क्या हम वृक्ष वनस्पतियों से भी पिछड़े रहेंगे?

May 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रकृति ने कुछ कायदे कानून ऐसे बनाये हैं जो सृष्टि सन्तुलन की दृष्टि से नितान्त आवश्यक हैं। इन नियमों को न केवल मनुष्यों के लिए वरन् अन्य प्राणियों के लिए भी बनाया गया है। यहाँ तक कि वनस्पतियों के लिए भी।

मनुष्यों में बुद्धि, धन, बल, प्रतिमा, भावना आदि की सम्पदाएँ ऐसी हैं जिन्हें उसके व्यक्तित्व का बीज कहा जा सकता है। इसी के आधार पर हम ऊँचे उठते और आगे बढ़ते हैं। बीज सड़ा−गला हो तो उससे वंश वृद्धि न हो सकेगी। गुण,कर्म, स्वभाव की विभूतियाँ यदि स्वस्थ और समर्थ न हो तो कोई व्यक्ति प्रगति के पथ पर दूर तक अग्रसर न हो सकेगा। ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि हमारी विभिन्न शारीरिक और मानसिक हलचलें इन बीज तत्वों को विकसित, परिष्कृत और पुष्ट करने के लिए ही होती है। भौतिक और आत्मिक सम्पदाओं से अधिकाधिक मात्रा में सम्पन्न होने की अभिलाषा स्वाभाविक मानी जाती है—वह बनी रहती है—और उनके लिए जाने−अनजाने प्रयास चलते ही रहते हैं।

वनस्पति−जगत में भी यही प्रक्रिया अपने ढंग से उसी तरह चलती रहती है जिस तरह मनुष्यों में चलती है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य आत्म विस्तार है। हम बढ़े विकसित हों और सुदूर क्षेत्र तक फैले इसके लिए भाँति−भाँति के प्रयत्न पुरुषार्थ किये जाते हैं यहाँ तक कि युद्ध भी। आध्यात्मिक क्षेत्र में यही विस्तारवाद आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ाकर सबसे अपने को अपने में सबको देखने वाला तत्व दर्शन हृदयंगम किया जाता है। बीज तत्व का विकास और सत्ता का विस्तार करने के लिए हम मनुष्यों के विभिन्न क्रिया−कलापों को सँजोया जाना देखते है। यदि यह दो प्रवृत्तियोँ न होती तो कदाचित पेट और प्रजनन जैसी निकृष्ट स्तर के जीवों में पाई जाने वाली तुच्छ हलचलों के अतिरिक्त हम और कुछ महत्वपूर्ण सोचने या करने में समर्थ ही न हो पाते। ठीक यही बात वनस्पति−जगत पर भी लागू होती है।

पौधे बढ़ते और विकसित होते है। अन्ततः उनकी प्रौढ़ता फलवती होती है और उन पर फल लगते लदते है। यह फल मनुष्यों सहित अन्य प्राणियों के लिए आहार का काम देते है पर जहाँ तक वृक्ष के लिए इन फलों का अपना उपयोग है वह उनकी बीज सत्ता को अनुक्षण रखने परिपुष्ट बनाने और सुविस्तृत करने के उद्देश्य में ही सन्निहित देखी जा सकती है। वृक्ष मात्र परोपकार के लिए ही नहीं फलते उनके अपने जीवन की सार्थकता भी फलवान होने में ही है।

फूलों में गुदा भरा होता है और गूदे के भीतर बीज एक जगह इकट्ठे नहीं रखे रहते वरन् दूर−दूर फासले पर रहते हैं। पूरे वृक्ष पर एक ही फल नहीं चलता वरन् उनकी बहुत बड़ी संख्या होती है। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था क्यों की इस पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि प्रगति के आधार जिस प्रकार मनुष्यों के लिए बनाये गये हैं वैसे ही वृक्षों के लिए भी विनिर्मित किये गये हैं।

गूदे का उद्देश्य है बीज को पोषण देना—परिपुष्ट करना—प्रौढ़ावस्था तक पहुँचाना। माता के गर्भ में जिस प्रकार भ्रूण पकता पलता है उसी प्रकार फल के उदर में गूदे के मध्य बैठा हुआ बीज धीरे−धीरे सबल और समर्थ बनता रहता। मानव जीवन के अधिकतर क्रिया−कलाप भौतिक उपार्जन के लिए होते हैं। इससे सुविधा सामग्री तो मिलती ही है साथ ही वे विशेषताएँ—विभूतियाँ भी परिपक्व होती है जिनके आधार पर प्रत्यक्ष क्षेत्र में सफलताएँ पाई जा सकती है—जिन्हें विकसित व्यक्तित्व व परिपुष्ट सत्ता कहते है।

