यथार्थता को समझें—आग्रह न थोपें

May 1974

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संसार जैसा कुछ है हमें उसे उसी रूप में समझना चाहिए और प्रस्तुत यथार्थता के अनुरूप अपने को ढालना चाहिए। संसार केवल हमारे लिए ही नहीं बना हैं ओर उसके समस्त पदार्थों एवं प्राणियों का हमारी मनमर्जी के अनुरूप बन या बदल जाना सम्भव नहीं है। तालमेल बिठा कर समन्वय की गति पर चलने से ही हम संतोष पूर्वक रह सकते हैं और शान्ति पूर्वक रहने दे सकते हैं।

यहां रात भी होती है और दिन भी रहता हैं। स्वजन परिवार में जन्म भी होते हैं और मरण भी। सदा दिन ही रहे कभी रात न हो। परिवार में जन्म संख्या ही बढ़ती रहे मरण कभी किसी का न हो। ऐसी शुभेच्छा तो उचित हैं पर वैसी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती। रात को रात के ढंग से और दिन को दिन के ढंग से प्रयोग करके हम सुखी रह सकते हैं ओर दोनों स्थितियों के साथ जुड़े हुए लाभों का आनन्द ले सकते हैं। जीवन को अपनी उपयोगिता है और मरण को अपनी। दोनों का संतुलन मिलाकर सोचा जा सकेगा। तो हर्ष एवं उद्वेग के उन्मत्त विक्षिप्त बना देने वाले आवेशों से हम बचे रह सकते हैं।

हर मनुष्य की आकृति भिन्न है, किसी की शकल किसी से नहीं मिलती। इसी प्रकार प्रकृति भी भिन्न हैं। हर मनुष्य का व्यक्तित्व अपने ढंग से विकसित हुआ है। उसमें सुधार परिवर्तन की एक सीमा तक ही सम्भावना है। जितना सम्भव हो उतना सुधार का प्रयत्न किया जाय पर यह आग्रह न रहे कि दुनिया को वैसा ही बना लेंगे जैसा हम चाहते हैं। तालमेल बिठाकर चलना ही व्यवहार कौशल हैं। उसी को अपना कर सुख से रहना ओर शान्ति से रहने देना सम्भव हो सकता है।


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