हम अगले दिनों दिव्य−दृष्टि सम्पन्न होंगे

May 1974

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क्या मनुष्य की आँखें वही देख सकती हैं जो सामने परिलक्षित होता है? साधारण स्थिति में ऐसा ही होता है। नाक के ऊपर लगे हुए दो नेत्र गोलक केवल सामने की दिशा में और कुछ दाँये−बाँये एक नियत रूप तक के दृश्य देख सकते हैं। सो भी उन्हें जो उनकी ज्योति तथा पदार्थों की ध्वनि तरंगों के संयोग का एक नियत माध्यम बनाते हैं। नेत्र−ज्योति क्षीण ही अथवा पदार्थ जीवाणु परमाणु जैसी सूक्ष्म आकृति का हो तो फिर सूक्ष्म दर्शक अथवा दूरदर्शक यन्त्रों से ही अधिक जानकारी प्राप्त कर सकना नेत्र गोलकों के लिए सम्भव होता है। यह दृश्य वर्तमान काल के ही हो सकते हैं। आगे पीछे के नहीं। फोटोग्राफी, चित्रकला एवं फिल्म टेलीविजन जैसे माध्यमों से भूतकाल के दृश्य भी देखे जा सकते थे। अब तक इतनी ही उपलब्धियों से मनुष्य को सन्तुष्ट रहना पड़ा है।

निकट भविष्य में मनुष्य उन चमत्कारों को भी इन्हीं आँखों से देख सकेगा जो भूतकाल में केवल अध्यात्म विज्ञानियों के लिए ही सम्भव थे। भूतकाल की घटनाएँ सदा सर्वदा के लिए सुरक्षित रखी जा सकेंगी और उन्हें फिल्म टेलीविजन की तरह आभास मात्र स्तर पर नहीं वरन् बिलकुल उसी तरह देखा जा सकेगा जिस तरह आँखों से देखा जाता है। तब यह पहचानना कठिन हो जायगा कि जो दृश्य देख रहे हैं वह असली है या नकली। भूतकाल को हम वर्तमान में पूर्णतया वैसा ही देखेंगे मानो वह सचमुच अभी−अभी ही घटित हो रहा है और हम उसे बिलकुल असली रूप में देख रहे हैं। ऐसा ‘त्रिआयतन’ फोटोग्राफी के सुविकसित विज्ञान के द्वारा सम्भव हो सका है।

दुर्योधन को पाण्डवों के घर जाकर थल में जल और जल में थल दिखाई दिया था। वह दर्पण का चमत्कार सही था। दर्पण के लिए दूसरी छवि वैसी ही सामने उपस्थित होनी चाहिए। वैसा वहाँ कहाँ था? खुले आकाश में बिना किसी पर्दे की सहायता के अभीष्ट दृश्यों को देख सकना निस्सन्देह बहुत ही अद्भुत है। पहली बार जिन्हें वैसा कुछ देखने को मिलेगा वे निस्सन्देह अवाक् रह जायेंगे और अपनी आँखों पर विश्वास न करेंगे। संजय ने घर बैठे महाभारत के दृश्य देखे थे और सारा घटना क्रम धृतराष्ट्र को सुनाया था। इस सम्भावना की टेलीविजन ने पुष्टि कर दी थी अब रही बची—कसर ‘होलोग्राफी’ ने पूरी कर दी है। उस विज्ञान के आधार पर हम देशकाल की समस्त परिधियों को तोड़कर किसी घटना क्रम को इतने स्पष्ट और इतने निर्दोष रूप में देख सकते हैं कि असल−नकल को पहचान सकना ही सम्भव न रहे।

अब विज्ञान और अध्यात्म एक स्थान पर मिलने जा रहे है दोनों के संयुक्त प्रयासों से मनुष्य की क्षमता और सम्भावनाओं का इतना विकास विस्तार हो जायगा कि उसे ईश्वर का राजकुमार सर्व शक्ति मान सत्ता का उत्तराधिकारी निश्चित रूप से स्वीकार किया जा सके। इस प्रकार के प्रमाण प्रस्तुत करने में एक महत्वपूर्ण साक्षी ‘होलोग्राफी’ की भी होगी।