एक वृक्ष अनेक फल और प्रत्येक फल में अनेक वी डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड विस्तार करने का अवसर मिले। उसे सीमित दायरे में संकीर्णता की परिधि में ही आबद्ध रहकर अविकसित कहलाने का कलंक न सहना पड़े। आत्म−विस्तार बिना न तो आत्म−सन्तोष मिल सकता है और आत्म−गौरव। जब मनुष्य अपूर्णता से पूर्णता की ओर—क्षुद्रता से महानता की ओर बढ़ने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है तो वृक्ष भी उसी प्रकृति प्रेरणा का अनुसरण क्यों न करें।

प्रत्येक बीज में एक पूर्ण वृक्ष सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता है। परिपुष्ट होने के पश्चात् उसका अगला उद्देश्य यह रहता हे कि उसी जाती के नये वृक्ष उत्पन्न करे। साथ ही यह भी आवश्यक हो जाता है कि क्षेत्र की दृष्टि से समीपवर्ती सीमा बन्धन को लांघकर सदर क्षेत्रों तक अपनी सत्ता को सुविस्तृत बनाया जाय। फल के भीतर सारे बीज एक जगह ही एकट्ठे चिपके नहीं रहते। गूदे के भीतर वे थोड़ा−थोड़ा फासला देकर अलग−अलग जमे होते है। इसका उद्देश्य यह है कि उन्हें पृथक−पृथक् रूप से सुदूर क्षेत्र में जाने की ओर सुविस्तृत परिधि में विस्तार का अवसर मिले। यदि गूदे में सब बीज इकट्ठे रखे होते तो फल के पक कर गिरने पर वे सभी एक जगह ही उगते। फलतः वे सभी एक दूसरे की खुराक छीनते—फैलने की जगह प्राप्त न कर पाते और ऐसे ही सूख मुरझाकर समाप्त हो जाते। विस्तार के लिए यह आवश्यक है कि पुरखों के घर आँगन को छोड़कर अन्यत्र भी जाने और फैलने का प्रयत्न किया जाय।

वृक्ष की सत्ता फलों के माध्यम से यही सब करती रहती है। फलने और पकने के साथ−साथ उनकी वितरण चेष्टा भी उत्साह पूर्वक चलती है। गूदे में बीजों का स्थान अलग−अलग था भी इसीलिए कि उनके वितरण की व्यवस्था बन सके। आहार में प्रायः गूदा ही काम आता है। बीज कड़े होते है इसलिए वे फेंक दिये जाते हैं या संग्रह कर लिये जाते हैं। गूदा समाप्त हो जाने पर भी बीजों का अस्तित्व बना रहता है। यदि उन्हें पीस कर नहीं खाया साबुत बच जाते है। पेट में भी कम ही पचते हैं। मल मार्ग से निकल कर वे पृथ्वी पर बिखर जाते है और डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड।

मनुष्य जीवन की प्रगति के भी दो आधार हैं एक भौतिक उपलब्धियों के लिए प्रयत्न करते हुए अपने में गुण, कर्म, स्वभाव परक बीज सत्ता को परिपुष्ट करना और दूसरा उस पुष्ट सत्ता को सुविस्तृत क्षेत्र में वितरण करके उन विभूतियों को दूर−दूर तक बखेरना−विकसित करना। प्रथम चरण को शक्ति संचय कह सकते हैं और दूसरे चरण को सेवा साधना। बलवृद्धि का—सामर्थ्य संपादन का उद्देश्य यही हो सकता कि उनके वितरण विस्तार का लाभ सुदूर क्षेत्रों को मिले। जो लोग शरीर या परिवार के भीतर ही अपनी प्रतिभा का लाभ सीमित किये बैठे रहते हैं उन्हें गूदे के भीतर ही पहुँचाने वाले बीज की उपमा दी जाती है।

