मात्र जीवट के बल पर जीवित-हिम-मानव

September 1982

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मानवी प्रगति के इतिहास वेत्ता यही कहते हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। पारस्परिक सहयोग से ही उसने प्रगति के विभिन्न सोपान पार किये और आदान-प्रदान की रीति-नीति अपना कर सुविधा साधनों का उपार्जन किया। यह प्रतिपादन बहुत हद तक सही भी है। किन्तु इसे पत्थर की लकीर नहीं मानना चाहिए। यह मानने के भी कारण हैं कि जीवधारी का अपना निजी जीवट भी उसका अस्तित्व बनाये रहने, प्रकृति प्रतिकूलताओं से जूझने और निर्वाह के साधन जुटाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। पारस्परिक सहयोग वाली बात उतनी ही महत्वपूर्ण सचाई मनुष्य के निजी जीवट में भी केन्द्रीभूत है।

बर्फीले प्रदेशों में रहने वाले हिरन, भालू, कुत्ते अनादि काल से उन्हीं विकट परिस्थितियों में रहते वाले आ रहे हैं। बर्फीले समुद्रों में पाई जाने वाली मछलियाँ तथा अन्य जल जीव उसके प्रमाण हैं। मनुष्यों में ध्रुव क्षेत्र के निवासी ‘एस्किमो’ इसके प्रमाण हैं। आदिवासी वनवासी प्रजातियाँ में अनेकों ऐसी हैं जिन्हें पारस्परिक सहयोग पर कम और अपने निजी जीवट पर अधिक निर्भर रहना पड़ता है।

बानर वर्ग से मिलता-जुलता विशालकाय हिम-मानव इसका प्रमाण है है। इसके अस्तित्व के सम्बन्ध में समय-समय पर अनेक प्रमाण रहते हैं। साथ ही यह भी पता चलता है कि वह स्वभावतः एकाकी रहता है। वंश वृद्धि की आवश्यकता से विवश होकर ही वे कभी जोड़ा खोजते होंगे और कुछ ही क्षण उपरान्त नर मादा अपना-अपना रास्ता नापते होंगे। जीव जन्तुओं में से अनेकों की एकाकी प्रकृति एवं जीवन चर्या समझ में आती है किन्तु मनुष्य एवं उसके सजातियों के सम्बन्ध में उस तथ्य को गले उतारना कठिन पड़ता है। हिम-मानव इसका अपवाद है। उसके अस्तित्व को प्रमाणित करने वाले यह भी सिद्ध करते हैं कि वह मनुष्य का निकटवर्ती है। आकृति प्रकृति में बहुत कुछ मिलता-जुलता है। फिर भी वह हिम क्षेत्रों की कठिन निर्वाह परिस्थितियों में अपने आपको ढाले हुए है और बिना झुण्ड बनाये, अपने जीवट के बलबूते चिरकाल से निर्वाह करता चला आता है। हिम मानव के अस्तित्व और निर्वाह क्रम के सम्बन्ध में समय-समय पर जो जानकारियाँ मिलती रहती हैं। वे सभी असाधारण रूप से आश्चर्यजनक हैं।

25 मार्च सन् 1970 को ब्रिटिश पर्वतारोहियों का एक दल अन्नपूर्णा शिखर की सबसे ऊँची चोटी पर अपनी विजय-पताका फहराने के उद्देश्य से दुस्साहस भरी यात्रा कर रहा था। चन्द्रमा की चाँदनी से आलोकित हिमाच्छादित प्रदेश में पर्वतारोही दल के सदस्य रात्रि विश्राम के लिए कैम्प लगाकर सोने की तैयारी में थे। अचानक सामने हाथी जैसी भयानक आकृति वाली लम्बी परछाई के साथ एक वन्य जीव इधर-उधर घूमते दिखाई दिया। खतरे की आशंका से उन लोगों ने बाहर निकलकर राइफलें तान लीं। निरीक्षण करने पर पाया कि दूसरे जीव की आकृति प्रकृति बहुचर्चित हिम-मानव जैसी है। आधा घण्टे बाद वह उछल-कूद करता पर्वत शृंखलाओं की ओट में गायब हो गया।