विज्ञानाचार्य आइन्स्टाइन ने देश और काल की मान्यता को भ्रान्त—अवास्तविक—सिद्ध किया है। वेदाँत दर्शन में जगत को माया—भ्रान्तिवत् कहा है और रज्जु सर्प का उदाहरण देकर यह बताया है कि जो कुछ हम देखते हैं वह वास्तविक नहीं है। अणु विज्ञानी की दृष्टि में यह संसार अणु धूलि के आँधी−तूफान से भरा बवण्डर मान है इसमें भँवर चक्रवात जैसे उपक्रम बनते बिगड़ते रहते हैं उन्हें ही अमुक पदार्थों के रूप में अनुभव किया जाता हैं। जो कुछ दिखाई देता है वह खोखला आवरण मात्र है उसके भीतर आणविक हलचलों को अधड़ भर चलता रहता है। हमारा मस्तिष्क और नेत्र संस्थान अपनी बनावट एवं अपूर्ण संरचना के कारण वह सब देखता है जिसे हम यथार्थ मानते हैं वस्तुतः होता कुछ और ही है।

स्थिर तस्वीरों को चलती−फिरती दिखाकर सिनेमा ने बहुत पहले ही यह सचाई सामने ला दी थी कि आँखों को प्रामाणिक साक्षी नहीं माना जा सकता वे जो कुछ देखती या अनुभव करती है वह सब का सब यथार्थ ही नहीं होता। अब रही बची कमी होलोग्राफी ने पूरी कर दी है वह पर्दे पर नहीं, खुले आकाश में हमें ऐसे दृश्य दिखा सकती है मानो उस देशकाल की स्थिति यथार्थ रूप से देखी जा रही है जो वस्तुतः दूरवर्ती ही नहीं भूतकाल की भी है। उस दृश्यावली को फोटोग्राफी कहना—स्वीकार करना भी दर्शक के लिए सम्भव न रहेगा।

अध्यात्म विद्या के आधार पर देशकाल की परिधि से बाहर के दृश्यों को देख सकना सम्भव रहा है इसे दिव्य दृष्टि कहा जाता रहा है। दिव्य दृष्टि की बात अविश्वसनीय नहीं है। यह तथ्य होलोग्राफी के रूप में अब गम्भीरतापूर्वक विचार करने के योग्य प्रतीत होता है कि हमारी आँखें धोखा खाती हैं और अवास्तविक को वास्तविक समझती हैं। यह तथ्य भी उभरता आता है कि हमारे सामने की दिशा में और नियत सीमा के दृश्य ही देखे जा सकते हैं। किसी भी दिशा के पीठ पीछे के भी—भूतकाल के भी—दूर देश के भी दृश्य हम इन्हीं आँखों से देख सकते हैं और आइन्स्टाइन के इस मत की पुष्टि कर सकते हैं कि देशकाल की मान्यता भ्रामक है।

प्रकाश किरणों को छवि के रूप में पकड़ने की कला अब फोटोग्राफी—टेलीविजन तक सीमित नहीं रही अब वे आधार प्राप्त कर लिये गये हैं जिनसे तीन आयामों वाले−त्रिविमितीय—चित्र देखे जा सकें। आमतौर से फोटोग्राफी लम्बाई−चौड़ाई का ही बोध कराती है गहराई का तो उसमें आभास मात्र ही होता है, यदि गहराई को भी प्रतिविम्बित किया जा सके तो फिर आँखों से देखे जाने वाले दृश्य और छाया अंकन में कोई भेद न रहेगा। ऐसा दृश्य प्रचलन सम्भव हो सका तो फिल्में अपने वर्तमान अधूरे स्तर की फोटोग्राफी तक सीमित नहीं रहेगी वरन् पर्दे पर रेल, मोटर, घोड़े, मनुष्य आदि उसी तरह चलते, दौड़ते दिखाई पड़ेंगे मानो वे अपने यथार्थ स्वरूप में ही आँखों के आगे से गुजर रहे हैं यदि सामने से अपनी ओर कोई रेल दौड़ती आ रही हो या शेर झपटता आ रहा हो तो बिलकुल यही मालूम पड़ेगा कि वे अब अपने ऊपर ही चढ़ बैठने वाले हैं। ऐसी दशा में आरम्भिक अभ्यास की स्थिति में सिनेमा दर्शक को भयभीत होकर अपनी सीट छोड़कर भागते ही बनेगा।

