वैभव खोकर भी सत्यनिष्ठ बनें रहें

May 1974

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सत्य और न्याय के पीछे चलने में हमें सब कुछ छोड़ना पड़ता हो तो उसके लिए अपने को तैयार करना चाहिए। सत्य ही परमेश्वर है। उससे बढ़कर इस संसार का सारतत्त्व और कुछ नहीं है। सत्य अपने हाथ रहा और उसके बदले सब कुछ चला गया तो हर्ज नहीं, किन्तु यदि सत्य को गँवा कर कुबेर की सम्पदा और इन्द्र का सिंहासन भी पाया तो समझना चाहिए कि यह बहुत महंगा और बहुत घाटे को सौदा खरीदा गया है।

जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं अथवा चलने के लिए विवश किये जा रहे हैं यदि वह असत्य और अन्याय से भरा है—उससे आदर्शों का हनन होता है और भ्रष्ट परम्पराएँ जन्मती हैं समझना चाहिए या कुमार्ग गमन बड़ी से बड़ी भौतिक उपलब्धि के बदले भी महंगा है उसे खरीदने का विचार छोड़ ही देना चाहिए।

सत्य को त्याग कर वैभव का वरण अथवा वैभव को छोड़कर सत्य का वरण इन दोनों में से किसे चुनना किसे नहीं चुनना यह धर्म संकट उत्पन्न होने पर सजीव और सजग आत्मा का निर्णय यही हो सकता है कि वैभव को छोड़ देना चाहिए और सत्य का वरण करना चाहिए। सत्य शाश्वत है। उसके परिणाम दूरगामी हैं। उसकी उपलब्धि से जो हित साधन होने वाला है वह चिरस्थायी है, जबकि वैभव बिजली की चमक की तरह क्षणिक चकाचौंध उत्पन्न करने के बाद गहन अन्धकार में विलीन हो जाता है।

इस विश्व की संरचना जिन परमाणुओं से हुई है वे द्रुतगति से भाग रह है। उनसे बनी वस्तुएँ भी अपने क्रम से बनती, बढ़ती, बदलती और मरती दिखाई पड़ती हैं। वस्तु की जो स्थिति अभी है वैसी अगले क्षण रहने वाली नहीं है। अस्तु जिस रूप में उसे इस समय आकर्षक पाया जाता है वैसा कुछ ही समय बाद रहने वाला नहीं है। रूप,यौवन,धन,बुद्धि,पद,स्वाद,इन्द्रियानुभूति से जो आकर्षण अब है वह निश्चित रूप से अगले दिनों बदल जायगा। जो बालक अभी तोतली बोली बोलते और खिलौने जैसे हँसते−हँसाते दीखते हैं वे कुछ समय बाद वयस्क होकर अपना घर, परिवार बसायेंगे और अभिभावकों को भारभूत मानकर उनसे सीधे मुँह बात भी न करेंगे। पत्नी को जिस रूप, यौवन के आधार पर परमप्रिय समझा जा रहा है। आयुष्य वृद्धि के साथ−साथ उसमें भी घटी ही आने वाली है। उसका आज का अत्यधिक आकर्षण कल बच्चों में बँटने वाला है। प्रणय के आरम्भ काल का आकर्षण देर तक कहाँ टिकता है? इस बदलती स्थिति में वस्तुओं अथवा व्यक्तियों के साथ मोह जोड़ना और उन तुच्छ सी उपलब्धियों के लिए सत्य जैसे बहूमूल्य तथ्य की उपेक्षा करना किसी भी दृष्टि से दूरदर्शिता पूर्ण नहीं हो सकता।

संसार की हर चीज अस्थिर है वह अपने रूप,रंग और स्तर निरन्तर बदलती है, इतना ही नहीं अपना मन भी तो एक जैसी स्थिति में नहीं रहता। उसे अभी एक वस्तु एक दृष्टिकोण के कारण प्रिय लगती है। आवश्यक नहीं कि वह दृष्टिकोण सदा ही बना रहे। आज का कामातुर व्यक्ति कल संन्यास धारण करने के लिए व्यग्र हो सकता है, तब जो कुछ प्रथम आवेश में प्राणप्रिय लगता था वह द्वितीय आवेश चढ़ आने के कारण निस्सार एवं घिनौना प्रतीत हो सकता है। यही बात उन व्यक्तियों पर भी लागू होती है जिन्हें हम अपना समझते है या प्यार करते हैं। वे हमें इस समय प्यार देते हैं, पर कल उनकी रुझान दूसरी ओर मुड़ सकती है और उपेक्षा अवज्ञा से उनका व्यवहार बदला हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। संसार की यही घोर अस्थिर स्थिति है। पानी की लहरों की तरह यहाँ सब कुछ बदल रहा है। ऐसी दशा में जिस आकर्षक पर मुग्ध होकर आज हम सत्य जैसे शाश्वत तत्व की उपेक्षा करने को उद्यत हुए हैं और प्रिय पदार्थ स्वाद अथवा व्यक्ति के लिए बेतरह मर खप रहे हैं, नशा उतरने पर वह सारा आवेश मूर्खता पूर्ण ही प्रतीत होगा।