बर्नार्ड होवेल मेन्स ने अपनी यात्रा, पुस्तक ‘आन दि ट्रैक आफ अननोन एनिमल्स’ में ‘येति’ नामक मानवाकृति का वर्णन किया है। जिसका सारा शरीर घने लम्बे वालों से आच्छादित रहता ऊँचाई 5 मीटर या इससे अधिक रहती है। येति क अतिरिक्त दो अन्य जीवधारियों को वर्णन है। ‘रिमि’ नामक प्राणी 3 से 4 हजार मीटर की ऊँची पहाड़ियों में हैं जिनकी ऊँचाई करीब 3 मीटर बताई गयी है। दूसरा है ‘न्यालमों’ जो 4 हजार मीटर से अधिक ऊँचे बर्फीले स्थान में रहते है जिनकी ऊँचाई 4 से 5 मीटर होती है। न्यालमों के चेहरे की त्वचा सफेद और सम्पूर्ण शरीर काले घने बालों से ढँका रहता है। उसके हाथ इतने लम्बे होते है जो घुटने से नीचे तक जाते हैं। मुखाकृति मानव से मिलती-जुलती है। पैर बहुत बलिष्ठ हाथों के बल से बड़े-बड़े पेड़ उखाड़ना और चट्टानें उठा फेंकना जिसके लिए कोई बड़ी बात नहीं।

1921 में एवरेस्ट चढ़ाई करने वाले दल के अध्यक्ष सी. के. हावर्ड बरी ने इस प्रकार के मानव के अस्तित्व के बारे में पुष्टि दी। लन्दन के प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘डेली मेल’ में 1954 व 57 में ऐसे मानवों के पदचिह्नों के फोटोग्राफ छपे थे। 1954 में हार्वर्ड बरी द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया, इसी प्रकार की पहाड़ी शेरपा ने 7 हजार मीटर पर मानवाकृति दिखाई। तब उन्हें विश्वास नहीं हुआ, उसे भेड़िया समझा लेकिन पदचिह्न मनुष्य जैसे थे। 1957 में किसी वैज्ञानिक ने 5 हजार मीटर की ऊँचाई पर मानव आकृति वाला दो पैरों से चलने वाला विशालकाय जीव देखा। जो चलते-चलते एक-एक कर घास-पात की तरह पेड़ उखाड़ रहा था। चेहरे का रंग हल्का पीला शरीर पर घने बाल सिर पर बाल जटाओं जैसे लम्बे थे।

1944 में वुड क्रिकलैंड एवं मैक्स ने अपनी यात्रा वर्णन में बताया कि 4 हजार मीटर की ऊँचाई पर मनुष्य जैसी ऊँचाई के लंगूर रहते हैं। दो पैरों से चलते हैं।

1970 में प्रसिद्ध पर्वतारोही डाँन विलन्स ने नेपाल में 4 हजार फुट की ऊँचाई पर बर्फ के पहाड़ पर रहस्यमय पद चिन्ह देखे और चन्द्रमा के प्रकाश में पर्वत की तलहटी पर मानवाकृति को देखा।

ऐसी अन्य अनेक घटनाओं को तो वैज्ञानिकों ने निराधार सिद्ध कर दिया लेकिन 1951 में माउण्ट एवरेस्ट पर 6 हजार 500 मीटर की ऊँचाई पर लिये गये पदचिह्नों के फोटोग्राफ अब भी रहस्यमय बने हुए हैं। एरिक सिप्टन और माइचेल वार्ड दोनों शेरपा तेनसिंह के साथ माउण्ट एवरेस्ट पर गये थे उसे समय की यह घटना है।

स्मिथ सोनियल इन्स्टीट्यूट अमेरिका के प्रिमेटोलाँजी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष प्रो. जाँन नेपियर ने ऐसी अनेकों घटनाओं के साथ उपर्युक्त घटना का है। अध्ययन किया और बताया कि “माउण्ट एवरेस्ट की घटना को निराधार नहीं कह सकते। लेकिन फिलहाल यह अनिर्मित ही बनी है।”

‘तास’ की खबर के अनुसार कुछ रुसियों ने उत्तरी साइबेरिया के याकुत इलाके में ‘छछना’ (यत्ती) देखा है। 1980 में समाचार पत्रों में खबर छपी कि केन्द्रीय चीन में 48 से. मी. लम्बे पैरों के निशान मिले। 1974 में ‘नेपाली न्यूज एजेन्सी’ की रिपोर्ट के अनुसार नौजे (नामचे बाजार) में लगभग तीस किलोमीटर फेरिचे गाँव की 10 साल की लाक्पा नाम की शेरपाणी ने यति देखा। वह अपने पाँच याकचरा रही थी कि एकाएक यति न उसे उठाया और खड्डे में डाल दिया और उसके पाँचों याकों को गले से पकड़ कर मार दिया। बेचारी दहशत के मारे बाद में चार महीनों तक विक्षिप्त-सी रही।

