सार्थक और सारगर्भित उपासना की रीति−नीति

May 1974

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परमात्मा साकार भी है और निराकार भी। साकार वह है जिसे हम चर्म चक्षुओं से देखते हैं और जो विश्व ब्रह्माण्ड के रूप में सामने विद्यमान है। निराकार वह है जिसे चेतना की संज्ञा दी जा सकती है और जो श्रेष्ठ विचारों के रूप में हमारे मस्तिष्क में विराजता है और उत्कृष्ट भावनाएँ बनकर अन्तःकरण के रंग मंच पर क्रीड़ा कल्लोल करता है।

साकार परमेश्वर का दर्शन हम अपने संसार को देखकर कर सकते हैं। उसकी शोभा, सुषमा और कला, कोमलता देखकर पुलकित हो सकते हैं। उसमें जो श्रेष्ठता की ज्योति जलती हैं, उसमें ईश्वरीय, अनुभूति करते हुए आनन्द विभोर रह सकते हैं। विश्वात्मा का—परमात्मा का श्रेष्ठतम पूजन यही है कि अपनी सद्भावनाएँ और सत्प्रवृत्तियों की पूजा सामग्री को भावनापूर्वक समर्पित करते हुए इस संसार को अधिक सुन्दर और अधिक समुन्नत बनाने के लिए अनवरत प्रयत्न करें।

निराकार भगवान के समीप जाने और उसे निकट बुलाने का तरीका एक ही है कि अपने मस्तिष्क को आदर्शवादी विचारधारा से ओत−प्रोत रखें। निकृष्ट दुर्भावनाओं को इस देव मन्दिर में प्रवेश करने से रोके और जहाँ जब गन्दगी दिखाई पड़े तब उसे तुरन्त ही निकाल बाहर करने की तत्परता बरतें। कुविचारों को मस्तिष्क से बहिष्कृत कर देने का अर्थ है शैतान के चँगुल से अपने को छुड़ा लेना सद्विचारों में ही निमग्न रहने के अभ्यस्त मनः क्षेत्र को उत्कृष्ट कोटि का प्रभु मन्दिर कहा जा सकता है अपने सोचने की पद्धति को निकृष्टता के गर्त से निकाल कर उत्कृष्ट विचारणा में रसानुभूति करने वाली बना लिया जाय तो समझना चाहिए मन मन्दिर में देव प्रतिमा की स्थापना हो गई और निरन्तर प्रभु दर्शन का सौभाग्यशाली सुयोग बन गया।

मस्तिष्क को स्वर्गलोक और हृदय को ब्रह्मलोक कहा गया है। विधेयात्मक—सृजनात्मक और सदुद्देश्य पूर्ण विचारों को मन में समुचित स्थान मिलने लगे तो निरन्तर स्वर्गीय हर्षोल्लास से आत्म चेतना प्रफुल्ल और पुलकित रहेगी। हृदय में करुणा, उदारता, शालीनता, सेवा और आत्मीयता जैसे सद्भावनाएं भर दी जायँ तो अपना अन्तःकरण ही ब्रह्मलोक में निवास करने जैसी दिव्य अनुभूति का रसास्वादन करने लगेगा। इन दोनों क्षेत्रों में ही तो मनुष्य का व्यक्तित्व सीमाबद्ध है विचारणा की श्रेष्ठता और भावनाओं की उत्कृष्टता जिसने प्राप्त कर ली समझना चाहिए उसे मनुष्य शरीर रहते हुए भी देवयोनि में प्रवेश करने का सौभाग्य मिल गया। जीवन−लक्ष्य की पूर्ति और नर जन्म की सार्थकता इसी उपलब्धि के साथ जुड़ी हुई है।

ईश्वर के दर्शन इन्हीं चर्मचक्षुओं से करने हों तो इस विशाल विश्व को ईश्वर का रूप मानकर चलना चाहिए। गीता, प्रवचन के समय भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाया है। मिट्टी खाने के लिए प्रताड़ना सहते समय कृष्ण ने यशोदा को भी मुँह खोलकर अपना विराट् विश्व की झाँकी कराई थी। इसी प्रकार काकभुशुंडि के संदेह का निवारण राम का विराट् रूप देखने से ही हुआ था। वस्तुतः यह संसार की—भगवान का—वास्तविक प्रतिमा है। शिवलिंग का गोलपिण्ड और शालिग्राम की वैसी ही गोल प्रतिमा इसी तथ्य की ओर अंगुलि निर्देश करती है कि यह विश्व रूपी गोला—’ग्लोब’ ही दर्शनीय और पूजनीय प्रतीक विग्रह है।

