पतित देवता या समुन्नत कृमि−कीटक

May 1974

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मनुष्य का विश्लेषण दो प्रकार से किया जाता है, धर्म उसे गिरा हुआ कहता है और विज्ञान उसे ‘उठा हुआ पशु’ बताता है। देखना यह है कि दोनों प्रतिपादनों में यथार्थता किसके साथ है।

आदम और हव्वा स्वर्ग में रहते थे उन्होंने शैतान के बहकावे में आकर अभक्ष्य खाया और जमीन पर आ गिरे। उनके वंशज मनुष्य कहलाये। देवता और अवतारों का धरती पर उतर कर मनुष्य शरीर धारण करना और सन्तानोत्पादन में संलग्न होना। प्रायः इसी से मिलती जुलती कथा गाथाएँ समस्त धर्मों में प्रचलित हैं; जिनमें आदि मानव के अस्तित्व का आरम्भ किस प्रकार हुआ, इस जिज्ञासा का समाधान किया गया है। यह मान्यताएँ बताती हैं कि मनुष्य गिरा हुआ देवता है। स्वर्ग लोक के देवता अपने इस गिरे हुए साथी की सहायता करने के लिए समय−समय पर अपने सदस्य सहायक का परिचय देते रहते हैं।

भौतिक विज्ञान की प्रचलित मान्यताओं के अनुसार आदि जीव की उत्पत्ति पृथ्वी के रासायनिक पदार्थों के पानी तथा सूर्य की गर्मी के साथ समन्वय होने के कारण सम्भव हुई। तब वह पानी में तैरने वाला एक जल कीटक मात्र था। उसमें जड़ पदार्थों से अपने को स्वतन्त्र करने की और आगे बढ़ने की तीन विशेषताएँ थीं (1) भोजन करने और बढ़ने की शक्ति (2) घूमने−फिरने की शक्ति (3) अपने समान दूसरे प्राणी को जन्म दे सकने योग्य प्रजनन शक्ति। इनसे भी बढ़कर थी उसके ‘अइम्’ के साथ जुड़ी हुई इच्छा शक्ति।

चेतन जीव प्रेरणा को प्राणि−जगत के विकास का मूलभूत आधार माना गया है। वस्तुतः यही जड़—चेतन की विभेद रेखा है। अन्यथा जड़ में भी हलचल होती है। रासायनिक अणु अपने ढंग से विकास, वृद्धि और मरण परिवर्तन का क्रम चलाते हैं। अन्तर इतना ही होता है कि उनमें इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति करने की स्वतन्त्र चेतना नहीं होती। प्रकृति प्रेरणा के वे खिलौने मात्र होते हैं। चेतन जीव में विभिन्न हलचलें तो होती ही हैं। उसमें प्रकृति प्रेरणाओं के अनुरूप अथवा प्रतिकूल चलने का स्वतन्त्र संकल्प−बल भी होता है। चेतन इसी का नाम है। जीव सत्ता का उद्गम इस चित्तशक्ति को कहा जा सकता है।

इस संसार में जीव कैसे उत्पन्न हुआ और उसका विकास किस रूप में हुआ? इस संदर्भ में कितनी ही मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक कथन यह है कि पृथ्वी में जब उष्ण गैस मात्र थी तब उसने सूर्य की परिक्रमा करते करते हुए जीवन तत्व का उद्भव किया था। ध्रुवों की अन्तिम सीमा को छोड़कर उसकी ऊपरी परत के नीचे यह जीवन जमा होता गया और जब जल तथा ताप का सन्तुलन हुआ तो वह जीवन नन्हें−नन्हें कृमि कीटकों के रूप में विकसित होने लगा। उसी का क्रमिक विकास वर्तमान प्राणियों के स्तर तक होता चला आया हैं। अभी भी विषुवत रेखा के समीपवर्ती उष्ण प्रदेशों में जीवों की बहुलता हैं। इसे सूर्य और धरती की समागम स्थली कहा जाता है।

प्रो. जे. एस. हाल्डेन ने अल्ट्रा वायलेट किरणों के विकिरण द्वारा उच्च अणु भार वाले प्राँगरिक यौगिकों का संश्लेषण होना जीवन का प्रारम्भ कारण माना हैं। सर ओलिवर लॉज का कथन है कि ईथर तत्व के साथ जीवन का अनन्त स्पन्दन अनादि काल से हैं।

