ऐसा बड़प्पन किस काम का?

May 1974

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जन साधारण के साथ रहने को—उनके साथ मिलजुलकर चलने को प्रकृति यों ‘सामान्य’ स्तर की मानी जाती है और उसमें बड़प्पन का आभास नहीं होता। तो भी वह अपने लिए और दूसरों के लिए अत्यधिक उपयोगी होती है। इसके विपरीत वह सम्पन्नता जो व्यक्ति विशेष को असाधारण सिद्ध करते हुए जन संपर्क से दूर रखती है—सौभाग्य का चिह्न समझी जाने पर भी वस्तुतः खोखली और नीरस ही होती है।

कितने ही व्यक्ति अपने अहंकार की पूर्ति के लिए सर्वसाधारण की अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचे एवं भिन्न बनने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और सोचते हैं इससे उनका मान−गौरव बढ़ेगा। विशिष्ट व्यक्ति समझा जायगा और लोग चकित होकर अपनी तुलना में कहीं अधिक ऊँचा उठा हुआ समझेंगे—तदनुरूप उस बड़प्पन का लोहा मानेंगे। यह मान्यता अत्यन्त भ्रामक है। सर्व साधारण की अपेक्षा अपनी आन्तरिक महानतम अधिक हो—गुण, कर्म, स्वभाव की उच्चस्तरीय विभूतियाँ जुड़ी हों, यह ठीक है पर बाह्य जीवन में सबसे मिलकर—सबके साथ रहकर ही आनन्द, उल्लास का उपयोग किया जा सकेगा। बड़प्पन की हविस में जो असाधारण बनने का उद्धत प्रयास करेगा वह अचम्भे—अजूबे जैसा भले ही प्रतीत हो वस्तुतः वह उपेक्षा एवं अवमानना का ही पात्र बनेगा।

क्या यह आकाँक्षा—मान्यता सही है? क्या बड़े और ऊँचे बनने की तृष्णा में जन साधारण का स्तर छोड़ देने से वह गौरवास्पद बनने का उद्देश्य पूरा हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर पृथ्वी के इर्द−गिर्द फैली हुई वायुमंडल की परतों की स्थिति पर विचार करने से सहज ही समझा जा सकता है।

पृथ्वी अपने चारों ओर हवा का बना एक ऐसा कवच धारण किये हुए है जिससे उसकी समृद्धि सुरक्षित बनी रहती है। यह कवच न होता तो आकाश में घूमने वाली उल्काओं के प्रहार से उसकी वैसी ही दुर्गति हुई होती जैसी चन्द्रमा की हुई है। चन्द्रमा पर हवा का आवरण नहीं है। इसलिए अन्तरिक्ष में उड़ने फिरने वाले उल्कापिण्ड उससे जा टकराते हैं और सैकड़ों मील लंबे−चौड़े गहरे भयंकर गर्त प्रस्तुत कर देते हैं। चन्द्रमा का तल ऐसे ही खड्डों से भरा ऊबड़ खाबड़ है। वायु रहित अनन्त शून्य अन्तरिक्ष से पृथ्वी की सत्ता को पृथक एवं सुरक्षित रखने का श्रेय इस वायु आवरण को ही है।

हमारे वायुमण्डल में कई प्रकार की गैसों का सम्मिश्रण है। 21 प्रतिशत आक्सीजन, 17 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1 प्रतिशत कार्बनडाइ−आक्साइड तथा थोड़ी−थोड़ी मात्रा में भाप, नियेन, हीलियम, क्रिप्टन, ऐनोन आदि गैसें हैं। यह संमिश्रण पृथ्वी की सतह पर सबसे अधिक होता है फिर ऊपर जितने चढ़ते जाँय उतनी ही हवा गैसों से रहित पतली होती जायेंगी। अधिक ऊँचाई पर हवा रहती तो है पर वह इतनी पतली होती है कि उसमें प्राणी जीवित नहीं रह सकते। दस हजार फुट ऊँचे पहाड़ों पर चढ़ते ही आक्सीजन की कमी अनुभव होने लगती है और साँस लेने में कठिनाई पड़ती है। बीस हजार फुट ऊँचे पर्वत शिखर पर तो बिना आक्सीजन की पेटी साथ लिए साँस ले सकना और जीवित रह सकना ही सम्भव न रहेगा।

पृथ्वी का वायुमण्डल कई परतों में बाँटा जा सकता है। पहली परत समुद्र तल से लेकर 8 मील (42 हजार फुट) ऊँचाई का है, पृथ्वी का मौसम इसी में विनिर्मित होता है। इसे ट्रोपोस्फियर कहते हैं।

इस पहली परत में जितनी अधिक सामर्थ्य और सम्पदा भरी पड़ी है ऊपर की परत में—उसकी तुलना में नगण्य जितना वैभव है, यद्यपि उनका क्षेत्र विस्तार अत्यधिक है। निचली परत में ही जीवधारी साँस लेते हैं, पेड़ पौधे जीवन प्राप्त करते हैं, वर्षा−बादलों की विशेषता उसी में है। महत्वपूर्ण गैस संपदा इसी क्षेत्र में है। रेडियो संचार दूर−दर्शन, विद्युत−प्रवाह एवं अन्यान्य अति महत्वपूर्ण अन्तरिक्षीय शक्तियों का बाहुल्य इसी में है। वह प्राणियों के साथ घुली रहने वाली यह परत की समृद्धि, सुन्दरता का अभिवर्धन करती है। हर दृष्टि से पृथ्वी के लिए उस पर निवास करने वालों के लिए यह निचली परत इतनी अधिक उपयोगी है कि अन्य तीनों मिलकर भी उतनी नहीं बैठती।

