सत्यं, शिवं, सुन्दरम की अभिव्यक्ति गायत्री मन्त्र में

September 1982

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परमात्मा सत्य है शिव है और सुन्दर भी। उसकी स्थूल अभिव्यक्ति यह सृष्टि है। जीवात्मा भी उसी का अंश है। इन्हीं गुणों से ओत-प्रोत है। इसी तथ्य की व्याख्या करने के लिए धर्म का इतना बड़ा कलेवर ऋषियों ने खड़ा किया। उपनिषद् यही सन्देश देते हैं। शास्त्रों की रचना का मूल प्रयोजन यही है आत्म स्वरूप परमात्मा स्वरूप का बोध कराना। शास्त्रों में गूढ़ एवं विशद व्याख्या परमात्मा के दिव्य स्वरूप की ही की गई है। जिसका लक्ष्य है मनुष्य यह जाने के कि परमात्मा का अंशी होने के कारण विरासत में उसे भी वह विशेषताएँ मिली हैं। दैवी क्षमताओं से वह सम्पन्न है। प्रसुप्ति के कारण अज्ञान के कारण मनुष्य को अपनी दिव्यता का बोध नहीं रहता और अन्धकार में भटकता रहता है।

ऋषियों की यह विशेषता रही है कि गूढ़ रहस्यों को उन्होंने सूत्रों के रूप में व्यक्त किया है। वेद, शास्त्रों, उपनिषदों में जिन तथ्यों की विशद व्याख्या की गई है वे सारे के सारे गायत्री महामन्त्र के छोटे सूत्र में समाहित में हैं। मन्त्र शिरोमणि कहे जाने एवं भारतीय संस्कृति में सर्वोच्च स्थान पाने का कारण गायत्री मन्त्र की विशेषताएँ ही हैं जो सूत्र रूप में आबद्ध हैं। परमात्मा के सत्य, शिव एवं सुन्दर स्वरूप की अभिव्यक्ति गायत्री मन्त्र में है। इसके तीन पद इसी शाश्वत सत्य का बोध कराते हैं।

भूः भुवः एवं स्वः लोक में संव्याप्त ॐ परमात्मा का दिव्य स्वरूप ही वरेण्य है। 'तत्सवितुर्वरेण्यं' गायत्री का प्रथम पद इस गूढ़ रहस्य का उद्घाटन करता है। वही एक मात्र सत्य है। सत्ता-अस्तित्व इसी का है। तीनों लोकों में वह विद्यमान है। मानवी सत्ता में भूः स्थूल अभिव्यक्ति शरीर के रूप में भुवः सूक्ष्म मन के रूप में और स्वः कारण अभिव्यक्ति अन्तःकरण में विद्यमान आत्मा के रूप में है। प्रथम पद सत को जानने की प्रेरणा देता है, प्रेरणा ही नहीं, वरेण्य करने धारण करने की शिक्षा देता है।

आज मनुष्य में वरण करने की क्षमता नहीं रही। वरेण्य शक्ति के अभाव में समस्त मानव जाति अज्ञान के अन्धकार में भटक रही है। हम चयन करते हैं भौतिक वस्तुओं का-जड़-पदार्थों का-नष्ट हो जाने वाले तत्वों का। फलतः अज्ञानान्धकार में आजीवन भटकते, रहते हैं। धन, सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिए कितना श्रम एवं पुरुषार्थ करते हैं। अपना सम्पूर्ण मनोयोग लगा देते हैं। विभूति के रूप में मिली हुई शारीरिक बलिष्ठता एवं मानसिक प्रखरता की शक्ति को इन्हीं प्रयोजनों के लिए झोंक देते हैं। आकांक्षा की केन्द्र बिन्दु साँसारिक वस्तुएँ ही रहती हैं। पुत्र की, धन, की पद एवं प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिए प्रयास चलते हैं। सम्पूर्ण प्रयास असत को-नश्वर आकर्षणों को वरण करने में ही लग जाता है। सत की उपेक्षा बनी रहती है। परमात्मा आत्मा के अस्तित्व एवं सामर्थ्य से अपरिचित बने रहते हैं। गायत्री का प्रथम पद सत को वरण करने-तमसो मा ज्योतिर्गमय की प्रेरणा देता है। वह सर्वत्र संव्याप्त है-शाश्वत है। उसकी दिव्यता ही वर्णनीय है इसी तथ्य का उद्घोष करता है। नश्वर अस्तित्व रहित वस्तुओं के आकर्षण को ही वास्तविक मानकर मनुष्य सतत् उनके पीछे दौड़ता रहता है। मृगमरीचिका की भाँति भटकता है। यह भटकाव अपने साथ असन्तोष एवं अतृप्ति का अभिशाप साथ लेकर प्रकट होता तथा मानवी प्रवृत्तियों में काम, क्रोध, और मोह के विकारों के रूप में उतरता है। गायत्री मन्त्र का ‘वरेण्य’ साधक को वरण करने-चयन करने की सामर्थ्य देता है। सत्ता जो सत है दिव्यताओं से ओत-प्रोत है उसी का वरण करने में मनुष्य का कल्याण निहित है।

