जानना तो अपने को भी चाहिए

September 1982

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कोई भी वस्तु तब तक उपयोगी सिद्ध नहीं होती जब तक उसके विषय में पूरी जानकारी न हो। वह चाहे कितनी भी कीमती क्यों न हो, उसका ठीक उपयोग कर सकना तथा लाभ उठा पाना तभी सम्भव है जब उससे पूर्णतया परिचित हों। एक मोटर ड्राइवर मोटर के कल-पुर्जे से अवगत होता है तभी वह भली-भाँति गाड़ी को चला सकने में समर्थ हो पाता है। मोटर के विभिन्न अंगों की जानकारी न हो तो वह कभी न कभी दुर्घटना कर बैठेगा। डाक्टर दवाओं के विषय में अच्छी प्रकार परिचित होता है। रोगों के उपचार कर पाने में इसी कारण वह समर्थ होता है। दवाओं एवं उनका मनुष्य शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन न हो तो किया गया उपचार सफल नहीं होता, उल्टे हानि की सम्भावना बनी रहती है।

इंजीनियर को इंजीनियरिंग का ज्ञान होता है। सुन्दर मकान, बड़े-बड़े कल-कारखाने नहर, पुल का निर्माण कर सकना तभी सम्भव हो पाता है। अध्यापक अपने विषय में पारंगत होता है। विद्यार्थियों को ठीक निर्भर करता है। अधकचरे ज्ञान से वह विद्यार्थियों को ठीक प्रकार पढ़ा नहीं सकता उल्टे उनको क्षति ही पहुँचायेगा।

यह तो उन विषयों की बात हुई जिसके लिए विशेष प्रेम, समय एव मनोयोग लगाना पड़ता है। तत्पश्चात अभीष्ट सफलता मिलती है। उसका सही उपयोग बन पड़ता है। ऐसे सामान्य विषय भी हैं जिनकी जानकारी इस दृष्टि से आवश्यक होती है कि उनका प्रयोग हम दैनिक जीवन में करते हैं। दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं से सभी परिचित होते हैं। उनका प्रयोग विभिन्न कार्यों के लिए करते हैं। सामान्यतया ये जानकारियाँ प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक होती हैं। सुचारु रूप से उनका उपयोग कर सकना तभी सम्भव हो सकता है। जीवन से सम्बन्धित एवं नित्य प्रयोग में आने वाली चीजों से परिचित होना आवश्यक है और उपयोगी भी।

जिस सत्ता द्वारा विभिन्न वस्तुओं का-संसार का-बोध होता है उसको जानना इन सबकी अपेक्षा कहीं अधिक आवश्यक है। आश्चर्य की बात यहाँ है कि जड़-वस्तुओं से मनुष्य भली-भाँति परिचित होता है किन्तु जिसके कारण उनके अस्तित्व का बोध होता है उससे सर्वथा अपरिचित बना रहता है। विचारशीलता का इससे बढ़कर दोष कोई दूसरा नहीं हो सकता। मैं का प्रयोग करते तो सभी हैं किन्तु 'मैं' क्या है, उसका स्वरूप क्या हैं-इस पर विचार करने तथा जानने का प्रयत्न बिरले व्यक्ति ही करते है इससे बढ़कर विडम्बना और क्या हो सकती है कि मनुष्य को अपने विषय में ही जानकारी न हो। अपना आइना ही पराया बना रहे। जीवन के स्वरूप, महत्व, लक्ष्य एवं उपयोग का पता न हो तो हर दृष्टि से दुर्भाग्यपूर्ण हो कही जायेगी। अपनी चीजों से अपरिचित बने रहने में तो उस पर अन्य व्यक्ति ही अधिकार कर लेते हैं।

शरीर और वस्तुओं के विषय में मनुष्य ने अनेकों प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त कीं। उन्हें सुधारने, सँवारने के लिए कितने शास्त्र गढ़ डाले। किन्तु अपना आपा ही अनजान बना रहा। दूसरों को खिलाया गया, उनकी सेवा की गई किन्तु अपनी सत्ता भूखी बनी रही। न उसे जानने का प्रयत्न किया गया और न ही सँवारने का चेष्टा एवं मनोयोग इन्द्रियों की साज-सज्जा में लगी रहीं।

क्षमता, इन्द्रियों की आवश्यकता की पूर्ति में नियोजित होने के कारण अपने से ही अनजान बने रहे अपना वास्तविक के परिचय तो अपने द्वारा ही सम्भव है अपरिचित बने रहने का परिणाम ही है कि अपनी आत्मा की विभूतियों एवं उनसे मिलने वाले दिव्य अनुदानों में हम आजीवन वंचित रहते हैं। बाह्य आकर्षणों के भी करने की मृग तृष्णा का कारण है-आत्म स्वरूप एव उसकी सम्पन्नता का बोध न होना। यदि यह पता चल जाय कि अपना आपा कितना महान एव सम्पन्न है तो जब पदार्थों के लिए की जाने वाली अनावश्यक एवं अवांछनीय भाग-दौड़ समाप्त हो जाय।