प्रकाश विज्ञानी एर्नेस्टएये और उनके सहयोगी शिष्य डी. गैवर ने ‘होलोग्राफी’ के एक नये सिद्धाँत का आविष्कार किया जिसके आधार पर—त्रिविमितीया—स्तर का छाया चित्रण आँखों से देखा जा सकेगा और भूतकालीन दृश्यों को इन्हीं आँखों से इस प्रकार देखा जा सकेगा मानो वह घटना क्रम अभी−अभी ही बिलकुल सामने घटित हो रहा है।

इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप के इस विधि विज्ञान को रूस ने विज्ञानी यूरीदैनिस्यूक के नेतृत्व में और भी आगे बढ़ाया है। इस युग वैज्ञानिक ने परम्परागत पतली परत वाली फोटो ‘प्लेटों’ के स्थान पर मोटी परत लगाई और उन पर प्रकाश किरणों को गहराई तक प्रवेश कर सकने का अवसर दिया। फलतः तीन आयाम वाले चित्रों का प्रदर्शन होना सम्भव हो गया। इस प्रकार के चित्रों की एक विशेषता यह है कि जिस कोण से इन्हें देखा जाय वे उसी कोण से खींचें हुए पूर्ण प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ेंगे। सामने खड़े होकर देखें तो वे सामने से खिंचे हुए दीखेंगे और अगल−बगल से देखने पर लगेगा उन्हें इसी प्रकार खींचा गया है और जितना अंश वहाँ खड़े हुए दृश्य को जिस रूप में देखा जा सकता था, फोटोग्राफ ठीक उसी तरह का दीख रहा है।

होलोग्राफी वस्तुतः ‘लेजर’ किरणों के अनेक चमत्कारों में से एक है। लेजर का सैद्धाँतिक आविष्कार आइन्स्टाइन ने किया था। 50 वर्ष बाद उस परिकल्पना को साकार बनाया चार्ल्स टाडनेस ने सन् 1954 में। परमाणुओं की एक विशेष विद्या से उत्तेजित करने और उनसे एक जैसी माइक्रो तरंगें निकालने की आरम्भिक प्रक्रिया ‘मेजर’ कहलाती थी। उसी का परिष्कृत रूप चार वर्ष बाद सामने आया और वह ‘लेजर’ कहलाया।

कुछ पदार्थों को गरम या उत्तेजित करने से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा एवं आभा निकलती है जो रोशनी की बत्ती से भिन्न प्रकार की होती है। साधारण प्रकाश कई रंगों की किरणों से मिलकर बना होता है और वे किरणें अलग−अलग लम्बाइयों और कलाओं की होती है। इन्द्र धनुष पड़ते समय यह लम्बाई की भिन्नता ही उस सुन्दर दृश्य के रूप में अपना परिचय देती है। इस बिखराव को एक भीड़ भेड़चाल कह सकते हैं। लेजर प्रक्रिया में परमाणुओं को उत्तेजित करके एक ही रंग की—एक ही कद की किरणें निकाली जाती हैं और उन्हें अधिकाधिक सघन बनाया जाता है। इतने से ही वे किरणें इतनी प्रचण्ड हो उठती हैं कि गजब के काम करती हैं। इन्हें अब तक के उपलब्ध शक्ति स्रोतों में सबसे अधिक प्रचण्ड माना जाता है। अणु विस्फोट की शक्ति से भी कई क्षेत्रों में यह अधिक तीखी और पैनी हैं। लेजर किरणों के प्रयोग से अगले दिनों भौतिक क्षेत्रों में अनोखी एवं क्रान्तिकारी प्रतिक्रिया सामने आने वाली है। उन्हीं में से एक होलोग्राफी भी है।

