देवी प्रतिशोध

May 1974

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सूर्यास्त के बाद —अन्धकार घना होता जा रहा था। अरब की मरुभूमि में रातें भी बड़ी भयावह लगा करती हैं। ऐसे ही रेतीले सुनसान स्थान पर यात्री को एक झोंपड़ी दिखाई दी। जिसमें कोई व्यक्ति गीत गा रहा था। यात्री एक क्षण को रुका और गीत के बोल सुनने लगा।

यात्री को झोंपड़ी में रहने वाले वृद्ध पुरुष की आकृति जानी-पहचानी लगी। स्मृतियाँ उघड़ती गयीं और उसे याद आया कि इस व्यक्ति से उनका निकटतम सम्बन्ध रह चुका है। झोंपड़ी में रहने वाला वृद्ध व्यक्ति युसुफ के नाम से जाना जाता था। यात्री ने युसुफ से कहा—मैं समाज द्वारा बहिष्कृत एक पापी हूँ। सभी ने मुझे अषम कहकर मेरा परित्याग कर दिया। राज कर्मचारी मुझे पकड़ कर दण्डित करने के लिए मेरा पीछा कर रहें है। आज की रात आपके घर में गुजारने का मौका मिल जाय तो बड़ी दया होगी। युसूफ आप तो अपनी दया के लिये संसार भर में प्रसिद्ध है।

युसूफ ने बड़ी विनम्रता पूर्वक कहा—भद्र पुरुष यह घर मेरा नहीं उस परमात्मा का ही है। इसमें तुम्हारा भी उतना ही अधिकार है जितना कि मेरा। मैं तो इस देह का भी स्वामी नहीं हूँ, यह भी एक धर्मशाला है। तुम प्रसन्नता पूर्वक जी चाहे जब तक यहाँ रहो।’

वह अन्दर खाना लाने के लिए चला गया। अभ्यागत को भरपेट भोजन करवा कर सोने के लिए बिस्तर लगा दिया और बिना परिचय पूछे ही सो जाने के लिए कहा।

प्रातःकाल हुआ। पूर्व दिशा में अरुणिमा फैलने लगी और पक्षियों का कलरव गूँजने लगा। युसुफ उठ गये थे और नहा-धोकर अतिथि के जागने का इन्तजार कर करे रहे थे। उधर अतिथि कई दिनों का हारा थका होने के कारण चैन की नींदें ले रहा था। युसुफ अतिथि के पास गये और धीरे से जगा कर बोले—”उठो भाई—सूरज उग आया है। तुम्हारी सुविधा के लिये मैं थोड़ा-बहुत डडडड लाया हूँ उसे लेकर मेरे द्रुतगामी घोड़े पर सवार होकर दूर चले जाना ताकि तुम अपने शत्रुओं की पहुँच से बाहर निकल सको।”

इस सत्पुरुष के मुखमण्डल पर हार्दिक पवित्रता ‘शीतल’ रजनी चन्द्रिका की भाँति फैली हुई थी। उनके शब्द जैसे अन्तःकरण से निकल कर आ रहें थे तभी तो उनका व्यवहार इतना दिव्य बन पड़ा था। इस दिव्य व्यवहार के प्रभाव स्वरूप की आगन्तुक के हृदय में भी पवित्र और सात्विक विचारों का प्रवाह बहने लगा था। अतिथि को अपना पूरा विगत स्मृत हो आया और लगा कि पाप पूर्ण प्रवृत्तियों की कालिमा पश्चाताप के रसायन से स्वच्छ होती जा रही हैं और उनके स्थान पर निर्मल भावों की तरंगें उठने लगी हैं।

पृथ्वी पर घुटने टेक युसुफ के चरणों में झुक कर अतिथि ने कहा—’हे शेख! आपने मुझे शरण दी, भोजन दिया, शान्ति दी और पवित्रता भी दी अब आपके प्रति कृतज्ञता के लिये क्या कहूँ?”

‘मैं कैसे कहूँ कि यह उपकार पापी इब्राहिम के लिए किया है जो आपके बड़े पुत्र का हत्यारा है। हमारे कबीलों में हत्यारे का शिरच्छेद कर ही मृतात्माओं शाँति पहुँचायी जाती है, आप भी उसी परम्परा का पालन कीजिए।’

इब्राहिम यह कहकर मौन हो गया। परन्तु युसुफ ने तो उसे भगाने में और भी जल्दी की क्योंकि वे डरने लगे थे—अपने आप से कि कहीं अपने पुत्र के हत्यारे का वध करने के लिए पाशविक प्रतिशोध न जाग पड़े।” वे बोले-तब तो तुम और भी जल्दी चले जाओ। कहीं मैं प्रतिशोध के कारण कर्त्तव्य भ्रष्ट न हो जाऊँ।

इब्राहिम चला गया और युसुफ ने अपने दिवंगत पुत्र को सम्बोधित करते हुए कहा—मैं तेरे लिये दिन-रात तड़पता रहा हूँ। आज मैंने तेरा बदला ले लिया है। तेरे हत्यारे की नृशंसभावना पश्चात्ताप की अग्नि में जलकर नष्ट हो गयी हैं और उसका हृदय पवित्र हो गया है। अब तू शान्ति की चिरनिद्रा में सो जा।


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