गूदे में पक कर विकसित हुए बीज सुदूर क्षेत्रों तक फैले इसके लिए प्रकृति ने अनेकों प्रकार की व्यवस्थाएँ की है। प्राणियों द्वारा उनका खाया जाना और मल विसर्जन के साथ उनका दूर−दूर जा पहुँचाना प्रत्यक्ष ही है। कई बीज फेंके या संग्रह करने पर किसी न किसी प्रकार वंश वृद्धि करने का अवसर पाने में सफल हो जाते है। बीजों का व्यवसाय भी होता है। अनाज की तरह अन्य बीज भी खरीदे—बेचे जाते है और वे यहाँ से वहाँ की यात्रा करते हैं। यह तो प्रचलित व्यवस्था हुई। प्रकृति भी इस दिशा में भारी योगदान करती है और तरह−तरह के ऐसे साधन जुटाती है जिससे वह उत्पन्न हुई बीज सम्पदा किसी एक स्थान तक सीमित होकर न रह जाय वरन् उसे सुदूर क्षेत्रों में वितरित होने का अवसर मिले।

हवा असंख्यों बीजों को अपने साथ उड़ा कर एक स्थान से दूसरे स्थानों तक पहुँचाती है। इस स्तर के हलके बीजों की वनस्पति−जगत में कभी नहीं है। ‘कुनैन’ जिस सिनकोना पौधे से बनती है उसके बीज इतने हलके होते है कि एक ओंस में 70 हजार भी तोले जा सके। आर्किडो के बीज इससे भी हलके होते है। इनकी बनावट भी ऐसी होती है जैसे पक्षी के परों की। हलकापन और बनावट की विशेषता दोनों के कारण हवा उन्हें आसानी से उड़ा ले जाती है और कहीं से कहीं ले जाकर पटकती है। कुछ बड़े और भारी बीजों सूर्यमुखी, डोडिलिओन, सौक्स, डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड पैराशूट की तरह बने होते हैं, वे हवा तनिक−सा सहारा पाकर लम्बी उड़ान उड़ते लगते है। नीचे उतरने और ऊपर चढ़ने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। आक के बीज में जो रुई चिपक ी होती है उससे उनका उड़ना कितना सुहावना लगता है। ब्लड फ्लावर, करची, व्यूमोनशिया, चाटियम जैसे पौधों के बीज भी रोएंदार होते हैं, जिनके कारण उनकी वायुयात्रा बड़ी सरल बन जाती है। अरलू, पराल, जरुल, सहजन, चीड़ के बीजों की बनावट भी पक्षियों के परों जैसी होती है। वे इच्छा से नहीं उड़ पाते पर हवा उनकी उड़ने की सारी व्यवस्था स्वयं जुटा देती है। कुछ तो पूरे फल ही उड़नशील होते है वे अपने बीज परिवार को लेकर क्षेत्र विस्तार का प्रयोजन पूरा करने के लिए हवा की सहायता से यात्रा करने पर उतर पड़ते है। ऐसे उड़ाकू फलों में होलोक,मधुलता,जमीकन्द,फ्रेक्सीनस,होपियामेपल,डिपटीरोकारपस साल आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें से एलेथस की बनावट हवाई जहाज देखकर प्रकृति ने इन्हें बनाया है। आँधियाँ धूल तिनके ही नहीं हलके बीजों को भी अपने साथ उड़ा ले जाती हैं और कहीं से कहीं उन्हें जा पटकती हैं, जड़ी−बूटियाँ प्रायः इसी प्रकार यहाँ से वहाँ जा पहुँचती हैं।

कुछ फल भी स्वार्थी मनुष्यों की तरह बड़े कृपण होते है। वे पके हुए बीजों को भी अपने सूखे खोलते में समेटे बैठे रहते है। स्वयं भले ही उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध न हो पर दूसरों को लाभ न मिलने पाये, ऐसी मनोवृत्ति वाले मनुष्य ही नहीं फल भी दुनिया में मौजूद है। लाल पोस्त, सत्यनाशी, कुत्ताफूल, हंसलता तथा धतूरा इसी प्रकार के फल हैं। हवा जब इन्हें झकझोरती है तो खुद भी उलटने−पुलटने लगते हैं और बीजों को छोड़ने के लिए भी विवश होते हैं। स्वेच्छा से न सही बलात्कार से ही चलना उन्हें भी प्रकृति के कानूनों पर ही पड़ता है। संग्रही को ई बनना भी चाहे तो प्रकृति उसे वैसा करने की आज्ञा नहीं दे सकती। जो दिया गया है वह देने के लिए डडडड डडडड डडडड डडडडड डडडड और बल प्रयोग का सामना करना पड़ता है।