बाह्य आकर्षणों में अत्याधिक लिप्त चेतना अपनी जानकारी से वंचित रह जाती है। जड़-पदार्थों में आबद्ध रहने से अपना परिचय मिल सकना सम्भव भी नहीं है। उससे विमुख होते, आसक्ति को विरक्ति में बदलने से ही स्व को-आत्मा की-खोज कर सकना सम्भव है। बुद्धि भी जड़ इन्द्रियों के सदृश्य है। वह भी इन्द्रियों की सहयोगी बनी रहती तथा उनके हाँ में हाँ मिलाती रहती है। प्रवृत्तियों को बाह्य जगत से मोड़ कर अन्तर्मुखी करने में इन्द्रियों के साथ वह भी अन्तरंग की खोज में सहयोग देने लगती है। जड़ तत्वों का ही उपादान होने के कारण बुद्धि भी शरीर को ही सब कुछ माने रहती है। अपने को शरीर मान लेना बुद्धि का एक बड़ा दोष है। 'मैं' का प्रयोग जिसके लिए किया जाता है वह शरीर नहीं है। इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भी 'मैं' नहीं हो सकती। इनकी जानकारी एवं अनुभव भौतिक संसार तक सीमित है। इनकी क्षमता भी अपनी स्वयं की नहीं है। स्पष्ट है कि जिसके कारण इन्द्रियाँ एवं बुद्धि संचालित हैं वह कारण सत्ता ही ‘मैं’ है। उसका प्रकाश ही इन्द्रियों को करने एवं बुद्धि को सोचने का सामर्थ्य देता है। उसके आलोक से ही संसार का स्थल स्वरूप आकर्षण प्रतिभासित होता है। अन्यथा जड़ में आकर्षण कहाँ? आत्मा स्वयं आनन्द स्वरूप है। उसकी आनन्दमयी किरणें ही वस्तुओं पर पड़कर आकर्षण उत्पन्न करती है। भूल यह होती है कि आकर्षण वस्तुओं में मान लिया जाता है जबकि उसका केन्द्र बिन्दु अन्तरात्मा है।

अपने स्वरूप एवं सामर्थ्य से परिचित न होने कारण ही व्यक्ति यों, वस्तुओं एवं परिस्थितियों की पवित्रता स्वीकार कर ली जाती है। अन्यथा अन्तरात्मा इतनी समर्थ है कि उसे बाह्य परिस्थितियाँ प्रभावित नहीं कर सकती। अविवेक के कारण ही वस्तुओं की प्रतिभासित होने वाली सत्यता एवं नित्यता को यथार्थ मान लिया जाता है। विवेक के प्रकाश में अपने विषय में बोध होते ही इनकी निस्सारता स्पष्ट मालूम होने लगती है।

अन्तरात्मा शान्त एवं आनन्द स्वरूप है। वह इतनी सम्पन्न है कि उसकी सम्पन्नता में कभी अभाव हो ही नहीं सकता कामनाओं की तृष्णा जो आजीवन मनुष्य को उद्विग्न बनाये रहती है, अन्तरंग की सम्पन्नता प्राप्त होते ही गल जाती है और कुछ पाने की कामना नहीं रह जाती है। जो भौतिक वस्तुएँ आकर्षक प्रतीत होती थी वे ही नीरस लगने लगती हैं। अपने दिव्य स्वरूप के अलौकिक आनन्द की मस्ती में डूबे साधक को जड़ वस्तुओं एवं संसार की वास्तविकता का बोध हो जाता है। ऐसी स्थिति में पहुँचा हुआ साधक शरीर को-इन्द्रियों को-वाहन मानकर उनका सदुपयोग श्रेष्ठ कार्यों के लिए करता है।

शरीर वस्तु एवं संसार की जानकारी एक सीमा तक उपयोगी हो सकती है। किन्तु इनसे भी आवश्यक है-अपने विषय में जानना-अपनी क्षमताओं से परिचित होना। अपने विषय में अपरिचित बने रहने से जीवन का सही उपयोग कर सकना सम्भव नहीं हो पाता। जो परिणाम एक अनाड़ी ड्राइवर, अज्ञानी डाक्टर एवं उथली जानकारी रखने वाले अध्यापक का होता है, वही मनुष्य को भी होता है अपना आपा ही अनजान बना रहा जो मनुष्य जीवन का इससे बढ़कर दुर्भाग्य दूसरा कोई नहीं हो सकता है। अपने को जानना ही मानव जीवन का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हर सम्भव प्रयास किये जाने चाहिए


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