरीर और को विश्राम पहुँचाती है। लेकिन जब मानसिक तनाव के कारण नींद में अवरोध उत्पन्न होते हैं तो उसका शरीर और स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। पहले तो चिड़चिड़ापन, थकान, अरुचि
और ऊब उत्पन्न होती है। इसके बाद और कई तरह की मानसिक समस्याएँ उत्पन्न होती है।
अत्यधिक सोच विचार और चिन्ता करने से उत्पन्न होने वाला मानसिक तनाव यदि लम्बे समय तक बना रहे तो “मेंटल रिटार्डेशन” नामक स्थिति आ जाती है। इस स्थिति में आने पर मस्तिष्क की शक्तियाँ काम करना बन्द-सी कर देती हैं और मस्तिष्क लगभग सुन्न सा हो जाता है आधुनिक जीवन की यांत्रिक सभ्यता के कारण उत्पन्न होने वाले मानसिक तनावों के परिणाम स्वरूप “मेंटल रिटार्डेशन” के लाखों मामले प्रकाश में आ रहे हैं। इस दुःख स्थिति का सामना तो मानसिक तनाव सह पाने की क्षमता सीमा टूट जाने के बाद उत्पन्न होती है। प्रथम तो इनके लगातार बने रहने के कारण अवसाद ग्रस्त स्थिति बन जाती है, जिसे डिप्रेशन भी कहा जाता है।
इस प्रकार का तनाव बढ़ जाने पर शिराएँ फटने सी लगती हैं, आँखें कमजोर हो जाती हैं। कब्ज रहती है खाना हजम नहीं होता। नशा पीने की इच्छा होती है और यदि शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार के तनाव एक साथ उत्पन्न हो गए तो काम और क्रोध के आवेग भी बार-बार पैदा होने लगता हैं। शारीरिक व मानसिक तनाव के बाद आता है भावनात्मक तनाव। मनुष्य को अपने जीवन में कई तरह के उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ता है। वह निरन्तर भावनाओं के थपेड़े खाता रहता है।
प्रायः भावनाएँ यथार्थ पर आधारित नहीं होती । किन्तु अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य उन्हीं से चिपके रहते हैं। किसी का प्रिय मित्र, पुत्र, पति या पत्नी अथवा रिश्तेदार कल आने वाला है तो उसे रात भर नींद नहीं आती। एक घण्टे बाद परीक्षाफल घोषित होने वाला है तो दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई। दूर कहीं प्रवास पर है, रात में सहसा किसी की याद आ गई तो नींद गायब, यही है-भावात्मक तनाव। ये भावनात्मक तनाव प्रायः हमारे जाने-अनजाने व्यवहारों में प्रकट होते हैं। कुछ लोग कन्धे उचकाते रहते हैं, कुछ पैर हिलाते रहते हैं, कुछ गुनगुनाते रहते हैं, कुछ सीटी बजाते हैं। कोई बार-बार पलकें झपकाते रहते हैं तो किसी के नाक से खू खू की आवाज आती रही। ये सब भावनात्मक तनाव के ही परिणाम हैं।
इन तनावों की तत्काल प्रतिक्रिया परिणति किसी न किसी रूप में तो देखने को मिलती ही है। इनके दूरगामी प्रभाव भी होते हैं और शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर इनकी तीखी प्रतिक्रिया होती है, जिनसे अनेक रोग उत्पन्न होती हैं। मानसिक तनाव के कारण सिर दर्द रहना तो साधारण सी बात है। कई बार पेट के फोड़े (अल्सर) उच्च रक्त चाप, हृदय रोग तथा अन्य कई बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। समय पर तनावों का यदि नियन्त्रण समाधान नहीं किया गया तो हाइपरटेन्शन हार्ट अटैक या पैरालिसिम जैसे रोग उत्पन्न हो जाते हैं और जीवन अस्तित्व को ही संकट ग्रस्त कर देते हैं।
इस प्रकार के रोग किसी भी तरह के तनावों के कारण उत्पन्न हो सकते हैं। कभी मस्कुलरटेन्शन से, कभी मेंटल से, कभी इमोशनल से या कभी तीनों के सम्मिश्रित कारणों से इस प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए थके-हुए व्यक्ति को बहुत जल्दी क्रोध आता है। क्रोध आने के अलावा जल्दी थक जाने वाले व्यक्ति चिंतित भी रहने लगते हैं। दिमागी उलझन में फँसे व्यक्ति को सिरदर्द, हृदय की पीड़ा, अम्लता, कब्ज आदि रोग तंग करते रहते हैं। जब व्यक्ति अपने को उपेक्षित समझता है और उसकी भावनाएँ अतृप्त रही आती हैं, तो उसे दमा, यक्ष्मा, आर्थराईटिस, कुष्ठ रोग आदि जैसे रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
