रुचिर वस्तुओं और व्यक्तियों के सम्बन्ध में हमारा मन निरन्तर आतुर और उद्विग्न रहता है। तृप्ति के अवसरों के सम्बन्ध में न जाने कितनी मृदुल कल्पनाएँ मन में समुद्र की तरंगों की तरह उठती रहती हैं किन्तु जब उपभोग के क्षण सामने आते है तो वे सामान्य अन्य क्रियाकलापों से बढ़कर तनिक भी सुखद नहीं होते।
स्वादिष्ट भोजन की कल्पना जितनी मधुर होती है उतना रुचिर वह खाते समय नहीं लगता। फिर वे खाने के क्षण भी एक जैसे आनन्ददायक नहीं रहते। जब पेट खाली होता है और लिप्सा तीव्र होती है तो आहार आरंभ करते समय व्यंजन अधिक स्वादिष्ट लगते हैं किन्तु जैसे−जैसे पेट भरता जाता है वैसे−वैसे उनका आकर्षण घटता जाता है और अन्त में वह स्थिति आ जाती है कि परोसी हुई वस्तुएँ थाली में उपेक्षा पूर्वक छोड़कर चल देना पड़ता है। भोजन से पूर्व और भोजन के पश्चात् की मनः स्थिति में व्यंजनों के सम्बन्ध में कितना अधिक अन्तर होता है। जिह्वा की तरह ही अन्य इन्द्रियों का हाल है। नेत्रों को सुन्दर दीखने वाले दृश्य, नाटक, अभिनय, चित्र थोड़ी देर देख लेने पर अरुचिकर लगने लगते हैं। जल्दी ही एक दृश्य को छोड़कर आगे के दृश्य देखने के लिए मन चलता है। जिन्हें देखने की बहुत समय से लालसा थी वे कुछ ही क्षणों के उपरान्त अरुचिकर हो जाते हैं। यही बात कानों के सम्बन्ध में भी है। एक बार का सुना हुआ गाना दूसरी बार सुनने पर उतना आकर्षक नहीं रहता, बार−बार एक ही प्रवचन सुनने को मिले तो वह कितना ही सारगर्भित रहने पर भी अच्छा न लगेगा।
रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। प्रेम जाल हाथ में लिये फिरने वाले मछुए जहाँ तहाँ मछली फँसाते देखे जाते हैं। तितलियाँ, भ्रमर और मधुमक्खियों का एक देश के एक फल से सन्तोष नहीं होता। एक के बाद दूसरे को टटोलने के लिये वे दूर−दूर तक उड़ानें भरती और चक्कर काटती देखी जाती हैं। संयोग की मधुर कल्पना तृप्ति के उपरान्त सर्वथा निरर्थक और अवास्तविक प्रतीत होती है। प्रेयसी का आकर्षण उसके पत्नी बन जाने के उपरान्त प्रायः चला ही जाता है। यह उतार−चढ़ाव यही बताते हैं कि मृदुल वह सब नहीं जो कहा, सुना और समझा जाता है।
मृदुलता की तलाश वस्तुओं में करना निरर्थक है। क्योंकि संसार का हर पदार्थ जड़ है। उसमें थाव संवेदना उत्पन्न करने की कोई क्षमता नहीं है। अपनेपन के आरोपण से—मान्यता का रंगीन चश्मा पहन लेने से जिस−तिस में आकर्षण दीखने लगता है; इस तथ्य को जो जानते हैं वे तृप्ति के लिये विविध वस्तुओं के पीछे नहीं भागते वरन् अपने दृष्टिकोण का ऐसा परिष्कार करते हैं कि सामने प्रस्तुत−सामान्य जीवन की हर वस्तु रुचिर आकर्षक और आनंददायक लगने लगें।
यह बात व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी है। गुणों और विशेषताओं में भरे विराने व्यक्तियों से हमारा कोई वास्ता नहीं रहता जबकि अपने कुरूप बेटे पर भी गहरी आसक्ति रहती है यह आकर्षण व्यक्तियों का नहीं वरन् आत्मीयता के आरोपण का है। यदि इस आत्मीयता को अधिक व्यापक क्षेत्र में बखेरा जा सके तो परिवार अधिकाधिक विस्तृत होता चला जायगा और अपने बेटों की तरह ईश्वर के सभी बेटे— अपने सहोदर भाई जैसे घनिष्ट दीखने लगेंगे।
आनन्द न तो व्यक्तियों में है और न वस्तुओं में—अपनी मनः स्थिति ही आनन्द और निरानन्द उत्पन्न करती है। यदि इसी केन्द्र को परिष्कृत कर लिया जाय तो सुखद व्यक्तियों और परिस्थितियों की खोज करते रहने और आशा−निराशा के झूलते रहने से छुट्टी मिल सकती है और जो सामने है उसी को सुधरे हुए दृष्टिकोण से देखने पर वह सरसता पाई जा सकती है जिसके लिए हमें निरन्तर आतुर रहना पड़ता है।