कुकर्मों की सर्वनाशी विभीषिका

May 1974

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पाप का आकर्षक सर्प की तरह सुहावना लगता है मनुष्य उसे लाभ और सुख की आशा से पकड़ने का प्रयत्न करता है और आरम्भ में उस पकड़ की सफलता पर प्रसन्न भी होता है पर कुछ ही समय में यह स्पष्ट हो जाता है कि यह फाँसी का फन्दा गले में बाँध लेने की तरह कितना दुखद और कितना विषम था।

चूहा सरलता पूर्वक रोटी का, मिठाई का टुकड़ा पाने के लालच से पिंजड़े के छेद में प्रवेश करता है, इस सफलता को वह अपनी बुद्धिमत्ता और सौभाग्य भरी उपलब्धि मानता है। मिठाई में दाँत लगाते समय तो उसकी प्रसन्नता का ठिकाना ही नहीं रहता। दूसरे चूहे जबकि एक-एक दाना बीनते जहाँ-जहाँ भटकते हैं तब उसने सहज ही इतनी सारी मिठाई खाने का अवसर प्राप्त कर लिया-क्या यह कम आनन्द की बात है? चूहा इस सौमान्य कल्पना में अधिक देर नहीं उड़ पाता। कठोर वास्तविकता कुछ ही क्षणों में सामने आ खड़ी होती है। खटका गिरता है और उस कैद में जकड़ जाता है जिसका अन्त मृत्यु के साथ ही सम्भव होता है। तब उसे समझ आती है कि यह आकर्षण भरा प्रलोभन बहुत महंगा पड़ा। अच्छा होता वह एक-एक दाना बीनकर—भारी दौड़धूप करके—पेट भरने को सन्तोषजनक मान लेता।

दुष्कर्मों और दुर्व्यसनों का स्वरूप और आकर्षण कुछ ऐसा ही है जिसे देखकर अदूरदर्शी उन पर बेतरह टूट पड़ने हैं। आगा-पीछा सोचने लायक विवेक भी हाथ में नहीं रहता। अधिक जल्दी—अधिक मात्रा में—अधिक सुख पाने की लिप्सा उस सूक्ष्म चिंतन क अपहरण कर लेती है जिससे यथार्थता क —प्रतिक्रिया को समझना सम्भव होता है। कुकर्मी क आरम्भ में अपनी बुद्धिमत्ता पर गर्व होता है। अपने उस साहस की आप ही प्रशंसा करता है जिसे दूसरे लोग कर नहीं पाये और अधिक सुखोपभोग करने से वंचित रह गये। किन्तु उसकी यह मान्यता देर तक स्थिर नहीं रहती। कुछ ही समय में पता चलता है कि जो कमाया गया उससे हजारों गुना अधिक गँधा दिया गया।

कुकर्मी को अपना शील, सदाचार गँवाना पड़ता है। इसके साथ ही उसकी आन्तरिक गरिमा नष्ट हो जाती है। जिन आस्थाओं के कारण मनुष्य अपनी आँखों में सम्मानित होता है और दूसरों की आँखें उसे श्रेष्ठ सत् पुरुषों में गिनती है उन्हें गँवा देने के बाद आदमी एक ओछा और घिनौना प्राणी भर रह जाता है। इन्द्रिय सुख और अहंकार का पोषण एक सीमा तक कर लेने पर भी उसे निरन्तर यह लगता रहता है कि कोई ऐसी चीज हाथ से चली गई जो आत्मिक आनन्द एवं सन्तोष की दृष्टि से नितान्त आवश्यक थी। अपनी आँख में गिरने वाला व्यक्ति अन्य किसी की दृष्टि में सम्मानास्पद और प्रामाणिक नहीं हो सकता।

प्रकृति का सारा कार्य व्यवस्थाओं और मर्यादाओं के आधार पर चल रहा है। इनका व्यतिक्रम सृष्टिकर्ता को सहन नहीं। उद्दण्ड उच्छृंखल को पनपने का अवसर मिले तो संसार की सारी व्यवस्था लड़खड़ा जायगी और अनैतिकता की अराजकता से वे समस्त आधार नष्ट हो जायेंगे जिनके सहारे मनुष्य जाति ने प्रगति की इतनी लम्बी मंजिल पार की है। सृजेता उन्हीं उद्दण्ड तत्वों को निर्दयता पूर्वक उखाड़ फेंकता है जो सृष्टि के सरल स्वाभाविक क्रम में व्यवधान उत्पन्न करने का दुस्साहस करने पर अड़े हुए हैं।

राजदण्ड, सामाजिक असहयोग और तिरस्कार के अतिरिक्त आत्मदण्ड भी कम भयंकर नहीं हैं। इन तीन को करारी चोटें कुकर्मी पर ऐसी आघात करती हैं जिन्हें तिलमिलाने वाली पीड़ा के बिना सहन नहीं किया जा सकता। आत्म-प्रताड़ना के विक्षोभ तरह-तरह के शारीरिक और मानसिक रोगों के रूप में सामने आते हैं। गुण, कर्म, स्वभाव में निकृष्टताएं भर जाने से व्यक्ति प्रेत−पिशाचों की जैसी उद्विग्नता की आग में निरन्तर जलता, झुलसता रहता। वह शान्ति प्रफुल्लता उसे क्षण भर के लिए भी नहीं मलती जिसे मनुष्य जीवन की महानतम उपलब्धि माना जाता है।