साकार भगवान की मन्दिरों में स्थापित प्रतिमाएं इसी शाश्वत तथ्य का रहस्योद्घाटन करती है कि भगवान क्या है और उसका प्राप्ति के लिए क्या किया जाना चाहिए। पूजा परिचर्या को अलंकारिक रूप से इसी पथ−प्रदर्शन के नलिए विनिर्मित किया गया है ईश्वर की विभिन्न दिव्यशक्ति य ही देवताएँ हैं। उनकी आत्म सत्ता में समाविष्ट करना यही देव पूजा का संकेत है। रेल की लाइनों पर खड़े सिगनल ड्राइवर को इशारा करते हैं कि उसे गाड़ी किस तरह चलानी चाहिए। देव प्रतिमाओं की अलंकारिक स्थापना जीवन नीति निर्धारण के लिए निर्देश करने वाले सिगनलों के रूप में ही हुई है। गणेश को दूरदर्शी विवेकशीलता का—सरस्वती को ज्ञान सम्पदा का−गायत्री को सद्भावना का—हनुमान को संयम का—दुर्गा को संघ बद्धता का—राम को अनुशासन का—कृष्ण को कर्म कौशल का—शिव का वैराग्य का—लक्ष्मी को अर्थ सन्तुलन का—प्रतीक माना गया है। यही बात अन्याय देवी−देवताओं के सम्बन्ध में है। वस्तुतः ऐसे चित्र−विचित्र आकृति−प्रकृति के विलक्षण आयुध वाहनों वाले प्राणधारी कहीं भी—किसी लोक में भी हैं नहीं। ये विशुद्ध कल्पनाएँ हैं। इन अलंकारिक प्रतीक विग्रहों की रचना उसी प्रकार हुई है जिस प्रकार छोटे बालकों को कबूतर का चित्र दिखाकर ‘क’—खरगोश से ‘ख’—गाय से ‘ग‘−घड़े से ‘घ’ का बोध कराया जाता। इस प्रतीक प्रतिकपाद से बालकों को साक्षरता का प्रयोजन पूरा करने में सुविधा पड़ती है यही बात अध्यात्म मार्ग के आरम्भिक विद्यार्थियों को बाल−कक्षा की पढ़ाई तरह अनेकों देवी−देवताओं की पूजा अर्चा सिखाई जाती है। वस्तुतः एक ईश्वर के अतिरिक्त इस संसार में इतने देवी−देवताओं का कोई अस्तित्व है नहीं। श्रुतियाँ सदा से इस रहस्य पर से पर्दा उठाता रही हैं उन्होंने पग−पग पर यही कहा है ब्रह्म एक है—उसी को विद्वानों ने अनेक नाम रूप देकर रुचि−विचित्रता की तृप्ति के लिए प्रस्तुत किया है।

हम देव गुणों को अपने भीतर धारण करें। यही सच्ची देव पूजा है। गुण, कर्म, स्वभाव की विशिष्टता को बिना संकोच ब्रह्मा, विष्णु, महेश की संज्ञा दी जा सकती है। पशु स्तर की आकाँक्षाओं को बदल कर यदि उन्हें देव स्तर की उच्च आस्थाओं में बदल लिया जाय तो समझना चाहिए ईश्वर की प्राप्ति हो गई। आत्म−कल्याण, आत्म−साक्षात्कार आदि आकर्षक और अद्भुत शब्दों को सरल अर्थ ढूँढ़ना हो तो आत्म−परिष्कार ‘शब्द में’ वह सब कुछ आ जाता है जिसे प्राप्त करना ‘जीवन लाभ’ के रूप में तत्व−दर्शियों ने गूढ़ धर्म ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है। आत्मबोध, आत्म−सुधार, आत्म−निर्माण, आत्म−विस्तार के रूप में चतुर्विधि आत्म−साधना की जाती है और उसी के फलस्वरूप धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार अनुदान पाये जाते हैं। ब्रह्म−विद्या की—अध्यात्म दर्शन की कथन शैली कुछ भी क्यों न हो उसका सार तत्व इतना ही है कि मनुष्य अपने आपको चिन्तन एवं कर्म की दृष्टि से उत्कृष्ट कोटि का निर्मित करने की दिशा में प्रबल पुरुषार्थ करे। उसी को जीवन का प्रमुख प्रयोजन एवं सर्वोपरि लाभ समझें।

देव पूजा में कई तरह के उपचार प्रस्तुत किये जाते हैं। वे स्वल्प मूल्य के होते हैं। मात्र इतनी वस्तुओं से देवता का क्या काम चलेगा और उन्हें पाकर उसे क्यों प्रसन्न होने तथा वरदान देने की इच्छा उठेगी? यह विचारणीय है। कुछ बूंदें जल—तनिक सा नैवेद्य, थोड़े से अक्षत, पुष्प, चंदन, धूप−दीप आदि के नगण्य से उपहारों को पाकर देवता द्रवित हो जाय और मनमाने वरदान देने लगे यह बात तनिक भी गले नहीं उतरती और न बुद्धि संगत प्रतीत होती है। छुट−पुट कर्मकाण्डों से देव अनुग्रह पाने ही जो लम्बी−चौड़ी कल्पनाएँ की जाती हैं, उनमें प्रतीकात्मक संकेत ही खोजे जाने चाहिए और समझा जाना चाहिए कि यदि पूजा प्रयोजन के साथ जुड़े हुए नीति नियमों का अनुगमन किया गया तो उससे सच्चे अर्थों में आत्मिक प्रगति होगी और वे सब लाभ मिलेंगे जो भगवत् भक्तों को—सन्मार्ग गामियों को मिलते रहे है और मिलते रहेंगे।