अनीति का समर्थन करते हुए सरलता पूर्वक उपार्जन किया जा सकता हो तो भी छोड़ देने में ही कल्याण है। सरलता,सुविधा और प्रचुरता की ललक में हम उन तरीकों को अपना लेते है जिनसे जल्दी सफलता मिल सके। ऐसे तरीके अनैतिक ही हो सकते हैं। सत्य के मार्ग पर चलने से कठोर परिश्रम के साथ स्वल्प उपार्जन ही सम्भव है। नीति पूर्वक तो उचित ही कमाया जा सकेगा और उसके लिए उचित पुरुषार्थ करना पड़ेगा। इसके लिए जिनमें साहस और धैर्य नहीं वे अनीति पर उतारू होते हैं या फिर अनीति वालों के सहायक होकर सरलता पूर्वक सुविधायें पाने के लिए सहमत होते हैं। यह स्थिति नितान्त दयनीय है। शरीरगत सुविधाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य की आत्मा का हनन करना पड़े तो यह इतनी बड़ी क्षति होगी जिसकी पूर्ति किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगी।

मानवी गरिमा की रक्षा कर सकना जीवन सफलता की दृष्टि से उच्चकोटि की उपलब्धि है। यदि आत्मा का —आदर्शों का— आत्म−सन्तोष का—कोई महत्व या स्थान हो सकता है तो उन्हें सँजोये रहने के लिए भी हमारी चेष्टाएँ होनी चाहिए। इस दिशा में बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि नीति पूर्ण उपार्जन से सन्तुष्ट रहने—उपभोग के स्वल्प साधन से काम चलाने और कठोर कष्ट साध्य जीवन क्रम का स्वागत कर सकने वाला अभ्यास डाला जाय। तप इसी का नाम है। तितीक्षा इसी को कहते हैं। धर्म और अध्यात्म की संरचना इसी स्तर की मनोभूमि को विनिर्मित एवं परिपक्व करने के लिए किया गया है। आस्तिकता की धुरी इसी केन्द्र पर घूमती है कि व्यक्ति आदर्शवादी और सत्यनिष्ठ जीवन पद्धति अपनाने के लिए अभीष्ट शौर्य साहस का सम्पादन कर सकें। किसी भी प्रकार—सुगमता पूर्वक प्रचुर सुख साधन संग्रह करने की—किसी भी मार्ग से अपनी अहंता का उद्धत प्रदर्शन कर सकने की ललक मनुष्य को कुपथगामी बनाती है और दुष्कर्म करने के लिए अग्रसर करती है। इसी आवेश में पतनोन्मुख एवं कलंक कालिमा से भरी रीति−नीति अपनानी पड़ती है। इतने पर भी जो पाया जाता है वह क्षणिक रहता है। जिस सरसता और सुविधा की आशा की गई थी वह भी तो दुराशा मात्र ही रहती है। बिजली की कौंध की तरह सुख शान्ति के सपने कुछ विलीन हो जाते हैं। मृग तृष्णा में व्यग्र हिरन की तरह एक के बाद दूसरी दिशा में प्यास बुझाने के लिए घोर प्रयत्न करते रहने पर भी अन्ततः गहरी निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

मनुष्यता की आत्मा सत्यनिष्ठा के साथ जुड़ी हुई है। यह मन्द अथवा तीव्र स्वर में एक ही घोषणा करेगी—भले ही समस्त सुविधाएँ छिन जाँय और समस्त प्रियजनों का विरोध सहना पड़े तो भी यथार्थता को—न्याय नीति को −विवेक औचित्य को तिलाँजलि नहीं दी जानी चाहिए। गरीबी की अभावग्रस्त रीति−नीति अपनाकर इस संसार में असंख्यों मनुष्य जीवित है फिर हर भी वैसा क्यों नहीं कर सकते?

मित्रताएँ टूटती हों—प्रियजन विमुख होते हों—गरीबी को सहचरी बनाना पड़ता हो—असुविधाओं का वरण करना पड़ता हो तो इन सबका सम्मिलित कष्ट इतना बड़ा नहीं हो सकता जितना कि सत्य के परित्याग का। सचाई की राह पर चलने वालों को अक्सर दुनिया वाले मूर्ख कहते हैं और व्यंग करते हैं कि सन्त बनकर क्या पा लिया? इतना ही नहीं—कई बार तो दुष्ट लोग ऐसे व्यक्ति को अपने भंडाफोड़ का भय दिखाकर दूर भगाने या हानि पहुँचाने से भी नहीं चूकते और उसे अकारण कष्ट जाल में फँसना पड़ता है। इन अग्नि परीक्षाओं से गुजरते हुए भी यदि प्रहलाद की तरह कोई सत्यनिष्ठ बन सके तो समझना चाहिए कि मनुष्य का महान गौरव और उत्तरदायित्व सँजोये रखने में उसने वह सफलता प्राप्त करली, जिसका उपहार सत्यनिष्ठ महामानव बनने के रूप में प्राप्त होता है।


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