सबके कल्याण में ही अपना कल्याण है

May 1974

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चेतना कटिअविष्ठाता विश्वात्मा है। बिखरी हुई आत्माएँ उसी के छोटे−छोटे घटक हैं। जब तक यह इकाइयाँ परस्पर मिलकर रहती हैं और एक−दूसरे के साथ अविछिन्न रूप से जुड़ी हैं तभी तक दृश्यमान सौंदर्य का अस्तित्व है। यदि इनका विघटन होने लगे तो केवल धूलि मात्र ही इस संसार में शेष रह जायगी। विश्व−मानव की विश्वात्मा यदि अपनी समग्र चेतना से विघटित होकर संकीर्ण स्वार्थपरता में बिखरने लगे तो समझना चाहिए विश्व−सौंदर्य की समाप्ति का समय निकट आ गया।

शरीर एक है। उसमें उँगलियाँ, उनके पोरुवे, जोड़, हड्डियाँ, माँस पेशियाँ आदि अनेक हैं। उन सबका मिला−जुला स्वरूप ही शरीर है। इन सभी का समन्वय जीवनक्रम को चलाता है। वे सभी बिखरने लगें। अपनी अलग इकाई को ही सब कुछ मानें दूसरे अंगों को सहयोग करने की बात सोचना छोड़ दें तो फिर समझना चाहिए उन्हें भी दूसरों के सहयोग से वंचित होना पड़ेगा। ऐसी दशा में जिस स्वार्थ को साधने की उनकी इच्छा थी वह भी न सध सके गा।

हाथ तभी तक सक्रिय रहेगा जब तक वह अपनी कमाई मुँह को देगा—मुँह पेट को देगा—पेट हृदय को और हृदय अपने उपार्जन रक्त का वितरण समस्त शरीर को। अपनी कमाई दूसरों को सौंपने का अर्थ प्रकारान्तर से अनेक गुना लाभ अपने लिए उपार्जित करना डडडड हाथ अपनी कमाई को अपनी मुट्ठी में रखे रहे—मुँह या पेट को देने से इनकार कर दें तो फिर भूखा शरीर सूखता जायगा और वे हाथ भी उस विपत्ति से संत्रस्त हुए बिना न रहेंगे। अपनी कमाई वे मुँह को देते हैं तो बदले में बहुमूल्य रक्त प्रवाह का लाभ हैं और जितनी शक्ति कमाने में खर्च की थी उसकी भरपाई कर लेते हैं।

उँगली यदि शरीर की क्रमबद्ध सत्ता व्यवस्था में भाग लेने से इनकार कर दें और अपने को अलग−थलग काट कर स्वतन्त्र रहने में विश्वास करे तो वह घाटे में रहेंगी। कटी हुई उँगली देखते−देखते निर्जीव हो जायगी और सड़ने लगेगी। कट जाने पर मनमर्जी करने का जो लाभ सोचा था वह इसलिए न मिल सकेगा कि रक्त प्रवाह के लिए उसे दूसरे अंगों पर निर्भर रहना पड़ता था। सहयोग देने से इनकार करने का अर्थ सहयोग पाने क द्वार बन्द कर देना भी है। हमारे एक के सहयोग न देने से भी समाज शरीर का क्रम चलता रहेगा पर अपने को स्वार्थी एवं असामाजिक सिद्ध करने के बाद समाज का सद्भाव खो देने की जो हानि उठानी पड़ेगी उससे अपनी ही क्षति अधिक होगी।

हम संकीर्ण न बनें। तुच्छ स्वार्थपरता की नीति अपनायें। अपने को अलग−अलग करके न सोचे। व्यक्ति वाद के कुचक्र में न फंसे। एकाकीपन स्पष्टतः एक संकट है। विश्वात्मा का उपयोगी अंग अपने को सिद्ध करने पश्चात् ही हमारा गौरव बढ़ता है और अपना ही न अन्य सबका भी भला कर सकें।

यहाँ कोई विराना नहीं। सब अपने ही हैं। ईश्वर के सभी पुत्र परस्पर सहोदर भाई की तरह हैं। मिल−जुलकर रहने, मिल−बाँटकर खाने और परस्पर सेवा सहायता की उदार नीति अपनाने में ही भलाई है। सबके कल्याण में ही अपना कल्याण समाया हुआ है।


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