कहने का आशय यह कि तनाव किसी भी क्षेत्र में संव्याप्त क्यों न हो उससे शक्ति का क्षरण होता है। शारीरिक और मानसिक श्रम से थकान आती तो है पर वह उथली रहती है और विश्राम करने एवं बलवर्धक आहार उपचार लेने इसकी क्षतिपूर्ति थोड़े ही समय में ही जाती है, किन्तु मानसिक या भावात्मक तनाव ऐसे होते हैं जिनके मूल में गहरे आघात विद्यमान रहते हैं। आघातों से उत्पन्न हुए ये घाव नासूर बन जाते हैं और समय-समय पर उभरते फूटते रहते हैं। यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि शारीरिक स्वास्थ्य को नष्ट करने में केवल आहार-बिहार की अनियमितता ही कारण नहीं है। मानसिक शान्ति को नष्ट करने में केवल प्रतिकूल परिस्थितियाँ ही निमित्त नहीं होती, वरन् उनका कारण मनुष्य की भावनात्मक दुर्बलता और मानसिक सन्तुलन का अभाव भी है। क्योंकि बड़े-बड़े संकट सामने होने पर भी कितने ही मनस्वी लोग उन्हें सामयिक चुनौती मात्र मानते हैं और उनका मुकाबला खेल के मैदान में गेंद से जूझने वाले खिलाड़ियों की तरह करते हैं। इसके विपरीत कितने ही व्यक्ति विपत्ति की कल्पना मात्र से घबड़ा उठते हैं और इतने असन्तुलित हो जाते हैं मानो आपत्तियों का पर्वत ही उन पर टूट पड़ा हो।
जो भी हो, तनाव के कारण उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों को जितना विघातक माना जाय उतना कम है। इनके कारण उस जीवनी-शक्ति का बुरी तरह अपव्यय होता है जिस पर स्वास्थ्य, सन्तुलन, शान्ति और आनन्द निर्भर रहते हैं। दीपक का यदि का यदि तेल समाप्त हो जाय तो वह मात्र रुई बत्ती आदि के सहारे ही ज्वलन्त नहीं रखा जा सकता। जीवनी शक्ति को मानवीय सत्ता का तेल भण्डार कहा जा सकता है। तनाव का सीधा आक्रमण उसी पर होता है और जितनी तेजी से उस भण्डार का क्षय होता जाय है उतनी ही तेजी से सोचने समझने की क्षमता और व्यवस्थापूर्वक कुछ करने की दोनों सम्भावनाऐं ही अस्त-व्यस्त होती चली जाती हैं। इस स्थिति में फँसकर व्यक्ति खोखला बनकर रह जाता है। उसके शरीर की बनावट भले ही न बदले पर स्थिति अर्ध विक्षिप्त जैसी बन जाती है। ऐसे व्यक्ति केवल स्वयं सन्तप्त रहते हैं वरन् संपर्क करते रहते हैं।
तनाव के कारण मनःस्थिति दिनों दिन दुर्बल होती चली जाती है, उसके साथ ही दुर्बल मनःस्थिति के व्यक्ति छोटे-छोटे कारणों से भी भयंकर तनाव उत्पन्न हो सकता है। अतः तनाव से छुटकारे की युक्ति सभी व्यक्ति यों को आनी चाहिए। प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न होने पर विचार करना चाहिए कि उसकी चिन्ता कर असन्तुलित होने के स्थान पर उतार-चढ़ाव को स्वाभाविक मानते हुए सन्तुलन बनाये रखने की दूरदर्शिता अपनानी चाहिए तथा प्रस्तुत प्रतिकूलताओं के साथ खिलाड़ी की भावना से आँख मिचौली खेलने की दृष्टि रखना चाहिए। इस तरह का साहस, ऐसा दृष्टिकोण रखा जाय तो फिर कोई भी कठिनाई ऐसी नहीं रह जाती जिसका प्रयत्न पूर्वक हल अथवा धैर्यपूर्वक समाधान न किया जा सके।
सर्वप्रथम तो उन स्थितियों को समझने और उनके कारणों के पहचाने की चेष्टा की जानी चाहिए जिनसे तनाव या चिन्ताएँ उत्पन्न होती हैं। चाहे वह परिवार में असामंजस्य के कारण उत्पन्न होने वाला तनाव हो या आर्थिक कठिनाइयों से पैदा हुई चिन्ता हो। कई बार बहुत ही समस्याएँ व्यक्ति को परेशान किए रहती हैं। उन सबको एक साथ सोचने का अर्थ है सब शत्रुओं को एक साथ लड़ने के लिए चुनौती देना। सब समस्याओं पर एक साथ विचार करने के कारण किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो पाता और परेशानी अपने स्थान पर खड़ी रहती है। इस स्थिति से निबटने के लिए कारगर उपाय यह है कि एक-एक समस्या के क्रमवार सुलझाया निबटाया जाए।
समस्याओं के समाधान में सन्तुलित और सुलझी हुई नीति अपनाने के साथ यह भी आवश्यक है कि सुखद सम्भावनाओं की आशा लगाने की तरह दुःखद दुर्घटनाओं एवं प्रतिकूल परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना चाहिए। उस तरह सजग रहने पर ढेरों कठिनाइयों से बचा जा सकता है। कम से कम तनाव के बोझ को तो हल्का किया जा सकता हैं। मानसिक श्रम को अदलते बदलते रहकर और किये जा रहे कार्यों में दिलचस्पी रखते हुए , उन्हें सुव्यवस्थित बनाने का कला-कौशल प्रस्तुत करने की रीति-नीति अपनाकर मानसिक तनाव से बचा जा सकता है। भावनात्मक तनाव से बचने के लिए आवश्यक है-आत्मबल उच्चस्तरीय दृष्टिकोण और आदर्शवादी क्रिया-कलाप अपनाकर आत्मबल बढ़ाया जा सकता है। यही वह दिव्य उपलब्धि है जिसके कारण मनुष्य तनावों से मुक्त सुख शान्तिमय जीवन जी सकता और आनन्द में निमग्न रह सकता है।