चीन के हुबेई प्रान्त में हाल के वर्षों में कई ‘वनमानुष’ देखे गये जिनकी लम्बाई दो मीटर से भी अधिक तथा अंग बालों से ढके हुए थे।

शंघाई के दैनिक ‘वेनहुई बाओ’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 1976 में हुबेई के निवासियों ने 14 बार वनमानुष देखे। अगले वर्ष उनकी खोज के लिए 110 सदस्यीय खोजी दल का गठन किया गया। ये वनमानुष मानवों की भाँति पैरों के बल चलते हैं और ताली बजाने, चिल्लाने, हँसने व छड़ी आदि लेकर चलने की क्रियायें करते हैं। उन्हें मनुष्यों के साथ रहना अच्छा लगता है।

उनके चेहरे भी बालों से ढके होते हैं। मुँह बड़ा होता है तथा चेहरे का ऊपरी हिस्सा चौड़ा व निचला हिस्सा सँकरा होता है।

पत्र के अनुसार इन वनमानुषों के पूँछ नहीं होती और कान मनुष्यों से बड़े होते हैं तथा आँखें बड़ी व गहरी होती हैं। शंघाई विश्व विद्यालय के जीव विज्ञान विभाग के प्रोफेसर वी लिड मिन हुआँग के अनुसार ये वनमानुष मानव तथा ओरंगउटाँग के बीच के जीव हैं।

यों तो हिमालय में 3000 मीटर से 6000 मीटर की ऊँचाई तक जहाँ-तहाँ पर्वतारोहियों, चरावाहों और शेरपाओं को इसके पद चिन्ह दिखाई दिये हैं, किन्तु इसका मुख्य क्षेत्र है-एवरेस्ट-श्रेणी की हिमानियाँ और तलहटियाँ। इसलिये नेपाल में एवरेस्ट-श्रेणी के लिए ‘महालंगूर हिमाल’ शब्द का प्रयोग मिलता है। महालंगूर शब्द से यही रहस्यमय हिम-मानव यती अभिप्रेत है।

इसके अतिरिक्त अमेरिका में भी उसके अस्तित्व के प्रमाण मिले हैं। 1969 की 30 जून को ‘नेशनल बुलेटिन’ में प्रकाशित घटना का विवरण इस प्रकार है− एक अमेरिकी लड़की ने बताया कि अमेरिका के मिनेसोटा जंगल में एक भीमकाय हिम मानव ने मुझे छेड़ा किसी तरह मैंने उसकी दाहिनी आँख में गोली मारी और छुटकारा पाया। इस हिम मानव का फ्रेंक डी. हेन्सन प्रदर्शन के लिए उपयोग करता था। सामान्यतः जंगली जानवरों को पिंजरों में रखा जाता है लेकिन इसे बर्फ के कटघरे में रखा जाता था प्रदर्शन के समय हेन्सन सबको इसका परिचय इस प्रकार देता था कि सायबेरिया के पास आखोटस समुद्र में तैरते हुए 6 हजार पौंड के हिमशैल पर मैंने इसे पकड़ा था। उसके मर जाने के बाद वैसा ही कृत्रिम हिम मानव प्रदर्शन हेतु बनाया। लेकिन आश्चर्य की बात है कि प्रसिद्ध जीवशास्त्री इवान सेंडरसन और बर्नार्ड होवेलमेन ने “बुलेटिन आफ दि रायल इंस्टीट्यूट आफ नेचुरल साइन्सिस बेल्जियम’ नामक पत्रिका में एक लेख प्रकाशित किया जिसके अनुसार-उन्होंने विशालकाय आकार के प्राणियों की वैज्ञानिक जाँच भी की यह रहस्यमय मानवाकृति ‘होमोपोंगाइड्स’ नामक प्राणी से मिलती है।

1920 में स्विट्जरलैंड के जिओलोजिस्ट फ्रोकोइस डी. लोइस ने एक महाकाय बन्दर जैसे प्राणी को गोली से मारा था। जिसकी लम्बाई 2 मीटर थी। इस प्रकार के अनेकों बन्दर दक्षिणी अमेरिका में देखे गये हैं।

1924 में लाँयर्स नामक वैज्ञानिक ने बन्दर की आकृति से मिलते-जुलते भीमकाय प्राणी को देखने और उसके पदचिह्नों फोटो के प्रस्तुत किये थे।