द्वितीय चरण ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ सुंदरम् की शाश्वत सौंदर्य की अभिव्यक्ति है। जो दिव्य है, पाप नाशक-निष्कलंक है, देवतुल्य है-दैवी गुणों से भरपूर है। उसको अन्तःकरण में धारण करें। सौंदर्य की अनुभूति अन्तःकरण ही करता है। भावनाओं, सम्वेदनाओं का मर्मस्थल यही है। इस केन्द्र बिन्दु से उठने वाली भाव-तरंग ही वस्तुओं-पदार्थों में टकराकर आकर्षण उत्पन्न करती है। दृश्य जगत का सौंदर्य आपन निज का नहीं है। अदृश्य चेतन तरंगें ही उनमें गति प्रदान कर तो दृश्य संसार नीरस, आकर्षण रहित दृष्टिगोचर होगा। अपनापन जहाँ भी आरोपित किया जाता है-सौंदर्य आकर्षण यहीं दिखायी पड़ने लगता है। चाहे वस्तुओं में किया जाय अथवा व्यक्तियों में। अपना घर अपना सामान, अपना बच्चा, अपनी पत्नी, अपने संगी सभी अच्छे लगते है। अपनापन हट जाने पर वे ही वस्तुएँ अप्रिय लगने लगती है।

गायत्री के द्वितीय चरण में शाश्वत सौंदर्य की अनुभूति का भाग प्रशस्त करता है। उसका दर्शन कैसे करें, सुंदरम् अनुभूतियों में कैसे उतरें, इसका समाधान द्वितीय पद विद्यमान है। परमात्मा के उस दिव्यतम स्वरूप को हम धारण करें जो दुःखों से रहित, आनन्द-दायक पापनाशक तथा द्विधा है। हम धारण करते हैं संकीर्ण स्वार्थों से युक्त प्रवृत्तियों को, काम, क्रोध, लोभ एवं अहंकार की वृत्तियों को, इसी कारण अन्तःकरण मलीनताओं से ढक जाता है। आवरण से अन्तः में निवास करने वाली दिव्य सत्ता के दिग्दर्शन से वंचित बने रहते है। देव प्रवृत्तियों को न अपना पाने के कारण अपनी दिव्यता का बोध नहीं हो पाता। फलतः आत्मसत्ता की गरिमा के प्रतिकूल कृत्य करते है। सौंदर्य का दर्शन पाप रहित होने पर ही सम्भव है। अनीति अत्याचार करने और उनके ताप-संताप में जलते रहने से सम्भव नहीं है। नीति, सदाचार से युक्त राज-मार्ग ही सौंदर्य के उद्गम स्थल तक पहुँचा सकता है।

गायत्री महामन्त्र का तृतीय पद मानव मात्र के लिए शिवं का-कल्याण का मार्ग प्रशस्त प्रशस्त करता है। ईश्वर प्रदत्त मनुष्य को सर्वोत्तम विभूत बुद्धि है। उत्थान-पतन प्रगति का क्रम इस पर ही टिका हुआ है। यह मनुष्य को देवता बना सकती है और दानव भी। नर से नारायण बना सकती है और नर पशु भरी। यह बुद्धि की दिशा धारा पर निर्भर करता है।

सामान्यतया यह शरीर एवं मन की ही पक्षधर बनती है। शरीर की पुष्टि एवं मन की तुष्टि ही इसे भी रुचती है। फलतः प्रत्यक्ष लाभों का ही समर्थन करनी है। उसे त्याग-बलिदान का मार्ग अपनाने-परमार्थ पर चलने से मिलने वाले आत्मा-सन्तोष एवं आनन्द का दूरवर्ती लाभ नहीं दीख पड़ना है। बुद्धि की इस प्रवृत्ति से परिचित ऋषियों ने मार्ग दर्शाया। गायत्री महामन्त्र के अवलम्बन की प्रेरणा दी।

गायत्री मन्त्र में अपने लिए किसी वस्तु की कामना नहीं की गई है। ‘योनः’ समष्टिगत प्रज्ञा के अवतरण के लिए प्रार्थना हुई हे। गायत्री मन्त्र व्यक्ति नहीं समूह-व्यष्टि नहीं समष्टि के कल्याण में विश्वास व्यक्ति करता हे। यही कारण है कि कल्याण साधन सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है वह मात्र अपने लिए नहीं वरन् सबके लिए-नः (हम सबकी ) की गई है। सन्मार्ग पर चलने में इससे बढ़कर लाभ संसार में दूसरा और कुछ नहीं हो सकता। आत्म-सन्तोष जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है जिसकी प्रगति के लिए ही सम्पूर्ण भौतिक प्रयास चलते है। यह उपलब्धि परमार्थ पथ को अपनाने वाले को सहज ही प्राप्त हो जाती है। शिवं का-कल्याण का यही वास्तविक स्वरूप है।

सत्यं, शिवं सुन्दर की तीनों धाराएँ गायत्री महा-मन्त्र से फटती तथा साधक के अन्तःकरण में जाकर एका-कार ही जाती हे। इस त्रिवेणी में स्नान करने वाला अमृत तुल्य दिव्यताओं का-परमात्मा का दर्शन करता है। आत्म स्वरूप सत्यं-शिवं एवं सुंदरम् के दिग्दर्शन के उपरान्त उसे किसी अन्य साँसारिक वस्तु की कामना नहीं रहती।


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