पानी में उगने वाली वनस्पतियों के बीजों की लहरें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती है। यह बीज हलके और हवा भरे स्पंज की तरह होते हैं, जिससे वे लहरों पर आसानी से तैरते रह सके। नदियों और समुद्रों के तटों पर उगे हुए पेड़−पौधे भी अपने बीज—जल को समर्पित करके उन्हें अन्यत्र चले आने की खुशी−खुशी छूट देते है। मनुष्य ही ऐसा स्वजनों को अन्यत्र उपयोगी स्थानों पर जाने से रोककर घर की चहारदीवारों में ही बन्द रखने के लिए मोहग्रस्त बना रहता है। कमलगट्ठें अक्सर पानी में तैरते हुए ही कहीं से कही जा उगते हैं। नारियल के फलों का पानी में गिरना और सहस्त्रों मील जन शून्य द्वीपों में जा उगना इसी प्रकार सम्भव हुआ है।

कई फल ऐसे है जिनके छिलके बहुत कड़े होते हे। पक जाने और सूख जाने पर भी वे बीजों को बाहर नहीं निकलने देते। इस कठोर नियन्त्रण की उग्र प्रतिक्रिया होती है। बीज विद्रोह कर बैठते हैं ओर उस भीतरी तनाव से छिलका एक विस्फोट की तरह फटता है, और बीज उछल कर बाहर निकल जाते है। गुलमेंहदी, वु डसेरिल, नाइटजेसमिन, अरंड, कालमेध, बज्रदंती पलाक्स, कंचनलता आदि फलों में आकार फटने और बीज उछलने की प्रक्रिया देखने के मिलती है। प्रहलाद, विभीषण, कैकेयी,बालि आदि को अपने अभिभावकों एवं गुरुजनों के विरुद्ध इसी प्रकार विद्रोह करना पड़ा था। अनुचित प्रतिबन्ध के अहंकारी दुराचार अक्सर ऐसे ही विस्फोट उत्पन्न करते रहते हे।

कुछ बीज ऐसे होते है जो हवा, पानी, मनुष्य आदि की सहायता न पाने पर स्वयं ही अपनी प्रवृत्ति प्रेरणा से आत्म−विस्तार का रास्ता अपने बुलबुले बनाते हैं और जिसका भी अञ्चल हाथ लगे उसी को पकड़ कर आगे चल पड़ते है। लटजीरा, गोखरु, बनऔखरा,चोरकाँटा वुइया, ठीकरी, चित्रक आदि फल अथवा बीज अपने कांटों के साथ पशुओं−पक्षियों के शरीरों एवं मनुष्यों वे कपड़ों को पकड़ लेते हे और उन पर सवारी गाँठ का कही से कही जा पहुँचते है। डडडड डडडड डडडड प्रकृति के प्राणी बीजों को इकट्ठा करते हैं। बिलों में से छितरा कर वे फिर जहाँ−तहाँ जा पहुंचते हैं। पक्षियों के पैरों में चिपकी मिट्टी के साथ अथवा उनकी बीट के माध्यम से भी अनेक वनस्पतियाँ तथा वृक्ष लम्बी यात्राएँ करते हुए पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक जा पहुँचते हैं।

वनस्पतियों और वृक्षों की यह आत्म–विस्तार की अपनी उपलब्धियों की सुदूर क्षेत्र में वितरण करने की प्रवृत्ति ठीक उसी प्रकार पाई जाती है जैसी कि प्रकृति प्रेरणा मनुष्य को उपलब्ध है। जो जीवन विद्या का मर्म जानते हैं वे अपनी आन्तरिक विशेषताओं को बीज सत्ता की तरह परिपक्व करने के लिए अपनी हलचलों का गूदा सजाय, साथ ही यह भी ध्यान रख कि यह समस्त उपार्जन वितरण के लिए है ताकि संसार की शोभा सुषमा का विस्तार होता रहे उसमें कमी न आने पावे।

इस प्रकृति प्रेरणा को—ईश्वरीय विधान को हम धर्म एवं अध्यात्म के नाम से पुकारा जाता है। व्यक्ति वाद की संकीर्ण स्वार्थपरता को निरस्त करके लोकहित की−जन−कल्याण की सत्प्रवृत्तियों में अपनी विभूतियों को समर्पित करना यही है मानवी संस्कृति। वृक्ष वनस्पतियाँ तक इस अपनाने के लिए तत्पर है तो फिर विवेकवान और सहृदय समझे जाने वाले मनुष्य को ही उदार अनुदान देते रहने में क्यों कृपणता बरतनी चाहिए?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118