1933 में एक रिपोर्ट समाचार पत्रों में छपी थी। 4500 मीटर ऊँचाई के हिमाच्छादित पहाड़ों पर दो पर्वतारोही बैठे थे वहाँ से उन्होंने मानवाकृति के विशालकाय प्राणी को 400 मीटर नीचे पहाड़ की तलहटी में फल खाते देखा था। बाद में पदचिह्नों को देखकर मालूम हुआ कि वे रीछ के पर से भिन्न थे।

1950 में छपी रिपोर्टानुसार चैपमैन परिवार की दो महिलाएँ खेत में काम कर रही थीं। उन्होंने 3−4 मीटर ऊँचाई का घने बालों वाला राक्षसाकृति व्यक्ति देखा। उसे देखकर दोनों डरकर भागने लगीं, नदी के उस पार उनका घर था। वह व्यक्ति पीछा करते हुए नदी के किनारे आया वहाँ लकड़ी की पेटी में मछलियाँ रखी थीं। उसने वह पेटी उलट दी।

1955 में एक व्यक्ति ने एक महाकाय शरीर वाली स्त्री को स्वयं से 20 मीटर दूरी पर कुछ खाते हुए देखा। पेड़ की टहनियाँ तोड़कर उसके पत्ते खा रही थी। जब वह चली गयी, उस स्थान का निरीक्षण करने गया। वहाँ उसके मल में भी पत्तियों के टुकड़े थे।

1958 में एक बिल्डिंग का निर्माण कार्य चल रहा था। एक कारीगर ने जंगल की ओर का दरवाजा खोला। घने बालों से ढके विशालकाय मनुष्य को देखा मजदूर के हाथ में खाने की वस्तु थी उसने उसे दे दी, लेते ही वह चला गया।

1963 में एक मकान के निर्माण का कार्य चल रहा था। कंक्रीट के बड़े-बड़े ब्लाक पड़े थे। एक ट्रक भी वहीं खड़ा था। रात्रि में एक विचित्र घटना घटी। दूसरे दिन प्रातः लोगों ने मनुष्य की पदाकृति के बड़े आकार में पद चिन्ह देखे वजनी कंक्रीट ब्लाक इस तरह बिखरे पड़े थे जैसे किसी शक्ति शाली हाथों ने इधर-उधर कर दिया हो, ट्रक भी उल्टा पड़ा था।

1967 की घटना इस प्रकार है-शीतकाल में कई जंगली चूहे शीत निद्रा में सो जाते हैं। उन जंगलों में लोगों ने दो विशालकाय मानवाकृति एवं एक बच्चे को पत्थर में टटोलते कुछ देखा। कुछ पत्थरों के नीचे उन्हें जंगली चूहे मिल गये। इतने बड़े चूहों को वे केले की तरह खाने लगे।

1969 में अमेरिका बोस वर्ग नामक शहर से बाहर जहाँ शहर के कूड़े का ढेर रहता था। वहाँ बड़ी आकृति के असंख्यों पद चिन्ह देखे गये। गिनने पर उनकी संख्या 10089 थी।

1970 में जंगल में रात्रि के समय एक शिकारी ने मानवाकृति जैसे डरावने विशालकाय प्राणी को देखा। उसकी आँखें लाल प्रकाश से चमकती दिखाई दे रही थीं वह ऐल्फ नामक जंगली जानवर को खा रहा था। पीछा करने पर वह भाग गया। ऐल्फ का अधखाया शरीर वहीं पड़ा था। उसके बड़े-बड़े पैरों के निशान भी देखे गये।

1972 में रबर की नाव में समुद्र यात्रा करने वाले दो यात्रियों ने बन्दर की आकृति जैसे बड़े प्राणी देखे। एक की ऊँचाई 1.8 मीटर और दूसरे की 1.2 मीटर थी। इन दोनों प्राणियों ने उत्सुकतापूर्वक नेत्रों से समुद्री यात्रियों को देखा। उनकी आँखों में भयानकता नहीं थी।

प्रस्तुत घटनाएँ अपवाद रूप में ही सही, हिममानव का अस्तित्व अथवा अपनी जिजीविषा के बल पर उसकी दुर्गम स्थानों पर जीवित रहने की संभावनाएँ उजागर करती हैं। यही सामर्थ्य मनुष्य में भी विद्यमान है। ‘हिममानव’ हमें हतप्रभ तो करता है पर इतना ही काफी नहीं। मनुष्य इसे प्रतिकूलताओं में भी जीने की चुनौती मानकर स्वीकार करे तो ही इस अविज्ञात की खोज की सार्थकता है।


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