आविष्कार के आरम्भिक दिनों में यह कठिनाई थी कि लेजर किरणें केवल एक ही रंग के बनते थे। दूसरी कठिनाई यह थी कि खींचने की तरह देखने में भी लेजर किरणों का प्रकाश ही प्रयुक्त करना पड़ता था। स्पष्ट है कि लेजर अत्यन्त खतरनाक होती है। उनका तनिक भी व्यक्ति क्रम हो जाय तो सर्वनाश निश्चित है। अब उसमें कितने ही सुधार हो गये हैं। विज्ञानी लिपमाना ने तीन आयाम वाली फोटोग्राफी के लिए जो ‘प्लेट’ बनाई थी वे होलोग्राफी के लिए फिट बैठ गई हैं और तस्वीर देखने के लिए साधारण रोशनी के प्रयोग से काम चलने लगा है। यह सुधार हो जाने से अब मार्ग निष्कंटक हो गया और सर्व साधारण के लिए होलोग्राफी का आनन्द हो सकना सम्भव हो गया अब उसके लिए सुलभ यंत्रों का बनना ही शेष रह गया है।

होलोग्राफी का आविष्कार ब्रिटिश नागरिक डा. डैनिस गेवर ने किया उसे इसके उपलक्ष में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला है। चमत्कारी आविष्कारों में इस भौतिकी को अपने ढंग की अत्यन्त अद्भुत ही कहा जायगा। यों अभी उसका क्षेत्र निर्धारित प्रयोगशालाओं में ही है। फिल्म या टेलीविजन की तरह उसका विस्तार इतना व्यापक नहीं हुआ है कि जनसाधारण उससे लाभ उठा सके पर वह दिन दूर नहीं जब यह आविष्कार भी सर्व सुलभ हो जायगा। फोटोग्राफी का विज्ञान आविष्कृत होने के 112 वर्ष बाद सर्व साधारण लिए प्रयोग योग्य बन पाया था। टेलीफोन 56 वर्ष बाद—टेलीविजन 12 वर्ष बाद—एटम बम 5 वर्ष बाद—अपने आविष्कार के बाद उपयोग में आये थे। होलोग्राफी को भी कुछ समय लग सकता है पर जब भी वह प्रयुक्त होगी तब जिनने उसे पहले कभी नहीं देखा था उन्हें बहुत ही अजीब—किसी जादू लोक के तिलस्म जैसा लगेगा।

वस्तुतः मनुष्य स्वयं ही एक जादू है। उसकी चेतना चमत्कारी है। उसकी दौड़ जिधर भी चल पड़ती है उधर ही चमत्कारी उपलब्धियाँ प्रस्तुत करती है। कहते हैं कि प्रेत छुए नहीं जाते—हाथ से पकड़ने में नहीं आते तो भी वे दिखाई तो यथार्थ जैसे ही पड़ते हैं। प्रेतों की किंबदंतियों अप्रामाणिक हो सकती हैं पर होलोग्राफी किन्हीं जीवित या मृत मनुष्यों, प्राणियों अथवा पदार्थों के साथ यथार्थ मिलन जैसा अवसर प्रदान करती है उस प्रत्यक्ष को कैसे तो अविश्वस्त कहा जाय और कैसे अप्रामाणिक ठहराया जाय?

मानवी सूझ−बूझ, चिन्तन, प्रयत्न पुरुषार्थ का प्रतिफल होलोग्राफी जैसा सामने आ सकता है जिस चेतना द्वारा यह सब सोचा गया और प्रस्तुत किया गया है उसका स्वरूप समझना और उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करना यदि हमारा प्रिय विषय बन गया होता तो भौतिक उपलब्धियों की अपेक्षा लाख गुनी अधिक महत्वपूर्ण विभूतियाँ हमारे हाथ आई होतीं और उनके सहारे इतना अधिक वर्चस्व करतल गत हुआ होता कि अपूर्णता जैसी कोई वस्तु ही शेष न रहती। पूर्ण से उत्पन्न हुए हम सब पूर्णता का आनन्द ले रहे होते और मानवी सत्ता को धन्य बना रहे होते।


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