नींव और शिखर (kavita)

September 1982

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सब शिखर के स्वप्न-दृष्टा ही बने यदि, तो भवन की नींव का पत्थर बनेगा कौन। सब पवन-प्रेरित पताका ही बने यदि, नींव की चट्टान जैसा फिर तनेगा कौन॥1॥

नींव पर ही भवन को विश्वास होता है। नींव में ही शिखर का इतिहास होता है। शिखर की चर्चा हुआ करती महोत्सव पर, नींव में चिर-प्राण का आवास होता है। सब महोत्सव की प्रतीक्षा ही करें यदि, महोत्सव अनुकूल दिनचर्या बनेगा कौन॥2॥

उच्चतम शिखरे उठाना ‘लक्ष्य’ अच्छा है। क्योंकि सृष्टा की यहीं तो प्रबल इच्छा है। सुशोभित करना शिखर पर है पताका भी, ‘श्रेष्ठतम’ के वरण की ही तो प्रतीक्षा है। किन्तु! सब ही कीर्ति के किंकर बने यदि, कर्म की महिमा उजागर फिर करेगा कौन॥3॥

जिस नये युग का कि नव निर्माण होना है। हमें उसकी नींव का पाषाण होना हैं। सीढ़ियों पर सीढ़ियाँ धरते चले आओ, अवतरण तब स्वर्ग का आसान होना है। उदय ही देवत्व का हममें न हो यदि, इस धरा पर स्वर्ग का सृष्टा बनेगा कौन॥4॥

नींव बनने से अगर कतरा गये तो। शेख चिल्ली की तरह इतरा गये तो। मनुजता का फिर कहाँ आवास होगा, मनुज के ही आचरण पथरा गये तो। ‘व्यष्टि का निर्माण’ ही पीछे रहा यदि, ‘सृष्टि का आदर्श’ फिर निर्मित करेगा कौन॥5॥

—मंगल विजय

*समाप्त*


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