हवा की दूसरी परत 8 मील ऊँचाई से लेकर 60 मील ऊँचाई तक फैली हुई है। इसमें 12 से 21 मील की परिधि में ओजोन गैस की प्रचुर मात्रा है। पृथ्वी की निचली परत पर पाई जाने वाली आक्सीजन और सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों के टकराव से ओजोन बनती है। यह ओजोन सूर्य के प्रचंड ताप को अपने में सोख लेती है और धरती पर उतनी ही मात्रा आने देती है जितनी कि आवश्यक है। यदि यह ओजोन आवरण हमारे इर्द गिर्द न होता तो सूर्य की सीधी किरणें धरती की समस्त जीवन सम्पदा को कब का भूनकर रख देती। यह गर्मी जब घटती−बढ़ती है तो उसका प्रभाव पृथ्वी के मौसम पर भी पड़ता है। स्ट्रेटोस्फीयर आवरण में नीचे और ऊपर के हिस्से में तापमान की दृष्टि से असाधारण अन्तर पाया जाता है। ओजोन परत की निचली तह शून्य से 67 डिग्री फारेनहाइट नीचे रहती है जबकि उसकी ऊपरी परत शून्य से 170 डिग्री फारेनहाइट ऊपर तक चली जाती है। इस परत में चलने वाली हवाएँ प्रायः 200 मील प्रति घण्टे की चाल से चलती हैं। कभी−कभी वे 50 मील नीचे के क्षेत्र में भी उतर आती हैं।

60 मील से लेकर 120 मील तक ऊपर का क्षेत्र आइनोस्फियर कहलाता है। इस आवरण में जब सूर्य किरणें प्रवेश करती हैं तो आक्सीजन तथा नाइट्रोजन के परमाणु उनके प्रहार से टूट−टूटकर बिखरने लगते हैं और विद्युत् शक्ति सम्पन्न अणुओं का रूप धारण कर लेते हैं। इन्हें ‘चार्ज्ड एटम अथवा मोलेक्यूल’ कहते हैं। यों यह प्रक्रिया 30 मील ऊँचाई से भी किसी कदर आरम्भ हो जाती है पर अन्त उसका 120 मील पर ही जाकर होता है। यह परत रेडियो सञ्चार की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। रेडियो ध्वनि तरंगें जब अनन्त आकाश में फैलती है तो यह ‘चार्ज्ड एटम्स’ ही उन्हें रोक देते हैं और डरा धमका कर वापिस लौटा देते हैं। यही कारण है कि हमारे रेडियो सन्देश पृथ्वी की निचली परत में घूमते रहते हैं और हम उन्हें सुन सकते हैं। यदि यह पहरेदार परत न होती तो हमारे प्रसारण अनन्त अन्तरिक्ष में खोजते और हम उन्हें पकड़ या सुन न सकते।

आइनोस्फियर परत के ऊपर भी यों कहने भर को हवा मौजूद है पर उसका कोई उपयोग नहीं। उसमें अणु−परमाणु भर यहाँ वहाँ उड़ते फिरते हैं। इसे एक्सोफीयर कहते हैं। अनन्त अन्तरिक्ष यहीं से आरम्भ होता है।

इन ऊपर की परतों के लिए हम उनके विस्तार के कारण कृतज्ञ नहीं है वरान् इसलिए हैं कि वे छतरी की छाया करके सूर्य की प्रचण्ड ऊर्जा से हमारी पृथ्वी को बचाती हैं और आक्रमणकारी उल्काअ को जलाकर भस्म कर देती हैं। रचनात्मक प्रत्यक्ष अनुदान न सही—संरक्षण एवं सुरक्षात्मक सही—कुछ तो उपकार वे ऊपरी परतें करती ही हैं। उस सीमा तक भूतल के निवासियों को उनका भी आभारी रहना पड़ता है। यदि यह दो विशेषताएँ भी न होती तो उन अत्यधिक ठण्डे अत्यधिक गरम और सांस लेने में अयोग्य सुविस्तृत क्षेत्र की ओर अपना ध्यान भी नहीं जाता और उनकी चर्चा करने की भी किसी को फुरसत न होती भले ही वे परतें अपनी ऊँचाई, क्षेत्र विस्तृत पर गर्व करतीं हुई अपने घर में दबी बैठी रहतीं।

जन−जीवन से दूर रहने वाले—अपने को असाधारणता के वैभव से सुसज्जित करने वाले कौतुक कौतूहल के पात्र चमत्कारी समझे जा सकते हैं पर उन्हें लोकश्रद्धा से सदा वंचित ही रहना पड़ता इसके बिना इनका बड़प्पन निताँत निरर्थक एवं भारभूत बनकर ही रह जाता है। हवा की निचली परत की तर हम लोकोपयोगी जीवन जियें— जन–संपर्क एवं जनसेवा की नीति अपनायें तो हम सम्मानास्पद भी हो सकते हैं और महामानव भी। खजूर की तर निरुपयोगी ऊँचाई किस काम की—हवा की ऊंची परतें सेवा और सहयोग के आधार पर मिल सकने वाले गौरव को कहाँ प्राप्त कर पाती है।


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