लता ने सुकोमल बाहुओं से वृक्ष को पकड़ कर पूछा—’तुम मेरे आश्रयदाता हो। मेरे सुख और समृद्धि का सारा श्रेय तुम्हीं को है। तुम्हारा आधार पाकर ही तो मैं इतना विकास कर सकी हूँ। मैंने चारों ओर से तुम्हें घेर कर बन्धन में जकड़ लिया है। जब कभी तुम्हारे मन में स्वच्छन्द जीवन की कल्पना आती होगी तो यह बन्धन असह्य होता होगा? सचमुच मैंने तुम्हारे प्रति अन्याय किया है। मैं लज्जित हूँ। मुझे क्षमा दान दो’
‘युगों से जिस प्रेम के बन्धन को पाने के लिये प्राणी प्रयत्नशील है, फिर उससे मुक्त होने की बात किसके मन में आ सकती है?—तुम्हीं सोचो।’ वृक्ष ने मृदुल स्वर में उत्तर दिया।
लता अपने आश्रयदाता के विचारों में ही बहुत देर तक खोई रही।