स्वतन्त्र सता के रूप में उसकी अनुभूति की। जूलियन हक्सले जड़ के विकास से चेतन की उत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास उपहासास्पद है। चेतना की सत्ता इस सृष्टि में अनादि काल से विद्यमान हैं। जड़ को वर्तमान रूप तक घसीट लाने का श्रेय उस चेतना को ही दिया जाना चाहिए।

नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. हेनरी वर्गसन ने अपने ग्रन्थ ‘क्रिएटिव इवोल्यूशन’ में लिखा है। जीवन एक प्रचण्ड शक्ति है जिसने आरम्भिक और उपयोगी स्तर तक पहुँचाने में अथक प्रयत्न किया है। जार्ज बर्नार्डशा ने अपनी पुस्तक ‘मैन एण्ड सुपर मैन’ में जीवन तत्व को लादफा फोर्स के रूप में समस्त किया है। वे कहते हैं जीवन सत्ता को प्रकृति की समस्त

शक्तियों में सर्वोपरि स्तर की स्वतन्त्र कर्तव्य सम्पन्न सामर्थ्य कहा जा सकता है। नैपोलियन की बात लगती तो उपहासास्पद है पर तथ्य उसमें भी है वह कहता था जीव का जन्म कीचड़ से हुआ है। कमल जैसा सुन्दर पुष्प भी तो कीचड़ में ही जन्मता है। जल, मिट्ठी और ऊष्मा के संयोग से जीव की उत्पत्ति मानने वाले प्रकारान्तर से नैपोलियन की बात को ही पुष्ट करते हैं। क्या सचमुच ही हमारी आदि जन्मदात्री कीचड़ है? क्या उवर नहीं पाये हैं? यह एक विचित्र पहेली है, दार्शनिकों के लिए भी और भौतिक विज्ञानियों के लिउ भी। कीचड़ में से कीड़ा—कीड़े से मछली, मेढ़क, सरीसृप, पक्षी और स्तनपायी जीवों का उद्भव—कैसा है यह विचित्र संयोग? जिसे न स्वीकार करते बनता है और न अस्वीकार करते। प्रथम स्तनधारी ‘मैमल’ही क्या हमारा वंश पूर्वज है? स्पीसीज वंश के स्तनपायी बनमानुष के रूप में विकसित हुए, उनने पिछली टांगों के सहारे खड़ा होना और सीधे चलना सीखा। दो हाथों को पैरों के प्रयोजन से मुक्त करके उन्हें विविध कर्म कर सकने योग्य बनाया। यह इतनी बड़ी जीवन क्रान्ति उन दिनों न जानें कितने चक्रों का पार करते हुए सम्भव हुई होगी? इस खड़े होने की प्रक्रिया ने बनमानुष और गृहशास्त्री मानते हैं।

डार्विन ने अपनी पुस्तक ‘ओरिजिन आफ स्पीसीज’ में उन पुरानी मान्यताओं को झुठलाया है जिनमें यह कहा जाता है कि प्रत्येक प्राणी अपने वर्तमान स्वरूप में ही अवतरित हुआ है। उन्होंने जीव के क्रमिक विकास को अपने प्रख्यात ‘विकासवाद’ दर्शन में अनेकों कारण और प्रमाण प्रस्तुत करते हुए सिद्ध किया है। मनुष्यों का पूर्वज वे होमोसौपियन जाति के नर−वानर को मानते है। एप,गुरिल्ला, चिंपेंजी, आराँगओटान, गिव्वन आदि सब उसी आदि नर−वानर के वंशज है। उनके गोत्र ही अलग अलग हैं।