देवता पर अक्षत इसलिए चढ़ाये जाते हैं कि हम अपनी कमाई का एक अंश देव प्रयोजन के लिए प्रदान करें। सारी उपलब्धियों को स्वयं ही न खाते पचाते रहें वरन् उसका एक अंश देव प्रयोजन के लिए भी निकालें। पाद्य, अर्ध, आचमन आदि के निमित्त प्रतिमाओं के सम्मुख जल की छोटी चमची भर अर्पित की जाती है। इसका अर्थ है देव प्रयोजनों के लिए अपने स्वेद बिन्दु अर्पित करने को आवश्यक अनुभव करना। अपना समय दान—श्रम दान—देकर ही संसार की सत्प्रवृत्तियों को अभिवर्धन किया जा सकता है; हमारी दिनचर्या में—जीवनचर्या में लोक−मंगल के इस प्रकार का अनुदान निरन्तर प्रस्तुत करते रहने का स्थान रहना चाहिए। यही है जल समर्पण की प्रक्रिया का सार तत्व।

दीपक जलाने का अर्थ है स्नेह सिक्त हृदय का निर्माण और जीवन सम्पदा की बीती को जलाते हुए असीमवर्ती क्षेत्र में आलोक उत्पन्न करना। चन्दन कुछेक महत्वपूर्ण सत्प्रवृत्तियों का प्रतीक है। सुगन्धित अस्तित्व, साँप, बिच्छू लिपटे रहने पर भी उनके विष से प्रभावित न होना—समीपवर्ती क्षेत्र में उगे हुए झाड़−झंखाड़ों को भी अपने स्तर का सुगंधमय बना देना—अपनी काया को घिसे जाने के लिए प्रस्तुत करके दूसरों के मस्तिष्क पर शीतलता की व्यवस्था करना—हवन आदि के लिए अपना चूरा और लकड़ियाँ जलने में जीवन की सार्थकता अनुभव करना—यही सब विशेषताएँ हैं कि जिनके कारण चन्दन के घिसाव को भगवान के मस्तक पर लगाये जाने का सौभाग्य मिला। पूजा में चन्दन का उपयोग इसीलिए होता है कि भक्त जन यह सीखें कि भगवान के मस्तक पर चढ़ने योग्य बनने के लिए किस प्रकार की रीति−नीति का अवलम्बन करना पड़ता है। यदि इस मर्म−शिक्षा को न समझा जाय और देवता को इन उपहारों से प्रभावित करके मनचाहे वरदान पाने की बात सोची जाय तो उस प्रकार का कभी कोई प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा केवल निराशा ही हाथ लगेगी। देवता को दीपक और चन्दन लगाकर भला क्या और क्यों खुशी हो सकती है? इन्हें इन वस्तुओं की आवश्यकता भी क्या है।

साकार भगवान का पूजन—लोक−मंगल के लिए किये गये आदर्शवादी क्रिया−कलापों द्वारा ही सम्भव हो सकता है। पीड़ित मानवता राहत पाने के लिए सहायता की पुकार करती मुरझाती हुई सत्प्रवृत्तियाँ सिंचन के लिए स्वेद बिन्दुओं की माँग करती हैं। पिछड़ेपन को सहारा देने के लिए सज्जनता का पोषण करने के लिए हर व्यक्ति अपनी बुद्धि, प्रतिभा, श्रम, समय एवं सम्पत्ति का एक अंश दे सकता है और विश्व मानव को सुविकसित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। यही है साकार ईश्वर का पूजन। बड़े उद्देश्य की पूर्ति बड़े अनुदान प्रस्तुत कर सकने के साहस से ही सम्भव होती है। जिन्हें जीवन साधना रूपी सच्ची भगवत भक्ति करने वाले महा−मानव करते रहे हैं और हर दृष्टि से अपने को धन्य बनाते रहे हैं। पाषाण प्रतिमा पर रोली अक्षत चढ़ाने अथवा जप, पाठ करने जैसे सस्ते उपचार इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करा सकते।

निराकार भगवान की पूजा अपनी विचारणाओं और भावनाओं को परिष्कृत बनाने से ही सम्भव हो सकती है। अन्तःकरण से ही प्रभु मिलन के आनन्द में अनुभूति होती है। यह चेतन ब्रह्म सद्भावों के रूप में ही हमारे भीतर रमण करता है और प्रसन्न होकर देव स्तर का व्यक्तित्व बन सके ऐसा वरदान देता है। हमारी सार्थक और सारगर्भित साधना इसी स्तर की होनी चाहिए। प्रतीक पूजा करने में कुछ हर्ज नहीं—पर उसका लाभ उन्हीं को मिलेगा जो उसमें छिपे तत्वों को भी हृदयंगम कर सकें।


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