मक्खी शीरे की गन्ध, रूप और स्वाद की कल्पना में इतनी विभोर हो जाती है कि उसे धैर्य और क्रम का ध्यान नहीं रहता। बेतहाशा टूट कर गिरती है और सोचती है कि जितना अधिक शीरा—जितनी अधिक मात्रा में खाया जा सके उसे उतना खा लेने का अवसर न चूका जाय। इस उतावली भरी मूर्खता में वह शीरे के भीतर धँस जाती है उसके पंख और पैर चिपक जाते हैं। जिस लिप्सा ने उसे अधीर बनाया वही उसके लिए प्राणघातक संकट भी प्रस्तुत खड़ा करती है। मूर्ख मक्खी को इतना बोध रहा होता कि सस्ते सुखोपभोग की आतुरता अन्ततः प्राणों को संकट में डालने वाली विपत्ति उत्पन्न कर सकती है तो शायद वह सोच−समझकर ही कदम बढ़ाती।

पाप कर्मों में अधिक जल्दी—अधिक मात्रा में सरलता पूर्वक सुखोपभोग के साधन प्राप्त करने का आतुर आकर्षण ही प्रधान रहता है। यही प्रलोभन मनुष्य को नीति विरुद्ध कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। जन−साधारण का हृदय जीवन के लिए श्रेष्ठ सम्मानास्पद कार्य करने की और उत्कृष्ट जीवनयापन की आवश्यकता पड़ती है इसके लिए अपने को ढालना और सुधारना पड़ता है तब कहीं यह सम्भव होता है कि दूसरों का श्रद्धा सिक्त सम्मान प्राप्त करके अपने अन्तःकरण का भूख बुझाई जाय। आतुर व्यक्ति इस सरल मार्ग को छोड़कर आतंकवादी रीति−नीति अपनाते हैं और दूसरों को अपनी विघातक उद्दण्डता से भयभीत करके उन पर छा जाना चाहते हैं। इस तरह उन्हें बड़प्पन की एक उथली सी झलक मिलती तो है पर उससे चिरस्थायी प्रयोजन तनिक भी पूरा नहीं होता।

उद्दण्ड उच्छृंखलता अपनाकर कई आतंकवादी यह सोचते हैं कि उन्होंने दूसरों को अपना लोहा मानने के लिए घिघियाने, गिड़गिड़ाने के लिए बाध्य कर दिया और डरा दिया। इस सफलता पर गर्व करने या प्रसन्न होने की जरूरत नहीं है। ऐसा तो विषैले कृमि−कीटक और हिंस्र पशु भी कर सकते है। आतंकित व्यक्ति चुप रहे, डर जाय, विरोध न करे यह हो सकता है पर उसके अन्तर में भरी हुई घोर घृणा को नहीं रोका जो सकता। जन-मानस से निकलने वाला यह घृणा भरा अभिशाप उस घिनौने व्यक्ति पर अगणित विपत्तियाँ बनकर बरसता है और कठिन समय में उसका कोई साथी सहायक शेष नहीं रहता। लाभ की आशा से जो मित्र बने थे और आतंक के भय से जिन्होंने हाँ में हाँ मिलाई थी वे दोनों ही वर्ग अवसर आते ही आतंकवादी के कुकृत्यों पर अपना रोष व्यक्त करते हैं और उसे नीचा दिखाने के लिए जो कुछ करे सकते हैं, कर गुजरते हैं। आतंकवादियों की सत्ता क्षीण होते ही उनके साथी संबंधी ही शत्रु बन जाते है। असल में दुष्ट का कोई मित्र होता ही नहीं। भीतर से घृणा भरे अन्त करणों का परिकर कभी भी किसी का सच्चा सहायक नहीं हो सकता।

जो उचित परिश्रम करके न्यायोचित मार्ग से कमाया गया है उसका परिणाम सुखद हो सकता है। अनीति का ओत-प्रोत होता है। ऐसी कमाई बीमारी, चोरी तथा फिजूलखर्ची में नष्ट होती है। व्यसन, व्यभिचार और कुकर्म अनाचार ही अनीति उपार्जित सम्पदा से बन पड़ते हैं। इससे पाप का भार और दूना चौगुना बढ़ता है। हराम की कमाई खाकर कभी कोई फला-फला नहीं है। जिनने पाप की पूँजी संग्रह करके अपनी औलाद के लिए छोड़ी उनमें से अधिकांश को वह विष भोजन बहुत भारी और बहुत महंगा पड़ा है। किसी भी प्रकार कमा कर-कितना ही अधिक घन सन्तान को छोड़ने वाले लोग इस उद्देश्य में कभी भी सफल नहीं हो सकते कि उसे खाकर उसके उत्तराधिकारी सुख पूर्वक रह सकेंगे।

कुकर्मी समाज में एक भ्रष्ट परम्परा उत्पन्न करता है। उसकी देखा−देखी अन्य नासमझ लोग उसी, मार्ग का अनुसरण करने लगते हैं। पाप का आकर्षण छूत के रोग की तरह एक से दूसरे को लगता है और महामारी का रूप धारण करता है। एक चिनगारी अवसर पाकर दावानल का भयानक रूप धारण कर लेती है। एक की पाप प्रवृत्ति अनेकों को अपना अनुगामी बनाकर संसार का इतना अनर्थ उत्पन्न करती है जिसकी भयंकरता को कुकर्मी व्यक्ति कदाचित ही कभी समझ पाता है।


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