मनुष्य का बाप बन्दर था, यह बात गले न उतरने पर एकबार आक्सफोर्ड के लार्ड विशप सैम्युअल विल्वर फोर्स के जीव विज्ञानी टाइम हक्सले ने व्यंग पूर्वक पूछा बनमानुष आप माता के पक्ष में है या पिता के पक्ष में? इस पर हक्सले ने उत्तर दिया—मुझे इस बात की लज्जा नहीं कि अपने बाबा या दादी बनमानुष थे। मुझे लज्जा उन पर आती है जो अहमन्यता के कारण सचाई को पददलित करने के लिए तुले हुए हैं। उन दिनों सचमुच ही यह एक विचित्र प्रतिपादन समझा गया था कि प्राणियों ने क्रमिक विकास किया है और मनुष्य बन्दर की औलाद है। धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्रों में इस प्रतिपादन का प्रबल विरोध हुआ था। सन् 1870 में प्रशिया (जर्मनी की सरकार ने आदेश निकाल कर प्रतिबन्ध लगा दिया था कि ‘विकासवाद’ की बात किसी शिक्षा में—संस्था में न पढ़ाई जाय। टिनेसी (अमेरिका) में तो एक अध्यापक पर यह मुकदमा भी चला था कि क्योंकि उसने छात्रों को विकास वाद के सिद्धान्त पढ़ाये।

मनुष्य और बानर की शरीर रचना में अद्भुत समानता है। इतना ही नहीं मानसिक स्तर पर भी वे दोनों बहुत कुछ मिलते हैं। शान्ति, चिन्ता, हँसी, रुदन, क्रोध, उत्तेजना, विरक्ति जैसी कितनी ही सम्वेदनाएँ ऐसी हैं जो मनुष्य के अतिरिक्त केवल बानरों में ही पाई जाती है उनमें पारस्परिक सहयोग, स्नेह, वात्सल्य जैसी प्रवृत्तियां भी अन्य जीवों की तुलना में कहीं अधिक विकसित और स्थिर हैं।

जीव विज्ञानी मनुष्य को पंक−प्रजनन कृमि−कीटक का विकास एवं बन्दर की औलाद मानते हैं। क्या उनका प्रतिपादन मिथ्या है? दुष्प्रवृत्तियों में उसका रुझान और उत्साह देखते हुए लगता है सम्भवतः यही ठीक है कि मूलतः मानव प्राणी नर−पशु मात्र है। अन्यथा विवेकवान और दूरदर्शी होते हुए भी ऐसी गतिविधियाँ क्यों अपनाता जो उसके स्वयं के लिए और समस्त समाज के लिए अहितकर ही सिद्ध होती हैं।

दर्शन शास्त्री मनुष्य को गिरा हुआ देवता मानते हैं। यह निरर्थक है? नहीं, यदि ऐसा न होता तो उसके अन्तःकरण में ऊंच उठने और श्रेष्ठ सिद्ध होने के लिए सत्कर्म करने की ललक क्यों पाई जाती? आदर्शवादिता की, उत्कृष्टता की उमंगों का उठना और भौतिक लोभ, लिप्सा को छोड़कर परमार्थ प्रयोजनों के लिए त्याग, बलिदान का साहस जुटाना, अकारण नहीं हो सकता। परोक्ष के लिए प्रत्यक्ष की हानि सहने की उमंगें उठना मानवी अन्तरात्मा की अपनी विशेषता है। यदि वह आदि काल में देव न रहा होता तो रह−रहकर वे दिव्य आकाँक्षाएँ उसे क्यों बेचैन किये रहती हैं? देवोपम जीवन जीने के लिए क्यों उसे कोई निरन्तर व्यथित करता रहता है?

फिर दोनों में से कौन गलत है। हम आदि में नर पशु थे या नर−नारायण? गहराई से विचार करने पर प्रतीत होता है कि शारीरिक दृष्टि से मनुष्य ने नीचे से ऊपर को प्रगति की है और आत्मिक दृष्टि से वह ऊपर से नीचे गिरा है। इन दिनों वह अधर में लटक रहा है। असमंजस के साथ वह एक चौराहे पर खड़ा है और सोचता है कि नर−बानर, नर−पशु, नर−कीटक बनने के लिए उसे वापिस लौटना चाहिए अथवा नर−देव बनने की दिशा में अपने चरण पीछे लौटाने चाहिए। आत्म−पक्ष कहता है—तुम देव थे देवत्व की ओर पीछे लौटो। देह−पक्ष कहता कृमि कीटकों का जीवन अधिक स्वच्छंद और निरापद है। उसी मूल उद्गम की ओर लौटकर चैन की वंशी बजानी चाहिए।

असमंजस छोड़कर किसी एक दिशा में चलने का निर्णय उसे करना ही पड़ेगा। आज की अनिर्णीत स्थिति में उसे चैन न मिल सकेगा।


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